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रेतीला पत्थर
========
ए पर्णपूरित लता!
तू  इतनी न इतरा, 
अपने इस रूप पर ,
लावण्य पर, सरलता पर।
मालूम नहीं शायद, 
तू जिसे सरल अवलंबन मानती है,
वह सीधा सूखा ढाक है।
लिपटकर, जिससे आलिंगन कर, 
ऊपर को बढ़कर सुख आभास करती है,
वह तेरा हितैषी तेरा ही काल है।
तेरे रूप के प्रशंसक ये मानव,
कल उन्मत्त होकर,
पलास को पत्तों सहित अग्नि में झोंकेगे,
तेरा प्रत्येक अंग छिन्न भिन्न करके।
पल्लव विरह में कराहेंगे, 
आॅसुओं के घूंट तुझे प्यासा ही रखेंगे
तेरी ये छोटी सी भूल तुझे पछतावा ही देगी,
आज की प्रसन्नता कल रोने को मजदूर ढूंड़ेगी।
मैं तुझे कुछ न कुछ करता, 
पर क्या करूं?
चंगुल में जकड़ा ,परावलंबी, विवश  हॅूं ,
एक रेतीला पत्थर---- ।
संवेदना  प्रकट करने के सिवा
तुझे, कर ही क्या सकता हॅूं।
13 जनवरी 1975

पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित 
डॉ टी आर शुक्ल

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Comment

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Comment by Dr T R Sukul on September 25, 2015 at 10:30am

धन्यवाद महोदय। 

Comment by amod shrivastav (bindouri) on September 22, 2015 at 2:56pm
बहुत खूब सर
बधाई

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