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मत कहो तुम है खिलाफत - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    2122

**


दर्द  दिल  का  जो  बढ़ा  दे, बोलिए  मरहम  कहाँ है
रौशनी  के दौर में  अब तम  के  जैसा  तम  कहाँ है

**
कर  रहे  तुम  रोज  दावे   चीज  अद्भुत   है  बनाई
नफरतें  पर  जो  मिटा दे  लैब में  वो  बम  कहाँ है

**
जै जवानों, जै किसानों,  की सदा  में थी कशिश जो
अब  सियासत  की  कहन  में यार वैसा दम कहाँ है

**
मत कहो तुम है खिलाफत धार के विपरीत चलना
चाहते  बस  जानना  हम  धार  का  उद्गम कहाँ है

**
दो  दिनों  की आशिकी  में  चाहतें  होती  तनों  की
अब जवानी  में तनिक  भी शेष  वो संयम कहाँ है

**
प्यार   होता   तो   जुदाई  भी  हमें  तो  रंज  देती
पर खुशी का पाश दे जो, दिल में ऐसा गम कहाँ है

**
सिर्फ  मेरी  राह   में  ही  रोकते  हैं  घन  उजाला
आसमाँ में तो ‘मुसाफिर’ चाँदनी भी कम कहाँ है

**
रचना मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

Views: 774

Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 2, 2014 at 10:04am

आदरणीय प्राची बहन आपकी प्रशंसा मिली .लेखन सफल हुआ .मार्गदर्शन करते रहना . हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 2, 2014 at 10:02am

आदरणीय भाई सतनारायण जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 2, 2014 at 9:27am

मत कहो तुम है खिलाफत धार के विपरीत चलना
चाहते  बस  जानना  हम  धार  का  उद्गम कहाँ है...............वाह 

बहुत सुन्दर शेर हुआ है 

हार्दिक बधाई प्रस्तुत ग़ज़ल पर 

Comment by Satyanarayan Singh on May 1, 2014 at 12:13pm

आ. धामी जी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल बनी है सादर बधाई.

कर  रहे  तुम  रोज  दावे   चीज  अद्भुत   है  बनाई
नफरतें  पर  जो  मिटा दे  लैब में  वो  बम  कहाँ है **  वाह वाह

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 30, 2014 at 12:11pm

आदरणीय भाई गजेन्द्र जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 30, 2014 at 12:09pm

आदरणीय भाई राणा प्रताप जी , आपका सुझाव सर आँखों पर , मार्गदर्शन करते रहिये . प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 30, 2014 at 12:05pm

आदरणीय भाई विजय जी , आपसे प्रसंसा पाना अहोभाग्य है . आपका आशीष मिलता रहे यही कामना है .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 30, 2014 at 12:04pm

आदरणीय भाई जीतेन्द्र जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by Gajendra shrotriya on April 28, 2014 at 10:26pm

दो  दिनों  की आशिकी  में  चाहतें  होती  तनों  की
अब जवानी  में तनिक  भी शेष  वो संयम कहाँ है

वाह ! बहुत  खूब कहा है भाई लक्ष्मण धामी जी।  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on April 28, 2014 at 7:03pm

खिलाफ़त सही शब्द नहीं है, यह खलीफा से सम्बंधित है| 'विरोध' के लिए सही शब्द 'खिलाफ' से बना मुखालफ़त है| अच्छी ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई|

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