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लोग कह उठें शाबा शाबा बाबाजी

दहशत-वहशत, ख़ूनखराबा  बाबाजी

गुंडई  ने है  अमन को चाबा बाबाजी

 

काम से ज़्यादा संसद में अब होता है

हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा  बाबाजी



मैक्डोनाल्ड में…

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Added by Albela Khatri on June 4, 2012 at 11:30pm — 25 Comments

खुश्बू से तेरी जब कभी मैं रू-ब-रू हुआ

"""गिरधर ओ मेरे श्याम तुमसे कायनात है

ये सब है तेरा ही करम तुमसे हयात है""""



खुश्बू से तेरी जब कभी मैं रू-ब-रू हुआ

दामन-ए-हिरस-ओ-हबस बे आबरू हुआ



किस्से मैं तेरे सुन रहा हूँ एहतिराम से

पाना है तुझे अब मेरी तू जुस्तजू हुआ



रहमत की नज़र हर्फों में कैसे बयाँ करूँ

आँखों को भिगो कर हमेशा बावजू हुआ



जादू सा तेरा ये करम मैं किस तरह कहूँ

ख्वाबों में दिखा जो वही तो हू-ब-हू…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 4, 2012 at 10:30pm — 6 Comments

दो कुण्डलियाँ......

दो कुण्डलियाँ......
१-डॉलर  के कॉलर!

डॉलर  के कॉलर खड़े,रूपया है कमजोर.

महंगाई की डोर  का,दिखे ओर ना छोर.
दिखे ओर ना  छोर ,पकड़ कर कैसे रोकें.
आम-आदमी यहाँ,खा रहा पल-पल धोखे.
'कहता है अविनाश' ,हाल है बद से बदतर!
कितने होंगे कड़क,और डॉलर के कॉलर?
-----------------------------------------
२-बढे कलंकित कर्म!!!
---------------------------------------------

ऐसे…
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Added by AVINASH S BAGDE on June 4, 2012 at 7:30pm — 10 Comments

तीक्ष्ण और पवित्र बुद्धि

तीक्ष्ण और पवित्र बुद्धि 

तीक्ष्ण बुद्धि है कारगर, संसारी कांवे-दावे* में
क्षीण हो जाती है यह, सांसारिक भटकाव में |…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 4, 2012 at 7:16pm — 7 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
हमेशा के लिए...

थम गया है वक़्त ..
जम गए हैं कदम ..
पसरा है सनसनाता सन्नाटा ..
अपना घर आँगन 
जो महकता था 
फूलों की बगिया सा,
गुलमोहर के पेड़ से 
झड़ते थे जहाँ आशीषों के फूल ..
अब है वीरान  खंडहर सा..
नहीं लौट रहे
स्नानकर, वापिस
अपने वीराने आशियाने की ओर
भारी कदम..
आँखों की बदरी में
पिघल रहे हैं गुज़रे लम्हें ,
जो…
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Added by Dr.Prachi Singh on June 4, 2012 at 12:30pm — 23 Comments

माथा सूरज सा दमके, आँखें लगती मधुशाला ||

इन नैनों की खिड़की से, देखा इक योवन आला |

पग पग चल कर आई है , जैसे कोई सुरबाला ||

पुष्पलता सम तन तेरा, मुख चंदा सा उजियाला |

माथा सूरज सा दमके, आँखें लगती मधुशाला ||



निर्झर चाहत का जल हो, तुम हो अमृत सी हाला |

पीकर मन नहिं भरता है, फिर भर लेता हूँ प्याला ||

झूमूं गलियों गलियों में, जपता हूँ तेरी माला |

कोई पागल कहता है , कोई कहता मतवाला ||



सपनों की तुम रानी हो, मन है तेरा सुविशाला…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 4, 2012 at 12:30pm — 6 Comments

परिवर्तन

अग्नि प्रज्वलित हुई धरा पर

परिवर्तन एक गढ़ने को

चला काफिला जनतंत्री का

अब नव चिंतन करने को

नकली रूपया नकली वस्तु

खेल हो रहा ठगने को

महंगाई है खून चूसती

बढ़ रही पिसाचिन मरने को…

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Added by UMASHANKER MISHRA on June 4, 2012 at 11:30am — 17 Comments

मानव न बन सका मनुज

यह कविता मेरे पापा की लिखी हुई है और मै इसे उनकी सहमती से पोस्ट कर रही हूँ |

मै ही तो एक नही हूं ऐसा,
मुझ से पहले भी लोग बड़े थे :
जिन को तो था संसार बदलना ,
अंधेरों में जो लोग खड़े थे :
उन लोगों में मेरी क्या गिनती ,
मुझ से तो वे सब बहुत बड़े थे :
खा कर भी हत्यारे की गोली ,
गांधी जी कितने मौन पड़े थे :
और अहिंसा हिंसा ने खाई ,
था नफरत ने ही प्यार मिटाया :
प्यार…
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Added by Rekha Joshi on June 4, 2012 at 11:14am — 14 Comments

मेरा अंतर्विरोध

मेरा अंतर्विरोध ,

लिबलिबी उत्तेजित ट्रिगर दबी पिस्तौल है !

जब भी जमने लगता है प्रशस्तर ,

अहसासात की रूमानियत और इंसानियत पर,

तत्क्षण वँही ठोक देता है धांय-धांय,

ढेर कर देता है सारा व्रफुरपन मेरा अंतर्विरोध !

बदन के कुएं में जब भरने लगता है झूठ

सारी काली कमाई गंदे खून की चूस लेता है मेरा अंतर्विरोध !

भर देता है जाकर कान आईने के मेरा अंतर्विरोध ,

फिर घुसकर आईने में तडातड झापट रसीद करता है चेहरे पर ,

जैसे मल्लयुद्ध कोई,यूँ धोबी पछाड़ लगा पटक…

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Added by chandan rai on June 4, 2012 at 10:26am — 18 Comments

हे अभी.

हे अभी.

आपकी बहुत याद आ रही है दिल बार-बार सोच रहा है क्या करूँ .आपके बारे में तरह -तरह के ख्याल दिल में आ रहे है ! सोचता हूँ की येसा कैसे हो सकता है की जो इंसान एक दुसरे के देखे बगैर उसे कभी चैन नहीं पड़ता था,बगैर बाते किये खाने का एक निवाला नहीं लेता था आज ओ इस तरह भूला कैसे दिया ,आखिर उसका दिल भी तो भगवान् ने ही बनाया होगा !

हे अभी.

जो बीत गया ओ कल और जो आज चल रहा है ऐ तो आप अपनी ख़ुशी के खातिर अपनी सुख सुबिधाओ के लिए आप जी रहे हो ! आप ने अपने प्यार और वफा को तो आप अपने पैरो…

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Added by Sanjay Rajendraprasad Yadav on June 4, 2012 at 10:25am — 1 Comment

प्रवंचनाएं

 

सांसे जब तक चलती हैं

तब तक चलता है

सुख- दुःख का एहसास 

मान -अपमान की पीडाएं 

उंच -नीच , जात -पात  का भेद

सम्पन्नता -विपन्नता का आंकलन

नहीं मिलने मिलाने के उलाहने

प्रतियोगिता की अंधी दौड़

एक दुसरे को मिटा डालने का षड़यंत्र

सांसे जब तक टूटती हैं

उस क्षण को

ग्लानी से भरता है मन

और छोड़ देता है तन को

बची रह जाती है

उसकी कुछ यादें

अंततः कुछ भी नहीं बचता शेष

और फिर से शुरू हो…

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Added by MAHIMA SHREE on June 3, 2012 at 9:46pm — 26 Comments

नियति तू कब तक खेल रचाएगी ..

नियति तू कब तक खेल रचाएगी

क्या हम सचमुच हैं

तेरे ही कठपुतले

तू जैसा चाहेगी

वैसा ही पाठ सिखाएगी

नियति तू कब तक खेल रचाएगी

कभी कुछ खोया था

कंही कुछ छुट गया था

कभी छन् से कुछ टूट गया था

भीतर जख्मो के कई गुच्छे हैं

गुच्छो के कई सिरे भी हैं

पर उनके जड़ो का क्या

तेरा ही दिया खाद्य  औ पानी था

नियति तू कब तक खेल रचाएगी

कंही कुछ मर रहा है

कंही कुछ पल रहा…

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Added by MAHIMA SHREE on June 3, 2012 at 9:29pm — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मौज कोई सागर के किनारों से मिली

मौज कोई सागर के किनारों से मिली  

 साँसे अपनी दिल के इशारों से मिली  

सोंधी सी महक बारिश का इल्म देती है 

गुलशन की खबर ऐसे बहारों से मिली 

आंधी ने नोच डाले हैं दरख्तों से पत्ते 

जुदाई की भनक आती बयारों से मिली 

चाँद खुश है रोशन करेगा बज्मे- जानाँ   

आस नभ में चमकते सितारों से मिली 

हरेक  लब उसे अकेले में गुनगुनायेंगे   

ऐसी कोई नज्म संगीतकारों से मिली 

पंहुच गई है परदेश में निशा की डोली 

खबर भोर में आते…

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Added by rajesh kumari on June 3, 2012 at 9:03pm — 27 Comments

मैं काँटों का रस्ता हूँ

तुझको साया कहता हूँ ,  खुद भी तेरे जैसा हूँ



सागर हूँ गहरा लेकिन,  लहरें कहती तन्हा हूँ



मुझसे क्यूँ शरमाते हो,  मैं तो बस आईना हूँ



कहलो गंदा जितना तुम, मैं बस अच्छा सुनता हूँ…



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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 3, 2012 at 8:30pm — 6 Comments

कर देंगे वे ठीक, ग़ज़ल की कक्षा में

पाने को कुछ सीख, ग़ज़ल की कक्षा में

हम भी हुए  शरीक़, ग़ज़ल की कक्षा में



पकड़ ही लेंगे  तिलकराजजी चूकों को

बड़ी हों या बारीक, ग़ज़ल की कक्षा में



भूल-भुलैया  भूलों की  जब देखेंगे

कर देंगे  वे ठीक, ग़ज़ल की कक्षा में



ढूंढ  रहे थे कहाँ कहाँ  हम रहबर  को

मिले यहाँ नज़दीक, ग़ज़ल की कक्षा में



"अलबेला"  ने त्याग दिया टेढ़ा रस्ता

चलेंगे सीधी लीक, ग़ज़ल की  कक्षा में …

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Added by Albela Khatri on June 3, 2012 at 8:30pm — 30 Comments

रूप घनाक्षरी

प्रति चरण ३२ अक्षर, १६-१६ पर दो विश्राम, इक्त्तीस्वां (३१ वाँ) दीर्घ, बत्तीसवां (३२ वाँ ) लघु

शारदा कृपा कर दो मुझको नादान जान

भरो खाली झोली माता ज्ञान का दो वरदान



मैं तेरा ध्यान कर के छंद की रचना करूँ

देश देश गायें सब भारत की बढे शान



छंद मेरे पढ़ें जो भी…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 3, 2012 at 7:00pm — 11 Comments

व्यंग्य - पानी रे पानी...

निश्चित ही पानी अनमोल है। यह बात पहले मुझे कागजों में ही अच्छी लगती थी, अब समझ भी आ रहा है। गर्मी में पानी, सोने से भी महंगा हो गया है, बाजार में दुकान पर जाने से ‘सोना’ मिल भी जाएगा, मगर ‘पानी’ कहीं गुम हो गया है। मेरे लिए तो फिलहाल सोने से भी ज्यादा कीमत, पानी की है, क्योंकि पानी को ढूंढने निकलता हूं तो दिन खप जाता है और वह गाना याद आता है...पानी रे पानी...तेरा रंग कैसा...। पानी के बिना वैसे तो जिंदगी ही अधूरी है और ऐसा लग भी रहा है, क्योंकि पानी ने जिंदगी से दूरी जो बना ली है। सुबह से…

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Added by rajkumar sahu on June 3, 2012 at 1:38pm — 8 Comments

जला के "दीप" वो शोले बुझाने में मजा आए

ग़ज़ल या गीत गा के सुर मिलाने में मजा आए

बने जब धुन जुदा सी तो सुनाने में मजा आए



न सोना हो सका मुमकिन न जगने में सुकूँ पाया

जगे खुद यार को भी यूँ जगाने में मजा आए



गजब है इश्क ये मौला समझना है बहुत मुश्किल

बिछड़ के यार से खुद को रुलाने में मजा आए…



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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 3, 2012 at 12:30pm — 6 Comments

साहिबे ईजाद होते जा रहे हैं

बे-अदब आबाद होते जा रहे हैं

इल्म है बरबाद होते जा रहे हैं



देख कर गम इस जमाने का कहें क्या

सब दिले-नाशाद होते जा रहे हैं



गम हमारे देख अपनों को न गम हो

इसलिए हम शाद होते जा रहे हैं



चोर ही जाबित यहाँ पग पग लुटेरे…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 3, 2012 at 9:30am — 8 Comments

उड़ने दो मुझे आस्मां में



इस कविता में मैंने आज के उस आम आदमी की व्यथा बताई  है , जो  बहुराष्ट्रीय कंपनी के चक्कर में  फसकर प्रकृति से जुदा हो गया है , आज की इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में , इस स्पर्धा  में हम खुद को प्रकृति से बहुत दूर कर गए हैं |पेश है आम आदमी की उस व्यथा को जो उसे मजबूर बनाकर आम आदमी बना देती है , कैसे इंसान इस भेड़ चाल में अपने सपनो का गला घुटता  पा रहा है!

कैद न करो मुझे पिंजरों में

उड़ने दो मुझे आस्मां  में 
छीनो न…
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Added by Rohit Dubey "योद्धा " on June 2, 2012 at 10:30pm — 6 Comments

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