भारत के अंबर पर देखो
सूर्य सी हिन्दी चमक रही है
माँ भारती के उपत्यका में
खुशबू बनकर महक रही है
विभिन्न प्रांतों का सेतुबंधन
सरल सर्वजन सर्वप्रिय है
दक्षिण से उत्तर पूर्व पश्चिम
दम दम दम दम दमक रही है
संस्कारों की वाहक हिन्दी
सभी भाषाओं में यह गंगा
प्रगति पथ पर नित आरूढ़ ये
पग नवल सोपान धर रही है
यूरोप अमेरिका ने माना
है यह भाषा समर्थ सक्षम
हम भारतियों के दिल में…
ContinueAdded by Neeraj Neer on September 14, 2015 at 7:59am — 6 Comments
Added by shree suneel on September 14, 2015 at 2:40am — 2 Comments
कवि सम्मेलन के आगाज़ के साथ ही नवांकुर कवि के कविता पाठ करते ही मरघट सा सन्नाटा पसर गया।बामुश्किल नामी कवी ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा -
" इन्हें कलम चलानी तो आती नहीं फिर माहौल खराब करने के लिए यहाँ किसने आमन्त्रित किया हैं ?"
" अरे , शर्मा जी इन नवांकुरों को मैंने आमन्त्रित किया हैं ।इन्हें सिखाना भी तो जरुरी हैं।"
" ये केवल नाम बटोरना चाहते हैं ,लगन मेहनत से कोई वास्ता नहीं इनका।इन्हें मंच से हटाया जाय "
"शर्मा जी, ये हमे अपना आदर्श मानते हैं "
" तो हम ही मंच छोड़ देते…
Added by Archana Tripathi on September 14, 2015 at 12:46am — 24 Comments
सिमट कर नहीं रहता
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(लक्ष्य “अंदाज़”)
वैसे भी मेरे घर की चिलमन में सिमट कर नहीं रहता !!
रंग नहीं खुशबू है वो मधुवन में सिमट कर नहीं रहता !!
गहरी आँखों के पानी में इक किश्ती कोई डूबी तो क्या ,
रूप का दरिया एक ही दरपन में सिमट कर नहीं रहता !!
कल जब वो उस जंगल से ज़ख़्मी हुए पाँव लिए लौटा ,
बोला ये बनफूल किसी चमन में सिमट कर नहीं रहता !!
गीली माटी की सौंध में लिपटे खस को क्या…
ContinueAdded by डॉ.लक्ष्मी कान्त शर्मा on September 13, 2015 at 8:00pm — 3 Comments
हिन्दी का अखबार – ( लघुकथा ) -
"रणजीत , तुम्हारे घर के फ़ाटक में यह हिन्दी का अखबार लगा हुआ था, कौन पढता है तुम्हारे घर में "!
"पहले बाबूजी पढा करते थे पर अब कोई नहीं पढता"!
"अंकल को गुजरे हुए तो सात साल हो गये , फ़िर क्यों मंगाते हो"!
" बाबूजी के स्वर्गवास के बाद, मम्मीजी की इच्छा थी कि यह अखबार उनके जीते जी आता रहे!मम्मीजी रोज़ सुबह हिन्दी का अखबार, बाबूजी का चश्मा, बाबूजी की चाय उनके कमरे में रख आती थी!उन्हें इससे बडा सकून मिलता था"!
"पर अब तो…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on September 13, 2015 at 7:30pm — 17 Comments
करें सेवा हिन्दी की
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१४ सितम्बर का दिन यानि हिन्दी दिवस के नाम। हिन्दी यानि भारतीयों की राष्ट्र - भाषा , बहुतों की मातृभाषा। समझ नहीं आता गर्व करूँ या शर्मिंदा होऊँ ? अपनी ही भाषा के लिए एक दिवस औपचारिक रूप से निर्वाह कर, एक परम्परा भर निभाकर ...... । संसार में भारत ही ऐसा देश है , जहाँ अपनी राष्ट्र-भाषा को बताने के लिए , जताने के लिए, मानने के लिए दिवस मनाया जाता है। जोर-शोर से गोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं , विद्यालयीन स्तर पर अनेक प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती…
ContinueAdded by shashi bansal goyal on September 13, 2015 at 7:00pm — 12 Comments
सोनाली भट्टाचार्य एवं सभी तेजाब पीड़ितों के लिए
वह एक लड़की थी
उन्नत नितंबों
पुष्ट उरोजों वाली
श्यामल घनेरे केश
बल खाते पर्वतों के बीच
लहराते
लगता बाढ़ की पगलाई नदी
मेघों के मध्य
घाटी में से गुजर रही हो
खुलकर खिलखिला कर हँसती
कई सितार एक साथ झंकृत हो उठते
उसके सपनों में आता
फिल्मी राजकुमार
जिसके साथ वह
गीत गाती झूमती नाचती
फूलों के बाग में
स्कूल कॉलेज से आती जाती
सबकी निगाहों की केंद्र बिन्दु
सबके…
Added by Neeraj Neer on September 13, 2015 at 5:17pm — 12 Comments
ओस के शबनमी कतरों में …
सर्द सुबह
कोहरे का कहर
सिकुड़ते जज़्बातों की तरह ठिठुरती
सहमी सी सहर
ओस की शबनम में भीगी
चिनार के पेड़ों हिलाती
आफ़ताब की किरणों को छू कर गुजरती
हसीन वादियों की बादे-सबा
रूह को यादों के लिबास में लपेट
जिस्म को बैचैन कर जाती है
तुम आज भी मुझे
धुंध में गुम होती पगडंडी पर
खड़ी नज़र आती हो
मैं बेबस सा
अपने तसव्वुर में
हर शब-ओ-सहर बिताये
हसीन लम्हों…
Added by Sushil Sarna on September 13, 2015 at 2:31pm — 4 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on September 13, 2015 at 9:30am — 12 Comments
"बहुत खुश दिख रहा है ,क्या हुआ रे ?"अपने दस साल के बेटे को नाचते हुए झुग्गी में घुसते देख उसने पूछा I
"अरे ,मै आज हीरो बन गया I एक बारी में चढ़ के दही हांडी फोड़ दी ,झक्कास ...सबने कंधे पर उठा लिया था Iखूब मिठाई परसाद मिला है देखI"
"अरे वाह " उसके सर के ऊपर से फिराकर माँ नेअपने माथे के दोनों ओर उंगलियाँ चटका दीं I
"अब अगले साल भी ऐसे ही फोड़ दूंगा ,उसके अगले साल भी और .." ख़ुशी उसके सारे शरीर से फूट रही थी I माँ को पकड़ कर वो गोल गोल घूमने लगा I
"अरे बाबा हर साल…
ContinueAdded by pratibha pande on September 12, 2015 at 11:00pm — 2 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 12, 2015 at 2:12pm — 5 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 12, 2015 at 1:04pm — 2 Comments
1222 1222 1222 1222
नहीं है धार कोई भी समय की धार से बढ़कर
नहीं है भार कोई भी समय के भार से बढ़कर
भरे हैं धाव इसने ही बड़े छोटे सदा सब के
नहीं मरहम बड़ा कोई समय के प्यार से बढ़कर
उलझ मत सोच कर बल है भुजाओं में जवानी का
न देगा पीर कोई भी समय की मार से बढ़कर
अगर दोगे समय को मान…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 12, 2015 at 10:40am — 3 Comments
(2122 1212 22)
आसमां तक वही गया होगा..
हो के बेख़ौफ़ जो उड़ा होगा..
-
राह तू जब तलक निकालेगा,
सूर्य तब तक तो ढल चुका होगा..
-
साँच को आंच ना कभी आती,
ये भी तुम ने कहीं सुना होगा..
-
हम नज़र किस तरह मिलायेंगे,
जब कभी उन से सामना होगा..
-
राह ईमान की चुने ही क्यों,
कौन तुमसे बड़ा गधा होगा..
-
ठोकरें ना गिरा सकीं उस को,
शख़्स तूफां में वो पला…
ContinueAdded by जयनित कुमार मेहता on September 12, 2015 at 5:26am — 8 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 11, 2015 at 11:44pm — No Comments
समय चक्र को जानिये, समय बड़ा बलवान
कोयल साधे मौन जब, पावस का हो भान |
समय समय की बात है,समय समय का फेर
गीदड़ भी बनता कभी, कैसा बब्बर शेर |
सही समय चेते नहीं, समय गए पछताय,
पुनः मिले अवसर नहीं,जग में होत हँसाय |
अवसर तो सबको मिले, समझे जो संकेत,
इसको जो न जान सके, भाग्य कहे निश्चेत |
जिस पल साधे काम को, उस पल ही उत्कर्ष
सार्थक श्रम बदले समय, मन में होता हर्ष…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 11, 2015 at 5:32pm — No Comments
50
मैं जाने क्यों कुछ सोच सोच रह जाता हॅूं,
नयनों के तिरछे तीर तीक्ष्ण सह जाता हूूॅं ।
कुछ पता नहीं बस मन से ही क्यों मन की कह जाता हॅूं,
सच है अन्तर की शब्दमाल के भावों में बह जाता हॅूं।
ए जनमन के भाव सिंधु, बढ़ते घटते ए चपल इंदु!
बतलाओ क्यों नहीं सरलता से अपनी तह पाता हॅूं?
झींगुर की झीं झीं से लगता एक मधुर रागनी बन जाऊं,
डलियों की कलियों सी महकी श्रंगार सुंगंधी बन जाऊं,
पर अबला के ए क्रंदन आत्मीयों की पल पल बिछुड़न!
तुम बतलाओ…
Added by Dr T R Sukul on September 11, 2015 at 10:12am — No Comments
"भैया ये दुनियादारी के रिश्ते निभाने से निभते है बातो से नही, ये मैं ही थी जो अब तक निभाती आयी मगर अब नही।" 'आप्रेशन' के बाद जब से भावना को होश आया उसके दिमाग में यही बात बार बार आ रही थी जो उसने दो वर्ष पहले क्रोध में आ भाई को कही थी और उसकी कही बात ने उनके रिश्ते को एक अंतहीन चुप्पी में बदल दिया था। यही नही भाई की घोर परेशानी में भी उसने अपनी जिद के चलते दोबारा भाई के घर का रूख नही किया था।
"रिपोर्टस आर नाॅर्मल भावना, डाॅक्टर ने कहा है जल्दी ही छूट्टी मिल जायेगी।" पति की आवाज ने उसकी…
Added by VIRENDER VEER MEHTA on September 10, 2015 at 10:00pm — 4 Comments
Added by मोहन बेगोवाल on September 10, 2015 at 8:30pm — 4 Comments
Added by Manan Kumar singh on September 10, 2015 at 10:00am — 9 Comments
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