2122 1212 22
कौन जीता है कौन हारा है
मौत ने कर दिया इशारा है
कल तलक था बुलंदियो पर वो
आज क़िस्मत ने उसको मारा है
मेरी हिम्मत न टूटने देना
मेरे मौला तेरा सहारा है
माँग लो जो भी माँगना तुमको
सामने टूटता वो तारा है
बेवफ़ाई से हो गया पागल
प्यार को कब मिला किनारा है
छोड़ दो मारते उसे क्यों हो
मुफ़लिसी, वक़्त का वो मारा है
खा के देखूं तो शादी का…
ContinueAdded by Mukesh Verma "Chiragh" on April 28, 2014 at 3:30pm — 10 Comments
“मालिक..! मुझे एक माह की छुट्टी चाहिए थी, बहुत जरुरी काम आन पड़ा है.. या हो सके तो एक नये नौकर की जुगाड़ भी कर के रखना.हुआ तो लौटकर काम पर नहीं भी आऊँ ” रोज अपने कान के ऊपर से बीड़ी निकाल के पीने वाले रामू ने, आज सिगरेट का कस खींचते हुए कहा
“अरे भाई..यहाँ पूरा काम फैला पड़ा है और तू है कि एक माह की छुट्टी की बात कर रहा है, ऐसा क्या काम आ गया ..? कि तू काम भी छोड़ सकता है “ गजाधर ने बड़े परेशान होकर पूछा
“ वो काम यह है कि मेरी ससुराल वाला गाँव, बाँध की डूब में…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on April 28, 2014 at 12:00pm — 26 Comments
अपनी कविताओं में एक नायक रचा मैंने !
समूह गीत की मुख्य पंक्ति सा उबाऊ था उसका बचपन ,
जो बार-बार गाई गई हो असमान,असंतुलित स्वरों में एक साथ !
तब मैंने बिना काँटों वाले फूल रोपे उसके ह्रदय में ,
और वो खुद सीख गया कि गंध को सींचते कैसे हैं !
उसकी आँखों को स्वप्न मिले , पैरों को स्वतंत्रता मिली !
लेकिन उसने यात्रा समझा अपने पलायन को !
उसे भ्रम था -
कि उसकी अलौकिक प्यास किसी आकाशीय स्त्रोत को प्राप्त हुई है !
हालाँकि उसे ज्ञात था…
Added by Arun Sri on April 28, 2014 at 11:00am — 27 Comments
सन्नाटा
एक
सन्नाटा
बुनता है
एक चादर
उदासी की
जिसे
ओढ कर
सो जाता हूं
चुपचाप
रोज
रात के इस
अंधेरे में
दो
अंधेरा
फुसफुसता है
लोरियां कान मे
रात भर
और दे जाता है
एक टोकरा नींद का
जिसे चुन लेते हैं
कुछ भयावह,
व ड़रावने सपने
बुनता है
जिन्हे
सन्नाटा
दिन के उजाले,
रात की चांदनी में
तीन
लिहाजा, चांद से
थोड़ी चांदनी…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on April 27, 2014 at 10:00pm — 8 Comments
जी चाहता है,
सभ्यता के
पाँच हज़ार साल
और इससे भी ज़्यादा
लड़ाइयों से अटे -पटे
स्वर्णिम इतिहास पे
उड़ेल दूँ स्याही
फिर
चमकते सूरज को
पैरों तले
रौंद कर
मगरमच्छों व
दरियाईघोड़ों से अटे - पटे
गहरे, नीले समुद्र में
नमक का पुतला बन घुल जाऊं
और फिर
हरहराऊँ - सुनामी की तरह
देर तक
दूर तक
मुकेश इलाहाबादी ----
मौलिक अप्रकाशित
Added by MUKESH SRIVASTAVA on April 27, 2014 at 10:00pm — 10 Comments
ये न सोचों कि खुशियों में बसर होती है,
कई महलों में भी फांके की सहर होती है !
उसकी आँखों को छलकते हुए आँसूं ही मिले,
वो तो औरत है, कहाँ उसकी कदर होती है
कहीं मासूम को खाने को निवाला न मिला,
कहीं पकवानों से कुत्तों की गुजर होती है,
वो तो मजलूम था, तारीख पे तारीख मिली,
जहाँ दौलत हो…
ContinueAdded by Anita Maurya on April 27, 2014 at 8:37pm — 11 Comments
गजल-गुप अॅधेंरा, चॉंदनी भी दरबदर
बह्र....2122 2122 212
नींद जब आती नहीं गुल सेज पर,
सो रहे रिक्शे पे घोड़ा बेच कर।
स्वर्ण है या वोट किसको क्या पता,
शोर संसद में वतन की लूट पर।
चापलूसी नीति निशदिन छल रही,
गर्म है बाजार माया धर्म धर।
शोख कमसिन सी कली नित सुर्ख है,
तल्ख हैं अखबार पढ़ कर मित्रवर।
क्या किया है आपने इस देश में,
लुट रही है अस्मिता हर राह पर।
ताख पर जलता दिया जब…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 27, 2014 at 1:57pm — 9 Comments
2122 1122 22
ज़ोर तूफ़ान का चल जाने दो
मुझको लहरों पे निकल जाने दो
है मुख़ालिफ़ कि हवाओं का रूख
ठहरो कुछ देर सँभल जाने दो
फिर न दिल में कोई रह जाये मलाल
इक दफा दिल को मचल जाने दो
मोजज़ा हो न हो उम्मीदें हों मोजज़ा =चमत्कार
जी किसी तरह बहल जाने दो
आग आखिर ये बुझेगी तो ज़रूर
डर इसी आग में जल जाने दो
बूंद जायेगी कहाँ तक देखूँ
गिर के…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 27, 2014 at 10:00am — 21 Comments
Added by Ashish Srivastava on April 26, 2014 at 10:00pm — 9 Comments
दीवार
आसमां में कोई सरहद नहीं
फिर धरती को क्यों बाँटा है
ये तो हम और तुम हैं ,जिन्होंने
दिलों को भी दीवार से पाटा है
कहीं नफ़्रत की तो कहीं अहं की
आओ इस दीवार को गिरा कर देखें
कि दिल कितना बड़ा होता है..
****************
महेश्वरी कनेरी
मौलिक /अप्रकाशित
Added by Maheshwari Kaneri on April 26, 2014 at 4:45pm — 8 Comments
जमघट था हर ओर वहां
हर ओर अजब सा शोर था
छल्ले धुऐं के थे कहीं
और कहीं वाद विवाद का जोर था
एक अजनबी से बने
एक मूक दर्शक की तरह
हम कुर्सी की तलाश में
भीड़ से हट कर
एक कोनें में खडे
बार बार अपना
चश्मा साफ़ कर
इधर उधर
बार बार झाँक कर
पलकों के भीतर
आँखों की पुतलियों को
डिस्को करवा रहे थे
तभी एक कुर्सी खाली हुई
ओर हमने तुरत फुरत में
एक लाटरी की तरह
उसे झपट लिया
और एक गहरी सांस के साथ बैठ गये…
Added by Sushil Sarna on April 26, 2014 at 4:00pm — 14 Comments
सिर चढ़ आया
फिर से दिन का
भीतर धमक मलालों में..
ऐसे हैं
संदर्भ परस्पर..
थोथी चीख.. उबालों में !
जहाँ साँझ के
गहराते ही…
Added by Saurabh Pandey on April 25, 2014 at 5:00pm — 28 Comments
मनोरम छंद
(संक्षिप्त विधान : मनोरम छंद चार पक्तियों या पदों का वर्णिक छंद है. जिसके प्रत्येक पद में चार सगण और अंत में दो लघु वर्ण / अक्षर का विधान हैं।)
लगती छबि मीत !
लगती छबि मीत मुझे मन भावन।
मन चंद चकोर समान लुभावन।।
मन प्रीत रिसे सुख पाय सुहावन।…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on April 24, 2014 at 10:30pm — 12 Comments
आँखों देखी - 17 ‘और नहीं बेटा, बहुत हो गया’
मैं ग्रुबर कैम्प के उस अद्भुत अनुभव की यादों में खो गया था. हमारा हेलिकॉप्टर कब आईस शेल्फ़ के 100 कि.मी. चौड़े सन्नाटे को पार करने के बाद शिर्माकर ओएसिस को भी पीछे छोड़ चुका था, मुझे पता ही नहीं चला. अचानक जब धुँधली खिड़की से वॉल्थट पर्वतमाला की दूर तक विस्तृत श्रृंखला नज़र के सामने उभर आयी मैं वर्तमान में वापस आ गया. ग्रुबर आज हमारी बाँयी ओर पूर्व दिशा में था. हमारा लक्ष्य था पीटरमैन रेंज के उत्तरी सिरे…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on April 24, 2014 at 8:28pm — 5 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
बड़ी उम्मीद से मालिक ने ये दुनिया बनायी है
दरिंदों ने मगर ये आग नफरत की लगाई है
कमर दुहरी हुई थी उसकी इक झोपड़ के ही खातिर
मगर हैवान ने वो भी नहीं छोडी जलाई है
नपुंसक हो गए हैं आज ताजो तख़्त दुनिया के
यही कहती है सबसे चीख बेबा की रुलाई है
कुलांचे भर रहा था जो लहू में है पड़ा भीगा
हिरन शावक पे किसने आज ये गोली चलायी है
अगर अब भी रही जारी यूं कन्या भ्रूण…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on April 24, 2014 at 3:42pm — 9 Comments
2122 2122 2122 2122
**
दर्द दिल का जो बढ़ा दे, बोलिए मरहम कहाँ है
रौशनी के दौर में अब तम के जैसा तम कहाँ है
**
कर रहे तुम रोज दावे चीज अद्भुत है बनाई
नफरतें पर जो मिटा दे लैब में वो बम कहाँ है
**
जै जवानों, जै किसानों, की सदा में थी कशिश जो
अब सियासत की कहन में यार वैसा दम कहाँ है
**
मत कहो तुम है खिलाफत धार के विपरीत चलना
चाहते बस जानना हम धार का उद्गम कहाँ…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 24, 2014 at 1:00pm — 24 Comments
मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ
मेरे देश की शिक्षा पद्धति ने
मेरे भीतर मौजूद लोहे को वर्षों पहले पहचान लिया था
इसलिए फ़ौरन सुनहरे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2014 at 11:30am — 16 Comments
एक नया नवगीत -जगदीश पंकज
नोंच कर पंख, फिर
नभ में उछाला
जोर से जिसको
परिंदा तैर पायेगा
हवा में
किस तरह से अब
बिछाकर जाल
फैलाकर कहीं पर
लोभ के दाने
शिकारी हैं खड़े
हर ओर अपनी
दृष्टियाँ ताने
पकड़कर कैद
पिंजरे में किया
फिर भी कहा गाओ
क्रूर अहसास ही
छलता रहा है
हर सतह से अब
कांपते पैर जब
अपने, करें विश्वास
फिर किस पर
छलावों से घिरे
हैं हम ,छिपा है
आहटों में…
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on April 24, 2014 at 8:57am — 7 Comments
दूर करे अभाव (काम रूप छंद 9-7-10 पर यति)
निर्भय रहे सब, वोट देकर, करे सही चुनाव |
सही चुनाव से, देश में हो, दूर करे अभाव ||
अच्छे को चुने, करे न लोभ, हो तभी कुछ काम
ऐसा क्यों चुने, चुनकर वही, वसूले सब दाम ||
…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 23, 2014 at 7:53pm — 13 Comments
एक प्रयास मित्रों !!!
******(लोक-गीत)*******
गीतु लिखे वियोग मअ..अगन के |
जलत रातु -दिनु..बिनु सजन के ||
आए अबके न सावनु झूम के |
बौराए अबके न डारि अम्बुआ के |
भीज गयी असुअन.. हिचकारी रे |
जलत रातु -दिनु ..बिनु सजन के |
गीतु लिखे वियोग मअ.. अगन के ||
आगु लगे ..संगिनी -साथिन के |
बैठे राहें तन्हा..अँधेरिया अटारी पे…
Added by Alka Gupta on April 23, 2014 at 6:30pm — 10 Comments
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