(1222 1222 122)
जिन्हें आने की फुरसत ही नहीं है
उन्हे मिलने की हसरत ही नहीं है
अगर तुझमें शराफत ही नहीं है
मुझे तेरी ज़रूरत ही नहीं है
डुबो देगी हमें ये बेईमानी
ये इंसानों की फ़ितरत ही नहीं है
उगलते हैं ज़ुबाँ से आग अपनी
बची इनमें शराफत ही नहीं है
चलो छोड़ो जुदा थी राह अपनी
हमें तुमसे शिकायत ही नहीं है
असल मुद्दों से ही भटकाये रखना
सियासत की रिवायत ही नहीं है
बुराई इस कदर शामिल है सबमें
दिलों में अब शराफत ही नहीं है
अमानत में खयानत करने वालों
तुम्हें इसकी इजाज़त ही नहीं है
हुआ घायल मै फूलों से हमेशा
मुझे काँटो से दिक्कत ही नहीं है
(मौलिक एवम अप्रकाशित)
Comment
सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आद0 नादिर खान जी सादर अभिवादन। ग़ज़ल का बेहतरीन प्रयास। शैर दर शैर मुबारकबाद कुबूल करें। शेष गुणीजनों से सहमत
मार्गदर्शन हेतु आभार जनाब तसदीक साहब ...
जनाब नादिर साहिब आदाब , मतले का उला मिसरा यूँ करके देखें ।
"ग़लत है उनको फ़ुरसत ही नहीं है " और शेर 6 का उला यूँ कर सकते हैं "वो कैसे छोड़ दे मज़हब का दामन "
जनाब तस्दीक साहब जनाब समर साहब और जनाब सलीम साहब, रचना मे आप सभी की उपस्थिति देखकर बहुत खुशी हुयी मूल्यवान सुझाओ के लिए शुक्रिया ...
मतले के शेर और छठे शेर मे कुछ संशोधन किया है कृपया मार्गदर्शन करें ...
जिन्हें मिलने की फुरसत ही नहीं है
उन्हें हमसे मुहब्बत ही नहीं है
अदावत ही अदावत है जहाँ में
बिना इसके सियासत ही नहीं है
आदरणीया रक्षिता जी, रचना को आपने जो मान दिया उसके लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ...
जनाब नादिर ख़ान साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
पहले मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,देखियेग ।
छटे शैर के ऊला में सही शब्द है "अस्ल",और सानी मिसरे में आप उलट बात कह रहे हैं,सियासत का तो काम ही अस्ल मुद्दों से भटकाना है,ग़ौर कीजियेगा ।
जनाब नादिर साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
शेर6 उला मिसरे में सही शब्द " अस्ल " है असल नहीं देखियेगा
आदरणीय नादिर जी , सुन्दर पंक्तियों के उपलक्ष्य में हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
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