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जा रे-जा रे कारे काग़ा

जा रे-जा रे कारे कागा मेरे छत पर आना ना 

आना है तो आजा पर छत पर शोर मचाना ना 

तू आएगा छत पर मेरे कांव-कांव चिल्लाएगा 

ना जाने किस अतिथि को मेरे घर बुलाएगा 

उल्टी पड़ी पतीली मेरी और चूल्हे में आंच नहीं 

थाल सजाऊँ कैसे मैं घर में…

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Added by AMAN SINHA on November 28, 2022 at 4:44pm — 4 Comments


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अक्सर मुझसे पूछा करती.... डॉ० प्राची

सपनों में भावों के ताने-बाने बुन-बुन

अक्सर मुझसे पूछा करती...

बोलो यदि ऐसा होता तो फिर क्या होता ?... और मौन हो जाता था मैं !

 

उसकी एक हँसी पर जैसे

अपने दोनों पंख पसारे,

ढेरों हंस उड़ा करते थे

बहती निर्मल नदी किनारे,

सतरंगी आँखों में बाँधे पूरा फाल्गुन

अक्सर मुझसे पूछा करती...

अगर न मिल पाते हम-तुम तो फिर क्या होता ?... और कहीं खो जाता था मैं !

 

मन-जीवन की सारी उलझन

यहाँ-वहाँ की अनगिन…

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Added by Dr.Prachi Singh on November 28, 2022 at 2:30am — 7 Comments

3 (गज़ल) रात भर

फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

बह्र - 212 212 212 212

गीत बुलबुल सुनाती रही रात भर

दिलरुबा को रिझाती रही रात भर

भाव ही नींद खाती रही रात भर

उसको मैं बस मनाती रही रात भर

ज़िंदगी से सुना गीत जो सारा दिन

उसको मैं गुनगुनाती रही रात भर

उनकी दिलकश अदा और दीवानगी

सोच मैं मुस्कुराती रही रात भर

तेरी पहली छुअन याद करके सनम

मन ही मन मैं लजाती रही रात भर

चाँद तकने दिया भूख ने कब…

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Added by Rakhee jain on November 27, 2022 at 3:00pm — 5 Comments

अहसास की ग़ज़ल:मनोज अहसास

2122    2122     2122     212

पीर को,अनुराग को, पछतावे को, संताप को।

छोड़कर कैसे चलूँ, मुश्किल में,अपने आप को।

मन घिरा है वासना में,और मर्यादा में तन,

अर छुपाना भी कठिन है,उबले जल की भाप को

अब यहाँ से वापसी का रास्ता कोई नहीं,

मुश्किलों से पँहुचे हो,समझाओ अपने आपको।

मेघ ऐसे घिर गए हैं सूर्य धूमिल हो गया,

कामनाओं की नदी पर चाहती है ताप को।

हमको खुद को दर्द देने के बहाने चाहिए,

सौ सबब*…

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Added by मनोज अहसास on November 25, 2022 at 5:14pm — 6 Comments

अगर हक़ीक़त में प्यार था तो सनम हमारे मज़ार जाएँ (137)

एक परम्परागत ग़ज़ल ( 121 22 *4 )
अगर हक़ीक़त में प्यार था तो सनम हमारे मज़ार जाएँ
कि आरज़ू है अक़ीदतों का वो सबसे पहले दिया जलाएँ
**
अगर अभी तक है याद बाक़ी तो इल्तज़ा है करें इनायत
हिना लगाकर वो दस्त-ओ-पा पर हमारा रोज़-ए-फ़ना मनाएँ
**
हमारी ख़ातिर दुआ न मांगें कि जन्नतें हों हमें भी हासिल
वतन में अम्न-ओ-सुकूँ की…
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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on November 24, 2022 at 6:30pm — 4 Comments

गजल -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२

*

मत कहो अब मन खँगाला जा रहा है

इस वतन से  बस  उजाला जा रहा है ।१।

*

फिर दिखेगा मौत का मन्जर वृहद ही

कह सुधा नित विष उबाला जा रहा है।२।

*

आसमाँ को बाँटने की हो न साजिस

जो भी नारा अब उछाला जा रहा है।३।

*

हस्र क्या होगा उन्हें भी ज्ञात होगा

जानकर जब साँप पाला जा रहा है।४।

*

बँट रहा नित किन्तु सब के पेट खाली

पास किस के फिर निवाला जा रहा है।५।

*

मान मर्दन के…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 23, 2022 at 9:33pm — 4 Comments

आवाज़ देती हैं ( ग़ज़ल)

मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

1222/1222/1222/1222

कहीं भी जाइए रूस्वाइयाँ आवाज़ देती हैं

बुरे कर्मों की सब परछाइयाँ आवाज़ देती हैं

 कभी चिड़िया कभी गुड़िया कभी लख़्त-ए-जिगर कहकर

मुझे रस्मों की सब मजबूरियाँ आवाज़ देती हैं

बुलंदी पर पहुँचता है जो कोई अपनी मिहनत से 

जहाँ भर की उसे शाबाशियाँ आवाज़ देती हैं

भले ही आज होती हैं समानधिकार की बातें

लगी सदियों की सब पाबंदियाँ आवाज़ देती…

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Added by Rakhee jain on November 20, 2022 at 5:00pm — 4 Comments

आपका इन्तिख़ाब कर डाला(136)

ग़ज़ल(2122 1212 22 /112 )
आपका इन्तिख़ाब कर डाला
हमने कार-ए-सवाब कर डाला
**
बर्क़-ए-हुस्न-ओ-शबाब चमकी जब
आपको बे-हिज़ाब कर डाला
**
पी मय-ए-चश्म ख़ूब जी भर के
ख़ुद को मस्त-ए-शराब कर डाला
**
छा गई हुस्न की अदा हम पर
मौज़िजा लाजवाब कर डाला…
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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on November 19, 2022 at 7:00pm — 8 Comments

पुरुष की व्यथा

अंतरराष्ट्रीय_पुरुष_दिवस



पुरूष क्यूँ

रो नहीं सकता?

भाव विभोर हो नहीं सकता

किसने उससे

नर होने का अधिकार छिन लिया?

कहो भला

उसने पुरुष के साथ ऐसा क्यूँ किया?

क्या उसका मन आहत नहीं होता?

क्या उसका तन

तानों से घायल नहीं होता?

झेल जाता है सब कुछ

बस अपने नर होने की आर में

पर उसे रोने का अधिकार नहीं है

रोएगा तो कमज़ोर माना जायेगा

औरों से उसे

कमतर आँका जायेगा

समाज में फिर तिरस्कार होता है

अपनों के हीं सभा…

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Added by AMAN SINHA on November 19, 2022 at 6:00pm — No Comments

ग़ज़ल - अभी दुश्मनी में वो शिद्दत नहीं है

122 122 122 122

अभी दुश्मनी में वो शिद्दत नहीं है

हवा को चराग़ों से दिक़्क़त नहीं है

सभी को यहाँ मैं ख़फ़ा कर चुका हूँ

मुझे सच छुपाने की आदत नहीं है

मुझे है बहुत कुछ बताने की चाहत

मगर बात करने की मोहलत नहीं है

किसी से तुझे क्यों मिलेगी मुहब्बत

तुझे जब तुझी से मुहब्बत नहीं है

हक़ीक़त कहूँ तो मैं हूँ ख़ैरियत से

मगर ख़ैरियत में हक़ीक़त नहीं है

मिरे दिल पे तेरी हुक़ूमत है…

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Added by Zaif on November 19, 2022 at 12:07am — 4 Comments

ग़ज़ल (फ़ेलुन बह्र)

(आ. समर सर जी की इस्लाह के बाद)

(22 22 22 22)

सोचा कुछ तो होगा उसने

हमको मुड़कर देखा उसने

कौन वफ़ा करता है ऐसी

सारी उम्र सताया उसने 

जुड़ता कैसे ये टूटा दिल

टुकड़े करके छोड़ा उसने 

जब-जब ज़िक्र-ए-उल्फ़त छेड़ा

तब-तब मुझको टोका उसने 

उसको कौन समझ सकता था

बदला रोज़ मुखौटा उसने 

जिसको सबसे बढ़कर चाहा

छोड़ा मुझको तन्हा उसने 

जाकर वापस…

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Added by Zaif on November 18, 2022 at 7:32pm — 6 Comments

ग़ज़ल - सियाह शब की रिदा पार कर गया सूरज

सियाह शब की रिदा पार कर गया सूरज

जो सुब्ह आई तो उम्मीद भर गया सूरज

बड़ा ग़ुरूर तमाज़त पे था इसे लेकिन

तपिश हयात की देखी तो डर गया सूरज

हमारे साथ भी रौनक हमेशा चलती है

कि जैसे नूर उधर है जिधर गया सूरज

ग्रहण लगा के जहाँ ने मिटाना चाहा मगर 

मेरे वजूद का फिर भी संँवर गया सूरज

ज़मीं से दूर बहुत दूर जब ये रहता है 

तो कैसे दरिया के दिल में उतर गया सूरज

यतीम बच्चों ने वालिद की मौत पर सोचा

किसी…

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Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on November 17, 2022 at 11:45pm — 4 Comments

दोहा त्रयी. . . मैं क्या जानूं

दोहा त्रयी :मैं क्या जानूं 

मैं क्या जानूं आज का, कल क्या होगा रूप ।
सुख की होगी छाँव या , दुख की  होगी  धूप ।।

मैं क्या जानूं भोर का, होगा  क्या  अंजाम।
दिन बीतेगा किस तरह , कैसी होगी शाम ।।

मैं  क्या  जानूं  जिन्दगी, क्या  खेलेगी  खेल ।
उड़ जाए कब तोड़ कर , पंछी तन की जेल ।।


सुशील सरना / 17-11-22

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on November 17, 2022 at 12:00pm — 6 Comments

मैना बैठी सोच रही है पिंजरे के दिल में (नवगीत)

मैना बैठी सोच रही है

पिंजरे के दिल में

मिल जाता है दाना पानी

जीवन जीने में आसानी

सुनती सबकी बात सयानी

फिर भी होती है हैरानी

मुझसे ज्यादा ख़ुश तो

चूहा है अपने बिल में

जब तक बोले मीठा-मीठा

सबको लगती है ये सीता

जैसे ही कहती कुछ अपना

सब कहते बस चुप ही रहना

अच्छी चिड़िया नहीं बोलती 

ऐसे महफ़िल में

बहुत सलाखों से टकराई

पर पिंजरे से निकल न पाई

चला न…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 16, 2022 at 11:30am — 4 Comments

बालदिवस पर चन्द दोहे ......

बालदिवस पर चन्द दोहे :. . . .

बाल दिवस का बचपना, क्या जाने अब अर्थ ।

अर्थ चक्र में पीसते, बचपन चन्द समर्थ ।।

बाल दिवस से बेखबर, भोलेपन से दूर ।

बना रहे कुछ भेड़िये , बच्चों को मजदूर ।।

भाषण में शिक्षा मिले, भाषण ही दे प्यार ।

बालदिवस पर बाँटते, नेता प्यार -दुलार ।।

फुटपाथों पर देखिए, बच्चों का संसार ।

दो रोटी की चाह में , झोली रहे पसार ।।

गाली की लोरी मिले, लातों के उपहार ।

इनका बचपन खा गया,  अर्थ लिप्त संसार ।।

बाल दिवस पर दीजिए,…

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Added by Sushil Sarna on November 14, 2022 at 3:30pm — 2 Comments

सावन सूखा बीत रहा है

सावन सूखा बीत रहा है, एक बूंद की प्यास में 

रूह बदन में कैद है अब भी, तुझ से मिलने की आस में

 

जैसे दरिया के लहरों, में कश्ती गोते खाते है 

हम तेरी यादों में हर दिन, वैसे हीं डूबे जाते है…

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Added by AMAN SINHA on November 14, 2022 at 9:47am — No Comments

बाल दिवस (दोहे ) - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

दोहे बाल दिवस पर

***

लेता फिर सुधि कौन है, दिवस मना हर साल।

वन्चित  बच्चे  जानते,  बस  बच्चों  का  हाल।।

*

कितने बच्चे चोरते, निसिदिन शातिर चोर।

लेकिन मचता है नहीं, तनिक देश में शोर।।

*

भूखा बच्चा रोकता, अनजाने की राह।

बासी रोटी फेंक मत, तेरे पास अथाह।।

*

नेता करते देह का, धन के बल आखेट।

कितने बच्चे सो रहे, निसदिन भूखे पेट।।

*

बच्चे हर धनवान  के, हैं  सुख  से भरपूर।

निर्धन के सुख खोजने, बन जाते…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 12, 2022 at 10:11pm — 2 Comments

गीत - ५ ( लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

कह रहे हैं आज हम भी तानकर सीना।

प्रीत ने चलना सिखाया, प्रीत ने जीना।।

*

थे भटकते  फिर  रहे  पथ में अकेले।

आप आये तो जुड़े हम से बहुत मेले।।

था नहीं परिचय स्वयं से, तो भला क्यों।

कौन अनजाना बुलाता आन सुख लेले।।

*

पीर ही थाती हमारी बन गयी थी पर।

आप की मुस्कान ने हर दर्द है छीना।।

*

हर चमन के फूल मसले शूल से खेले।

हम रहे अब तक महज संसार में ढेले।।

नेह के हर बोध  से  अनजान जीवनभर।

वासना की कोख में नित क्या नहीं झेले।।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 12, 2022 at 5:30am — 2 Comments

कर्तव्य-बोध(लघुकथा)

कर्तव्य-बोध

मरे कौवे ली लाश तीन दिनों से उस पॉश कॉलोनी के बीचोबीच गुजरनेवाली सड़क पर पड़ी थी। गाड़ियाँ गुजरतीं,उसे रौंदतीं। लोग आते। चले जाते। दो लोग अपने अच्छी नस्ल के कुत्तों को सायंकालीन प्राकृतिक क्रिया से निबटारा कराने के लिए भ्रमण के बहाने वहाँ से गुजरे। कौवे की शेष बची लाश पर अकस्मात एक का पैर पड़ गया।नाक-भौं सिकोड़ते हुए वह गुर्राया,

कैसे लोग इधर रहते हैं! सड़ी लाश के परखच्चे उड़ रहे हैं। किसी को कोई चिंता ही नहीं।

नगर…

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Added by Manan Kumar singh on November 10, 2022 at 9:28am — 4 Comments

भिखारी छंद

भिखारी छंद -

 24 मात्रिक - 12 पर यति - पदांत-गा ला

साजन    के   दीवाने , दो   नैना   मस्ताने ।

कभी  लगें  ये  अपने ,  कभी  लगें  बेगाने ।।

पागल दिल को भाते, उसके सपन  सुहाने ।

खामोशी  की   बातें, खामोशी   ही   जाने ।।

                   =×=×=×=

रैन काल के सपने , भोर  लगें  अनजाने ।

अवगुंठन में बनते  , प्यार भरे  अफसाने ।।

बिन बोले ही होतीं  , जाने क्या-क्या बातें ।

मन से कभी न जातीं  , आलिंगन की रातें ।।

सुशील सरना…

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Added by Sushil Sarna on November 8, 2022 at 4:54pm — 4 Comments

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"आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
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मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-111 (घर-आँगन)
"मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक आभार "
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"मेरे कहे को मान देने के लिए आपका आभार।"
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