गजल-गुप अॅधेंरा, चॉंदनी भी दरबदर
बह्र....2122 2122 212
नींद जब आती नहीं गुल सेज पर,
सो रहे रिक्शे पे घोड़ा बेच कर।
स्वर्ण है या वोट किसको क्या पता,
शोर संसद में वतन की लूट पर।
चापलूसी नीति निशदिन छल रही,
गर्म है बाजार माया धर्म धर।
शोख कमसिन सी कली नित सुर्ख है,
तल्ख हैं अखबार पढ़ कर मित्रवर।
क्या किया है आपने इस देश में,
लुट रही है अस्मिता हर राह पर।
ताख पर जलता दिया जब बुझ गया,
गुप अॅधेंरा, चॉंदनी भी दरबदर।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
क्या खयाल हैं ! और क्या खूब बाँधने की कोशिश हुई है वाह वाह !
लेकिन प्रस्तुतियों में संप्रेषणीयता और कैसे सटीक हो उस के लिए हमें लगातार अभ्यास करते रहना होगा.
एक बानगी क्षमा याचना सहित -
नींद जब आती नहीं गुल सेज पर,
सो रहे रिक्शे पे घोड़ा बेच कर ..
क्या इसे यों कह सकते हैं -
नींद को वे क्या बुलायें सेज पर
सो रहे रिक्शे पे घोड़ा बेच कर
या ऐसा ही कुछ. ..
शुभेच्छाएँ
आ. केवल प्रसाद जी देश के मिजाज को भांपकर बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही है. हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय
बहुत सुंदर रचना. केवल जी हार्दिक बधाई.
आदरणीय केवल भाई , लाजवाब ग़ज़ल कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ !!
सभी अश'आर बेहतरीन बन पड़े है आदरणीय केवल जी, दिली दाद कबूल करे
वाह! बहुत खूब. आज की समस्याओं का बहुत खुबसूरत चित्रण, हार्दिक बधाई आदरणीय केवल जी
आदरणीय केवल जी
चापलूसी नीति निशदिन छल रही,
गर्म है बाजार माया धर्म धर।
क्या किया है आपने इस देश में,
लुट रही है अस्मिता हर राह पर।..यथार्थ का चित्रण करती शानदार ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई सादर
शोख कमसिन सी कली नित सुर्ख है,
तल्ख हैं अखबार पढ़ कर मित्रवर। बहुत खूब
आदरणीय केवल प्रसाद जी देश के दुर्भाग्य को आपने अशआर मे ढाला है बहुत बहुत बधाई आपको
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