चमन देखा हे
हमने दुनिया का चमन देखा हे
मुश्किल में अपना बतन देखा
बक्त की मार से हो के तबाह
इन्सान को नगे बदन देखा हे
मतलबी यारी निभाने को
दोस्त दुशमन का मिलन देखा हे
देश की सम्पदा मिटाने को
चोरी से होते खनन देखा हे
हर हुनर से यूँ धन कमाने को
लोगो को करते जतन देखा हे
औरो के लिए मोम सा पिघलते
जीवन को हबन करते देखा हे
सही गलत का भेद मिटाते.
हमने पेसो का बजन देखा हे
डॉ अजय आहत
Added by Dr.Ajay Khare on December 11, 2012 at 1:00pm — 5 Comments
तुमको लिखते हाथ कांपते
अक्सर शब्द सिहरते हैं
तुम क्या जानो तुमसे मिलकर
कितने गीत निखरते हैं
कर लेना सौ बार बगावत
पल भर आज ठहर जाओ
तेरा-मेरा आज भूलकर
चंदन-पानी कर जाओ
तुम बिन मेरा सावन सूखा
बादल खूब गरजते हैं
देख रहे जो झिलमिल लडि़यां
बहते अश्क लरजते हैं
कैसे लिख दूं बदन तुम्हारा
बड़ी कश्मकश है यारा
बदनाम चमन अंजाम सनम
कलम बिगड़ती है…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on December 11, 2012 at 12:34pm — 12 Comments
Added by Dr.Ajay Khare on December 11, 2012 at 11:30am — 9 Comments
Added by Dr.Ajay Khare on December 11, 2012 at 11:30am — 10 Comments
हमने सुना है कि शिक्षक कि नजर में सभी बच्चे एक सामान होते है लेकिन इस कहानी को पढने के बाद शायद ये बात गलत ही साबित होती नजर आती है l
यह कहानी एक छोटे से गॉव कि है जहाँ एक विधालय में सभी जाति के बच्चे पढ़ते थे और हर एक कक्षा में लगभग ६०-८० बच्चे हुआ करते थे l उसमे रामू और उसके कुछ दोस्त जो निम्न जाति के थे, पढ़ते थे l इसी स्कुल में एक अध्यापक बाबु जो उच्च जाति से सम्बन्ध रखता था सदा निम्न जाति के बच्चो को हीन दृष्टि से देखता था और व्यव्हार से कंजूस व् लालची था l वह स्कूल में कम पढाई…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on December 11, 2012 at 11:20am — 5 Comments
सरकार बाबू को सेवामुक्त हुए लगभग ६ साल हो गए हैं. उनका लड़का राज भी कंपनी में ही कार्यरत है. इसलिए कंपनी का क्वार्टर छोड़ना नहीं पड़ा. यही क्वार्टर राज के नाम से कर दिया गया. पहले पुत्र और पुत्रवधू साथ ही रहते थे. एक पोता भी हुआ था. उसके 'अन्नप्रासन संस्कार' (मुंह जूठी) में काफी लोग आए थे. अच्छा जश्न हुआ था. मैं भी आमंत्रित था..... बंगाली परिवार मेहमानों की अच्छी आवभगत करते हैं. खिलाते समय बड़े प्यार से खिलाते हैं. सिंह बाबू, दु टा रसोगुल्ला औरो नीन! मिष्टी दोही खान!(दो रसगुल्ला और लीजिये,…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on December 11, 2012 at 4:30am — 17 Comments
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 11, 2012 at 12:00am — 43 Comments
खुशियों ने ऊँचे दामों की , फिर पक्की दूकान लगायी
Added by ajay sharma on December 10, 2012 at 11:12pm — 6 Comments
उस साल
कहर सी थी सर्दी
ठिठुरन बढ़ रही थी
हमने जेहन में खड़े कुछ दरख्त काटे
और जला लिए कागज़ पर
ज्यादा तो नहीं मगर हाँ....
थोड़ी तो राहत मिल ही गयी
पास से गुजरते हुए लोग भी
तापने के लिए बैठने लगे
अलाव धीरे धीरे... महफ़िल सा बन गया
अलाव जब बुझ गया ..लोग चले गये
फिर तो
रोज़ ही हम कुछ दरख्त काट लाते
रोज़ अलाव जलता रोज़ ही लोग आते
इस तरह हर रोज़ महफ़िल सजने लगी
मगर एक ताज्जुब ये था कि
रोज़ ही काटे जाने पर भी
दरख्त कभी कम नहीं होते…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 10, 2012 at 9:52pm — 3 Comments
हाँ प्यार से इकरार है
पर शिर्क से इंकार है
अब दिल में वो जज़्बा नहीं
बस प्यार का बाज़ार है
मेरा ठिकाना क्या भला
जब बिक चुका घर-बार है…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on December 10, 2012 at 5:00pm — 6 Comments
पत्नी चालीसा
जय जय जय पत्नी महरानी
महिमा आपकी किसी ने न जानी
जबसे घर में व्याह के आई
मची हुई हे खीचातानी
जय जय जय पत्नी महरानी
सास ससुर भये भयभीत
देवर ननद से जुडी न प्रीत
घर की बन बैठी तुम आका
फहरा दी हे विजय पताका
भोली भली दिखती थी आप…
ContinueAdded by Dr.Ajay Khare on December 10, 2012 at 4:30pm — 7 Comments
ब्यूटी
मेरे आफिस में आई एक ब्यूटी
देख कर उसको, में भूल गया ड्यूटी
मुस्कुरा के किया उसने ,निबेदन
नोकरी के लिए सर, किया था आवेदन
पास किया हे सर, मेने शीघ्र लेखन…
ContinueAdded by Dr.Ajay Khare on December 10, 2012 at 4:30pm — 6 Comments
संगीत की विद्यार्थी हूँ ...संगीत से जुड़े कई शब्द मुझे जीवन के साथ चलते दिखते हैं | जो लोग इन शब्दों के विशेषता से अनभिज्ञ हैं उनके लिए कुछ बताना चाहती हूँ ..आशा करती हूँ इस सक्षिप्त व्याख्या से गीत समझने में आसानी होगी
------किसी भी राग में षडज(स ) और पंचम (प )स्वर अनिवार्य हैं जबकि रे,ग,म ,ध नी को वर्जित कर नए नए रागों की रचना की जाती
........ वादी-संवादी राग के सबसे महत्त्वपूर्ण स्वर होते हैं
-----विवादी स्वर…
ContinueAdded by seema agrawal on December 10, 2012 at 2:30pm — 9 Comments
कटेगी सिर्फ़ दिलासों से ज़िंदगी कब तक।
रहेगी लब पे ग़रीबों के खामुशी कब तक॥
वरक़ पे आने को बेताब हो रहा है अब,…
ContinueAdded by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on December 10, 2012 at 12:30pm — 7 Comments
हवा में खुश्की बढ़ रही
पर ठण्ड आने में देर है
धूप के बिछौने पर बैठ कर
फुर्सत के दिन आने वाले है
छोटे छोटे दिन पंख लगा कर उड़ा करेंगे
Added by rajluxmi sharma on December 10, 2012 at 12:15pm — 3 Comments
हम उनके कर्ज़दार नहीं,वोह मेरे कर्ज़दार हैं
हम तो आज भी सर आँखों पे बिठाने को तैय्यार हैं
वोह चाहे तो आजमा ले, हम जीत जाएँगे
हमें अपनी दिल्लगी पे ऐतवार है
***(न सुना पाऊंगा) ***
जलता 'दीपक'हूँ हवाओं से तो बुझ जाऊँगा
न करोगे तो कभी याद नहीं आऊँगा
जलता 'दीपक'हूँ हवाओं से तो बु----
(1)धुँधली सी हो…
Added by Deepak Sharma Kuluvi on December 10, 2012 at 12:00pm — 1 Comment
माँ जब तेरी याद आती है,
बारिश में भीगा मैं जब जब
वो हिदायतें याद आती हैं
तुमने दी थीं प्यार से मुझको…
Added by SUMAN MISHRA on December 10, 2012 at 11:30am — 1 Comment
बाला साहिब ठाकरे के निधन पर इन पहलुओं का अहसास हुआ
1.
सुना है आज एक शेर मरा है
जिंदगी की जंग जीतकर
जन सैलाब उमड़ा
अश्रु सैलाब बहा
सबको अकेला छोड़
गया एक अनजान सफ़र पर..
लिए चंदन की खुश्बू,
फूलों का बिस्तर,
रंगीन चश्मा पहन,
जिसमें आगे का लक्ष्य
शायद सॉफ दिखाई दे
अपनी एक पहचान छोड़कर
एक मुकाम पर पहुँचकर
2.
एक मर गया बिन बुलावे के
सुनसान सड़क के
सुनसान किनारे पर
पत्थर तोड़ता वो शख्स
ना किसी…
Added by Sarita Bhatia on December 10, 2012 at 11:30am — 2 Comments
आस्तिक के आ को ना में बदलने में उसे काफी वक़्त लगा था, ऐसा होने के लिए सिर्फ विज्ञान का विद्यार्थी होना ही सबकुछ नहीं होता। कई बार उसने खुद बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को अपने अनुसंधान पत्रों को जर्नल्स में प्रकाशित होने के लिए भेजते समय, कभी गणेश, कभी जीसस तो कभी वैष्णोदेवी की तस्वीरों के आगे आँखें मूँदते देखा था। कुछ उसका मनन था, कुछ चिंतन, कुछ किताबें, कुछ संगत और कुछ दुनिया से उस अलौकिक शक्ति की ढीली पड़ती पकड़, जिन्होंने मिलजुलकर उसे दुनिया में तेज़ी से बढ़ रही इंसानी उपप्रजाति 'नास्तिक' बना…
ContinueAdded by Dipak Mashal on December 9, 2012 at 7:39pm — 8 Comments
लाल गेंद बन उछल गया है ,
बाल सुलभ ज्यों किलक रहा है
कुछ पल ही में रूप बदलकर
अब यौवन में सिमट गया है
स्वर्ण सी आभा फ़ैल रही है
मिटटी स्वर्ण में परिणित होगी
रेनू जाल के सिरे पकड़ कर
दुर्बल काया भी चल देगी
संध्या की चादर हलकी है
मछुवारे के जाल के जैसी
खींच रही पल पल वो उसको
छिपना होगा निशा से पहले…
Added by SUMAN MISHRA on December 9, 2012 at 2:03pm — 2 Comments
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