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मैं जाने क्यों कुछ सोच सोच रह जाता हॅूं,
नयनों के तिरछे तीर तीक्ष्ण सह जाता हूूॅं ।
कुछ पता नहीं बस मन से ही क्यों मन की कह जाता हॅूं,
सच है अन्तर की शब्दमाल के भावों में बह जाता हॅूं।
ए जनमन के भाव सिंधु, बढ़ते घटते ए चपल इंदु!
बतलाओ क्यों नहीं सरलता से अपनी तह पाता हॅूं?
झींगुर की झीं झीं से लगता एक मधुर रागनी बन जाऊं,
डलियों की कलियों सी महकी श्रंगार सुंगंधी बन जाऊं,
पर अबला के ए क्रंदन आत्मीयों की पल पल बिछुड़न!
तुम बतलाओ क्यों नहीं कंठ से स्वर को गह पाता हॅूं?
गीत सुनाऊं मन का मित्रों की सतरंगी महफिल में,
तन मन को लहराऊं हर क्षण नभ में सुंदर जल थल में,
पर बतला तू ए सूखे मन, टुकड़े को झुकते भूखे तन!
अब आत्मकहानी कहने को हर क्षण चुप क्यों रह जाता हॅूं?
एक सार हो जाऊं घुलमिल कबसे है ये अभिलाषा,
सबका अपना कहलाऊं मिल जाये कोई अपना सा,
पर वस्त्रहीन ए काया, अर्थहीन चंचल माया !
बतला दे तू शीघ्र नहीं क्यों अपनापन यह पाता हॅूं?
29 मार्च 1975
पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित
डॉ टी आर शुक्ल
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