आँखों की बीनाई जैसा
वो चेहरा पुरवाई जैसा.
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तेरा होना क्यूँ लगता है
गर्मी में अमराई जैसा.
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तेरे प्यार में तर होने दे
मुझ को माह-ए-जुलाई जैसा.
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जोबन आया है, फिसलोगे
ये रस्ता है काई जैसा.
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साथ हैं हम बस कहने भर को
दूध हूँ मैं वो मलाई जैसा.
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जाते जाते उस का बोसा
जुर्म के बाद सफ़ाई जैसा.
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ज़ह’न है मानों शह्र का एसपी
और ये दिल बलवाई जैसा.
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तेरा आना पल दो पल को
सरकारी भरपाई जैसा.
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धागे ज़ख़्मों के उधड़े हैं
कर दो कुछ तुरपाई जैसा.
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मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
//मलाई हमेशा दूध से ऊपर एक अलग तह बन के रहती है//
मगर.. मलाई अपने आप कभी दूध से अलग नहीं होती, जैसे गोश्त से नाख़ुन। दोनों ही अलग-अलग तत्व होने के बावजूद क़ुदरती तौर पर आपस में एक दूसरे के साथ जुड़े होते हैं और दोनों ही मामलों में इन तत्वों को एक दूसरे से अलग करने के लिये बल की आवश्यकता होती है, और जो साथ बिना बल प्रयोग के ख़त्म न हो सके वह साथ कहने भर का तो नहीं ही होगा न। :-)) ...सादर।
धन्यवाद आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब.
दूध और मलाई दिखने को साथ दीखते हैं लेकिन मलाई हमेशा दूध से ऊपर एक अलग तह बन के रहती है
सादर
धन्यवाद आ. लक्षमण धामी जी
आदरणीय निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, एक साँस में पढ़ने लायक़ उम्दा ग़ज़ल हुई है, मुबारकबाद।
सभी शे'र मे'यारी हुए हैं, सिर्फ़ "दूध मलाई" वाले तक मेरी रसाई नहीं हो सकी है।
आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय, धन्यवाद.
अन्यान्य बिन्दुओं पर फिर कभी. किन्तु निम्नलिखित कथ्य के प्रति अवश्य आपका ध्यान चाहूँगा.
//धागे ज़ख़्मों के उधड़े हैं .... यहाँ पर भी मेरे पढ़ते अथवा सोचते समय जो पॉज आता है वो ज़ख़्मों पर अधिक फोकस करता है.//
गजल के मिसरे गद्यात्मक स्वरूप के हुआ करते हैं. मिसरों के वाक्य गद्यात्मक ही बनाते हैं. ऐसे मिसरों से बने शेरों की गजल शुद्ध और कामयाब मानी जाती है.
शुभातिशुभ
धन्यवाद आ. बृजेश कुमार जी.
५ वें शेर पर स्पष्टीकरण नीचे टिप्पणी में देने का प्रयास किया है. आशा है आप संतुष्ट होंगे.
सादर
धन्यवाद आ. सौरभ सर,
आपकी विस्तृत टिप्पणी से ग़ज़ल कहने का उत्साह बढ़ जाता है.
तेरे प्यार में पर आ. समर सर ने भी फोन कर के मुझे बताया था कि इसे देख लूँ.. मैं अपनी मूल प्रति में यह बदलाव किये लेता हूँ..
मिसरा अब यूँ पढ़ा जाए
प्यार में अपने तर होने दे
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माह-ए-जुलाई उर्दू के क़ायदे को ध्यान में रखकर लिया है.
दूध-मलाई वाला मिसरा वैसे थे ठीक ही है फिर भी कुछ अन्य तरक़ीब भी सोचता हूँ.
SP / बलवाई में और इसलिए रखा है ताकि comparison स्पष्ट हो सके.. मंच से पढ़ते समय और इस भाव को अधिक पुष्ट करता है.
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धागे ज़ख़्मों के उधड़े हैं .... यहाँ पर भी मेरे पढ़ते अथवा सोचते समय जो पॉज आता है वो ज़ख़्मों पर अधिक फोकस करता है.
फिर भी मैं आप के बताए सभी बिन्दुओं पर पुनर्विचार अवश्य करूँगा.
सादर
धन्यवाद आ. गिरिराज जी
आपकी ग़ज़लों पे क्या ही कहूँ आदरणीय नीलेश जी हम तो बस पढ़ते हैं और पढ़ते ही जाते हैं।किसी जलधारा का प्रवाह हो जैसे लेकिन ५वे शेर पे प्रवाह में अटका हूँ। सो अपने ज्ञानवर्धन के लिए जानना चाहता हूँ ऐसा क्यों? ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीय....
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