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बीते लम्हें... /श्री सुनील

कभी-कभी मैं भी न! वक़्त की इस हरकत पर
टूटा-सा महसूस किया करता हूँ भीतर.
मेरे बीते हुए दौर का वही एक पल
छू देता है मुझे और मैं जाता हूँ ढल.

गया वक़्त लौटता नहीं ये कहा किसी ने
मानूँ मैं क्यों भला सताया जबकि इसी ने.
माज़ी के दख़्ल से ज़िन्दगी ये मेरी,अब
मौजूदा वक़्त भी भला जी पाती है कब.

समय छोङ कर गया, कि जिद्दी थे कुछ लम्हें
गये नहीं, ये बात यकींनन पता है तुम्हें.
क्या ये मुमकिन नहीं, लौट आओ तुम भी
वापस मेरे पास, अचानक हीं सही,कभी.


मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on September 17, 2015 at 7:21am

आदरणीय श्री सुनील भाई , सुन्दर भाव पूर्ण रचना हुई है , समय की धारा के साथ अगर भूत बह न पाये तो यही स्थित आ जाती है । आपको बधाइयाँ रचना के लिये

Comment by pratibha pande on September 16, 2015 at 9:26am

बीते लम्हे नहीं लौटते पर लफ़्ज़ों में उतार देने से उनकी कडवाहट कम हो जाती है और खूबसूरती दुगुनी और ये हुनर आपकी कलम बखूबी जानती है ,बधाई सुन्दर रचना के लिए आपको ,सादर 

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