जेल की दीवारे चीख चीख कर कह रही थी कि बीती रात रहमत अली ने हाल ही में सजा काटने आये कैदी को मार डाला। लेकिन उसके माथे पर एक भी शिकन नही थी, वो तो अपनी बैरक में खामोश बैठा सोच रहा था।
"अब मिला मुझे सकूं, उसको उसके किये की सजा दे कर मैंने अपनी बीबी को ही इंसाफ नही दिया बल्कि अदालत के झुठे फैसले को भी सच कर दिया है।"
"रहमत अली। अपनी खामोशी तोड़ो और बताओ कल रात क्या हुआ?" थानेदार ने सवाल पूछते हुये उसे लगभग झिंझोड़ दिया।
"अब छोड़िये भी साहब! रात गयी बात गयी।" रहमत अली एक गहरी सांस लेते हुये मुस्करा दिया।
"बीबी के कत्ल में तो फांसी हो ही रही है, अब आपका कानून मुझे दो बार तो फांसी दे नही सकता।"
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'विरेन्दर वीर मेहता'
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत ही सुन्दर प्रभावी लघुकथा बधाई! आदरणीय वीरेंद्र वीर जी!
आपकी कथा अमिताभ बच्चन की एक मूवी से अनुप्राणित लगती है
हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी!बेहद सुन्दर और समयानुकूल लघुकथा!
बढ़िया लघुकथा
बधाई
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