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मैं तृप्त नहीं .....क्यों

एक सतह इस धरती पर, धूल , फूल और वृक्ष हैं फैले

एक सतह मन के धरती पर, अंतस तक यादों के झूले

दूर दूर तक आँखों का ताकना, राह वही पर पथिक न मेले

गति और मति दोनों ही संग में , कहाँ किसे अपने संग ले लें ,



कितनी दूर चलोगे संग में वो अदृश्य जो हाथ बढाता

मैं उसकी वो मेरा प्रति पल, गहरा है…

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Added by SUMAN MISHRA on December 8, 2012 at 1:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल

हम पेट भर नहीं सके अख़बार बेचकर।।
वो हो गये अमीर समाचार बेचकर।।।।

अरमान किसके मर रहे हैं,उनको क्या ख़बर,
वो आज कितने खुश हो गये प्यार बेचकर।।

कल उनके हाथों में दे दिये हमने अपने हाथ,
अब मारे-मारे फिरते हैं बाज़ार बेचकर।।।

अब ज़ालिमों को भी सज़ा मिलती नहीं कंही,
भगवान जैसे सो गये संसार बेचकर।।

हालात ने बदल दिया कितना हमें "सुजान"
हम बावकार हो गये किरदार बेचकर।।


सुजान........

Added by सूबे सिंह सुजान on December 8, 2012 at 12:30am — 11 Comments

स्वप्न सत्य सा लखता जाऊँ...

तुमको जब मैं संग न पाऊँ

व्याकुल मन कैसे समझाऊँ 

बेकल हो यह सोच रहा कैसे

तुझसे तुझको मैं चुराऊँ

मृदु भावों से कलम भरी है 

प्रीत भरी मन की नगरी है

धन वैभव प्रिय पास न मेरे 

शब्द बना मोती बरसाऊँ

मिलो जो तुम तो खो जाऊं मैं 

जुदा स्वयं से हो जाऊँ मैं 

स्वप्न अगर ये स्वप्न ही सही 

स्वप्न सत्य सा लखता जाऊँ

आठों पहर साथ हो तेरा 

जीवन का हर सांझ सवेरा 

नाम तेरे कर दूँ, सौरभ बन 

श्वांस में तेरी मैं घुल जाऊँ…

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Added by praveen on December 7, 2012 at 11:00pm — 4 Comments

चंद शेर

बात कुछ भी तो कही होती
यकीनन वो सही होती।


रुख से पर्दा हटाना किसलिये
बात घर में ही रही होती।


रात में चांदनी को छेड़ा क्यों
संग लहरों के खेलती होती।


ख्वाब जब मखमली होने से लगें
नींद कच्ची कोई नहीं होती।

(लिखने की शुरुवात है, बस मन में आया लिख दिया)

Added by mrs manjari pandey on December 7, 2012 at 7:30pm — 5 Comments

नेता जी का फ़ोन

नेता जी का फ़ोन



नेता जी को फ़ोन लगाया घंटी बजी.

बात होने की उम्मीद जगी,

तभी कम्पुटर बोला

इस रूट की सारी लाइने ब्यस्त है

नेता जी मस्त है.

बात होने की आस न करे.

कृपया…

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Added by Dr.Ajay Khare on December 7, 2012 at 5:00pm — 3 Comments

झेल रही है बेटियाँ

धरती माँ ही पालती, रख नारी का मान,

यही रहेगी संपदा, कर नारी के नाम ।

बहती नदी सी नारी, दूजे घर को जाय,

अपनावे ता उम्र ही, घर उसका हो जाय ।

ममता भाव की भूखी, केवल चाहे मान,

रुखी सूखी पाय भी, घर की रखती शान ।

झेल रही है बेटियाँ, अपना सब अपमान,

बाँध टूटता सब्र का, तुझे न इसका भान ।

नारी का सम्मान करे, तब घर का तू नाथ,

दूजे घर को छोड़ कर, पकड़ा तेरा हाथ ।

लड़के की ही चाह में, सहन किया है पाप,

भ्रूण हत्या पाप करे, झेले फिर संताप…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 7, 2012 at 11:00am — 12 Comments

कुछ हाइकु

आदरेया प्राची जी के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करते हुए मैंने फिर कुछ हाइकु लिखने का प्रयास किया है, आशा करता हूँ की आप सभी मार्गदर्शन करेंगे.

 …

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Added by अरुन 'अनन्त' on December 7, 2012 at 11:00am — 8 Comments

ग़ज़ल - फकत शैतान की बातें करे है

वादा किया था कि जल्द ही कुछ पुरानी ग़ज़लें साझा करूँगा,,,

  एक ग़ज़ल पेश -ए- खिदमत है गौर फरमाएं ...






फकत शैतान की बातें करे है ?

सियासतदान  की बातें करे है !



अँधेरे से न पूछो उसकी ख्वाहिश,

वो रौशनदान की बातें करे है |…



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Added by वीनस केसरी on December 7, 2012 at 6:07am — 10 Comments

तुम जरा सा नजरिया बदलो

सुनो!

सूरज में आग है या रोशनी?

चांद में दाग है या शीतलता?

पानी तरल है या सरल?

सागर गहरा है या विशाल?

फूल में कांटे है या खुशबू?

कीचड़ में गंदगी है या कमल?…

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Added by priti surana on December 6, 2012 at 11:30pm — 9 Comments

किस तरह..

अब तुम पर यकीं कर पायें किस तरह

हम और अब तुम्हे आजमायें किस तरह



ये ख़याल उनको सताता ही रहा

वो मुझको सताएं तो सताएं किस तरह



ये कत्ल हुआ जाने या जाने वो कातिल

क़त्ल करने लगीं ये निगाहें किस तरह



वक़्त के हरेक टुकड़े में खोया तुम्हें

वो गुजरा हुआ वक़्त लायें किस तरह



वो जो हंसकर मिलें बात कुछ तो बढे

अब बुतों से भला बतलाएं किस तरह



वो पूछते हैं फिर रहे तरीके प्यार के

मैं पूछता फिरा तुम्हे भुलाएं किस तरह



बस तेरी है तमन्ना एक…

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Added by Pushyamitra Upadhyay on December 6, 2012 at 9:22pm — 2 Comments

ख़ुदा जानॆं

,,,,,,,,,ख़ुदा जानॆं ,,,,,,,,

=================

क्या था कल क्या आज है, ख़ुदा जाने !!

छुपा दिल मॆं  क्या राज़ है, ख़ुदा जाने…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 6, 2012 at 6:00pm — 3 Comments

नहीं छुपता है आशिक से वो आँखों की जुबाँ समझे

अपनी कल की ग़ज़ल में कुछ सुधार किये हैं ग़ज़ल की तकनीकी गलतियाँ दूर करने की कोशिश की है आशा है आप सभी को प्रयास सुखद लगेगा 



हैं हम गैरत के मारे पर ये सौदागर कहाँ समझे

लगाई कीमते गैरत औ गैरत को गुमाँ समझे



छिड़क कर इत्र कमरे में वो मौसम को रवाँ समझे

है बूढा पर छुपाकर झुर्रियां खुद को जवाँ समझे



गुलिस्ताँ से उठा लाया गुलों की चार किस्में जो

सजा गुलदान में उनको खुदी को बागवाँ समझे



बने जाबित जो ऑफिस में खुदी को कैद करता है

घिरा दीवार से…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 6, 2012 at 4:00pm — 14 Comments

मैं यमुना ही बोल रही हूं

तेरे वादे कूट-पीस कर

अपने रग में घोल रही हूं

खबर सही है ठीक सुना है

मैं यमुना ही बोल रही हूं



पथ खोया पहचान भुलाई

बार-बार आवाज लगाई

महल गगन से ऊंचे चढ़कर

तुमने हरपल गाज गिराई



मेरे दर्द से तेरे ठहाके

जाने कब से तोल रही हूं

लिखना जनपथ रोज कहानी

मैं जख्‍मों को खोल रही हूं



ले लो सारे तीर्थ तुम्‍हारे

और फिरा दो मेरा पानी

या फिर बैठ मजे से लिखना

एक थी यमुना खूब था पानी



बड़े यत्‍न से तेरी…

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Added by राजेश 'मृदु' on December 6, 2012 at 2:00pm — 17 Comments

गीत संजीव 'सलिल'

गीत 

संजीव 'सलिल'

*

क्षितिज-स्लेट पर

लिखा हुआ क्या?...

*

रजनी की कालिमा परखकर,

ऊषा की लालिमा निरख कर,

तारों शशि रवि से बातें कर-

कहदो हासिल तुम्हें हुआ क्या?

क्षितिज-स्लेट पर

लिखा हुआ क्या?...

*

राजहंस, वक, सारस, तोते

क्या कह जाते?, कब चुप होते?

नहीं जोड़ते, विहँस छोड़ते-

लड़ने खोजें कभी खुआ क्या?

क्षितिज-स्लेट पर

लिखा हुआ क्या?...

*

मेघ जल-कलश खाली करता,

भरे किस तरह फ़िक्र न करता.…

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Added by sanjiv verma 'salil' on December 6, 2012 at 1:00pm — 16 Comments

मुक्तिका: है यही वाजिब... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

है यही वाजिब...

संजीव 'सलिल'

*

है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।

जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।



रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते

फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?



घर में भी बेघर रहोगे, चैन पाओगे नहीं,

आज यह, कल और कोई बाँह में गर चाहिए।।



चाक हो दिल या गरेबां, मौन ही रहना 'सलिल'

मेहरबां से हो गुजारिश- 'और कुछ फरमाइए'।।



आबे-जमजम  की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'

कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ…

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Added by sanjiv verma 'salil' on December 6, 2012 at 9:22am — 13 Comments

''जोर नहीं है''

इन जुगनू सी यादों पे जोर नहीं है  

गर्म अश्कों के बहने में शोर नहीं है l

 

किसी काफ़िर का होता नहीं ठिकाना

आज यहाँ है तो कल ठौर कहीं है l

 

दो बूँदे पीकर कभी प्यास ना बुझती             

प्यासे सहरे का दिखता छोर नहीं है l

 

मालों ने गाँव की है बदल दी दुनिया

अब छोटा सा दिखता स्टोर नहीं है l

 

हर बात में नुक्स निकालना है सहज  

करने को कुछ कहो तो जोर नहीं है l

-शन्नो अग्रवाल 

Added by Shanno Aggarwal on December 6, 2012 at 1:57am — 10 Comments

कौन बचाए अस्मित माँ की

देश चलाने वाले ही जब बिकने को तैयार खड़े हों

पैदा होते ही बचपन का पालन पोषण कर्ज तले हो

आम आदमी के घर में हो दो रोटी की खातिर दंगे

कौन बचाए अस्मित माँ की जिसके लाल दलाल बने हों ।।

धर्म नाम की धोखेबाजी मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे में

रक्तपात के उपदेशों का पाठ चल रहा हर द्वारे में

घोटालों की राजनीति में सब गुदड़ी के लाल पड़े हों

कौन बचाए अस्मित माँ की जिसके लाल दलाल बने हों ।।

हिजड़ों की बस्ती के दर्शन दिल्ली के दरबार मिलेंगे

संचालक मैडम के आसन दस जनपथ…

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Added by Manoj Nautiyal on December 5, 2012 at 9:25pm — 9 Comments

हमारे इश्क का फैसला तो हमीं से होगा

न किसी खाप न किसी मौलवी से होगा

हमारे इश्क का फैसला तो हमीं से होगा



ये कह कर ठुकरा गया वो आसमाँ मुझे

हमारा वास्ता ही क्या तेरी जमीं से होगा



यूं दुआ को न तरस, यूं दवा को न ढूंढ

ज़ख्म इश्क ने दिया, ठीक शायरी से होगा



बेफिकर घूमता है, इश्क से अनछुआ

मुखातिब वो भी तो कभी दिल्लगी से होगा



यूं भी जिन्दगी किसी से बेताल्लुक नहीं होती

तेरा मिलना ही जरुर बुजदिली से होगा



मेरी ग़ुरबत पे कर कुछ निगाह कुछ करम

ये अंधेरों का मसला हल रौशनी से…

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Added by Pushyamitra Upadhyay on December 5, 2012 at 7:06pm — 5 Comments

अपने दुःख से नहीं दुसरे के सुखसे दुखी

 

कर्ण और राम दो मित्र थे l राम एक व्यापारी बन गया लेकिन कर्ण अभी भी बेरोजगार था जिसकी वजह से उसकी घर की हालत ठीक नहीं थी l समय समय पर राम भी अपने मित्र की मदद कर देता था कुछ समय तक ऐसे ही चलता रहा l और एक दिन कर्ण को एक अच्छी नौकरी मिल गई जिस कारण घर में किसी वस्तु की कमी नही रह गई थी और धीरे धीरे धन की समस्या भी समाप्त होने लगी थी l इस कारण अब वह अपनी जिंदगी सही से और शांति की जिन्दगी जी रहा था l  व्यापार मैं व्यस्त होने की वजह से राम और कर्ण एक दुसरे से मिल नहीं पाए…

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Added by PHOOL SINGH on December 5, 2012 at 5:01pm — 7 Comments

मृत्‍यु के बाद

आज नहीं स्‍पंदन तन में

क्षुधा-उदर भी रीते है

स्निग्‍ध शुभ्र वह प्रभा विमल

मुझको खूब सुभीते हैं



देह झरी अवसाद झरे

व्‍यथा-कथा के स्‍वाद झरे

किरण-किरण से घुली मिली

सकल नुकीले नाद झरे



नया जगत आभास नया

लहर-लहर उल्‍लास नया

मदिर मधुर है मुक्‍त पवन

आज गगन में रास नया



वसनहीन अब हूं…
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Added by राजेश 'मृदु' on December 5, 2012 at 4:43pm — 7 Comments

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