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दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार

दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार

दृगजल से लोचन भरे, व्यथित हृदय उद्गार ।
बाट जोहते दिन कटा, रैन लगे  अंगार ।।

तन में धड़कन प्रेम की, नैनन बरसे नीर ।
बैरी मन को दे गया, अनबोली वह पीर ।।

जग क्या जाने प्रेम के, कितने गहरे घाव ।
अंतस की हर पीर को, जीवित करते स्राव ।।

विरही मन में मीत की, हरदम आती याद ।
हर करवट पर मीत से, मन करता संवाद ।।

बैठ अनमनी द्वार पर, विरहन देखे राह ।
मन में उठती हूक सी , पिया मिलन की चाह ।

नैन पिया की याद में, हरदम रहते मौन ।
आखिर अधरों की हँसी , लूट ले गया कौन ।।

मौन हुई अब चूड़ियाँ, मौन हुआ शृंगार ।
मौन विरह के पाँव में, पायल की झंकार ।।

सुशील सरना / 20-3-25

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Sushil Sarna on April 11, 2025 at 2:46pm
आदरणीय चेतन जी सृजन के भावों को मान और सुझाव देने का दिल से आभार आदरणीय जी
Comment by Sushil Sarna on April 11, 2025 at 2:45pm
आदरणीय गिरिराज जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 10, 2025 at 4:05pm

आ. सुशील  भाई  , विरह पर रचे आपके दोहे अच्छे  लगे ,  रचना  के लिए आपको हार्दिक बधाई 

Comment by Chetan Prakash on April 10, 2025 at 12:54pm

आ. सुशील  सरना साहब,  दोहा छंद में अच्छा विरह वर्णन किया, आपने, किन्तु  कुछ  शैलीगत दोष भी हैं , यथा

(1) धड़कन,  दिल का गुण  है, न कि, तन का !

(2) विरह में आँखें, मौन न होकर, सूनी होती है। मौन, मुख अथवा मुंह का विषय है। सादर 

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