Added by Dr T R Sukul on September 22, 2015 at 10:53am — 2 Comments
जेल की दीवारे चीख चीख कर कह रही थी कि बीती रात रहमत अली ने हाल ही में सजा काटने आये कैदी को मार डाला। लेकिन उसके माथे पर एक भी शिकन नही थी, वो तो अपनी बैरक में खामोश बैठा सोच रहा था।
"अब मिला मुझे सकूं, उसको उसके किये की सजा दे कर मैंने अपनी बीबी को ही इंसाफ नही दिया बल्कि अदालत के झुठे फैसले को भी सच कर दिया है।"
"रहमत अली। अपनी खामोशी तोड़ो और बताओ कल रात क्या हुआ?" थानेदार ने सवाल पूछते हुये उसे लगभग झिंझोड़ दिया।
"अब छोड़िये भी साहब! रात गयी बात गयी।" रहमत अली एक गहरी…
Added by VIRENDER VEER MEHTA on September 22, 2015 at 10:00am — 11 Comments
लघुकथा – पूंछ
सीढ़ियाँ गंदी हो रही थी कविता ने सोचा झाड़ू निकल दूँ. यह देखा कर पड़ोसन ने कचरा सीढ़ियों पर सरका दिया.
बस ! फिर क्या था. कविता का पारा सातवे आसमान पर, “ मैं इस के बाप की नौकर हूँ. नहीं निकाल रही झाड़ू,” बड़बड़ाते हुए कविता ऊपर आई , “ साली अपने को समझती क्या है ? कभी सीढ़ियों पर पानी डाल देगी. कभी लहसन का कचरा. कभी कुछ. मैं इस की नौकर हूँ जो रोजरोज सीढ़ियाँ साफ करती रहू. साली अपने को न जाने क्या समझती है ?
“ क्यों जी. आप बोलते क्यों नहीं.” उस ने पति के हाथ से अख़बार…
ContinueAdded by Omprakash Kshatriya on September 22, 2015 at 8:30am — 4 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 22, 2015 at 12:22am — 2 Comments
Added by Samar kabeer on September 21, 2015 at 11:15pm — 21 Comments
Added by मनोज अहसास on September 21, 2015 at 9:26pm — 12 Comments
कीचड़ .....
सड़क पर फैले हुए कीचड से
एक कार के गुजरने से
एक भिखारन के बदन पर
सारा कीचड फ़ैल गया
अपनी फटी हुई साड़ी से कीचड़ पौंछते हुए
उसने अपने मन की भंडास निकालते हुए कहा
अमीरजादे गाड़ी से कीचड उछालते हैं
और पलट के भी नहीं देखते
इन्हें भूख से बिलबिलाते हुए
पेट को भरने के लिए रक्खा
भीख का कटोरा नजर नही आता
बस फ़टे कपड़ों से झांकता
बदन नज़र आता है
मेहरबानी पेट पर नहीं
बस बदन पर होती है
वो खुद पर गिरे कीचड़ को
साफ़…
Added by Sushil Sarna on September 21, 2015 at 8:00pm — 6 Comments
Added by शिज्जु "शकूर" on September 21, 2015 at 5:22pm — 12 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on September 21, 2015 at 3:08pm — No Comments
आज सुबह उस चाय की गुमटी पर गरमा गरम चाय पीते-पीते कुछ मुखों से शब्दों के अग्नि-बाण से निकल रहे थे।
"अरे सुना तुमने, मज़हब की बंदिशें तोड़ ग़रीब दोस्त संतोष को मुस्लिम युवक रज़्ज़ाक ने कल मुखाग्नि दी !"
यह सुनकर एक पंडित जी बड़बड़ाने लगे-
"सारा अंतिम संस्कार अपवित्र हो गया, पता नहीं आत्मा को कैसे शान्ति मिलेगी ?"
इस पर एक शिक्षित युवक बोला-
"अरे ये सब वो धर्मान्तरित मुसलमान हैं जो आज भी अपने मूल धार्मिक कर्मकांड गर्व से करते हैं।"
तभी एक दाढ़ी वाले ने दाढ़ी पर…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 21, 2015 at 9:30am — 24 Comments
2122-- 1122 --1122 --112 |
|
इस तरह आज हमें होश में आने का नहीं |
मुफ्त आई है मगर यार पिलाने का नहीं |
|
सिर्फ रोता हुआ हर गीत सुनाने का नहीं… |
Added by मिथिलेश वामनकर on September 21, 2015 at 4:25am — 22 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २
चेहरे पर मुस्कान लगाकर बैठे हैं
जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं
कहते हैं वो हर बेघर को घर देंगे
जो कितने संसार जलाकर बैठे हैं
उनकी तो हर बात सियासी होगी ही
यूँ ही सब के साथ बनाकर बैठे हैं?
दम घुटने से रूह मर चुकी है अपनी
मुँह उसका इस कदर दबाकर बैठे हैं
रब क्यूँकर ख़ुश होगा इंसाँ से, उसपर
हम फूलों की लाश चढ़ाकर बैठे हैं
------------
(मौलिक एवं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 20, 2015 at 10:29pm — 16 Comments
अगर रंग - बिरंगे ये नारे न होते.
तो फिर हम भी इतने बेचारे न होते .
बस बातों के मरहम से भर जाते शायद .
अगर ज़ख्म दिल के करारे न होते .
भला किसकी हिम्मत सितम ढा सके यूँ .
अगर हम जो आदत बिगाड़े न होते .
कहीं ना कहीं से तो शह मिल रहा है .
निर्भया के बसन यूँ उतारे न होते .
मिट जाती कब की ये रस्मोरिवाज़ें .
अगर पूर्वजों के सहारे न होते .
मौलिक और अप्रकाशित
सतीश मापतपुरी
Added by satish mapatpuri on September 20, 2015 at 10:00pm — 3 Comments
आम बजट के सत्र के बाद लोकतांत्रिक सरकार ने लोकतंत्र के एक नये तरीके इन्टरनेट से बजट पर एक सर्वे द्वारा जनता की राय मांगी|
कोई भी उसे खोलता तो सबसे पहले लिखा मिलता, "आपके अनुसार बजट कैसा है?" जिसके तीन विकल्प थे - सर्वमान्य, औसत-मान्य और अमान्य| जो कोई प्रथम दो विकल्प में से कोई एक चुनता, नाम, पता और टिप्पणी पूछी जाती, लेकिन यदि कोई अंतिम विकल्प को चुनता तो उससे पूछा जाता, "इसका उत्तरदायी कौन है?" इसके दो विकल्प थे - सरकार और जनता|
जिस-जिसने जनता को चुना उन्हें…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on September 20, 2015 at 9:30pm — 5 Comments
"आजकल सर काफी बदल गए हैं ,नोटिस किया ?"
तीन चार रोलिंग चेयर , कहने वाली की तरफ घूम गईं I
"हाँ ss ...मै भी देख रही हूँ ,पहले तो एक्स रे जैसी आँखें ,ऊपर से नीचे तक हमें घूरती रहती थीं I पर आज कल तो एकदम झुकी रहती हैं Iक्या हो गया मशीन को ?"
"वैरी फनी ,पर सच में यार ,कुछ भी ख़ास पहनो ,बार बार अपने केबिन में बुला लेते थे बहाने से "I
"हाँ ss .. इतना कांशस कर देते थे न कभी कभी , पर अब तो गुड मॉर्निंग का जवाब भी नज़रें नीची कर के देते हैं, चक्कर क्या है…
ContinueAdded by pratibha pande on September 20, 2015 at 10:00am — 17 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 19, 2015 at 8:42am — 12 Comments
2122---2122---2122---212 |
|
वो बदल जाए खुदारा बस इसी उम्मींद पर |
हर दफा उनकी ख़ता रखते रहे ज़ेरे-नजर |
|
ये इशारे मानिए दरिया बहुत गहरा… |
Added by मिथिलेश वामनकर on September 19, 2015 at 3:00am — 24 Comments
ग़ज़ल
(वहर 22 22 22 22 2 )
वो फिर घुस आया ,मन के समन्दर I
मैं छोड़ आया जिसे मन्दिर अंदर II
सब कसमें लेते हैं बदले की ,
अब रहे कहां बापू के बन्दर I
आजिज कोई हो नेमत देता ,
है कोई ऐसा मस्त कलन्दर I
अबरोधों से खुद है तुम्हें लड़ना ,
सम्भालो तुम अपने सभी सन्दरI
धन बल ज्ञान न बंधे जाति में ,
कौन यहाँ मुफलिस कौन सिकन्दर I
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Added by कंवर करतार on September 18, 2015 at 10:30pm — 4 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on September 17, 2015 at 11:22pm — 22 Comments
1222 1222 1222 1222
छलकते आँसुओं को हम तभी क्यूं भूल जाते हैं..
किसी को याद करके हम कभी क्यूं मुस्कुराते हैं..
-
न हम अपनी वफ़ाओं को कभी भी छोड़ पाते हैं,
न अपनी बेवफाई से कभी वो बाज़ आते हैं..
-
फ़िदा इन ही अदाओं पर हुऐ थे हम कभी यारों,
ज़रा सी बात पे वो रूठ कर फिर मान जाते हैं..
-
नज़र की बात थी,पर वो कभी भी बूझ ना पाये,
ज़रा, हम हाल दिल का बोलने में हिचकिचाते हैं..
-
भटक के इस शहर में,उब…
ContinueAdded by जयनित कुमार मेहता on September 17, 2015 at 3:50pm — 8 Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |