सपनों में भावों के ताने-बाने बुन-बुन
अक्सर मुझसे पूछा करती...
बोलो यदि ऐसा होता तो फिर क्या होता ?... और मौन हो जाता था मैं !
उसकी एक हँसी पर जैसे
अपने दोनों पंख पसारे,
ढेरों हंस उड़ा करते थे
बहती निर्मल नदी किनारे,
सतरंगी आँखों में बाँधे पूरा फाल्गुन
अक्सर मुझसे पूछा करती...
अगर न मिल पाते हम-तुम तो फिर क्या होता ?... और कहीं खो जाता था मैं !
मन-जीवन की सारी उलझन
यहाँ-वहाँ की अनगिन बातें,
बदल-बदल तस्वीरें जब-तब
प्रश्न पहेली भौचक रातें,
बतकहियों में बच्चों जैसी करती ठुनठुन
अक्सर मुझसे पूछा करती...
मैं तुमको अच्छी लगती तो फिर क्या होता ?... मन ही मन इतराता था मैं !
अपने मन की तस्वीरों में
जाने कब मुझको गढ़ लेती,
अपने ठहरे कोलाहल में
जाने कब मुझको पढ़ लेती,
शब्दों में झींगुर के जैसी घोले झुनझुन
अक्सर मुझसे पूछा करती
प्रेम गीत बन जाते तुम तो फिर क्या होता ?... और उसी को गाता था मैं !
साँझ-सवेरे जागे-सोए
बस मुझको सोचा करती थी,
मेरा दिल भी ज़रा टटोले
सोच मुझे कोंचा करती थी,
सर्द रात में नर्म सुबह के जैसी गुनगुन
अक्सर मुझसे पूछा करती
सपनों में मिलने आते तो फिर क्या होता ?... और बहुत मुस्काता था मैं !
मैं भी आदी बन बैठा था
उसकी इन बेतुक बातों का,
उसको साथी मान चुका था
सूने दिन सूनी रातों का,
गूँज-गूँज मेरे अन्तः में बस उसकी धुन
अक्सर मुझसे पूछा करती
सपना यदि यह सच होता तो फिर क्या होता ?... बस उसका हो जाता था मैं !
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत बढ़िया रचना आदरणीय डॉ साहिबा...हार्दिक बधाई
अभियक्ति को सराहने हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीय डॉ संजीव कुमार वर्मा जी
आपका आदेश सर झुका कर मान्य आदरणीय समर कबीर जी
बहुत बहुत धन्यवाद आ० लक्ष्मण धामी जी
मुहतरमा डॉ.प्राची सिंह जी आदाब, अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
निवेदन है कि ओबीओ पर अपनी सक्रियता बढ़ाएँ ।
आ. प्राची बहन, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।
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