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ग़ज़ल

221 2121 1221 212

जिस दिन वो मुझसे प्यार का इजहार कर दिया ।

इस जिंदगी को और भी दुस्वार कर दिया ।।

चिंगारियों से खेलने पे कुछ सबक मिला ।

घर को जला के मैंने भी अंगार कर दिया ।।

उठने लगीं हैं उंगलियां उस पर हजार बार ।

मुझको वो जब से हुस्न का हकदार कर दिया ।।

शायद पड़ी दरार है रिश्तों की नींव में ।

किसने दिलों के बीच मे दीवार कर दिया ।।

मांगा था मैंने एक तबस्सुम भरी नज़र…

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Added by Naveen Mani Tripathi on April 11, 2018 at 12:05am — 13 Comments

आज फिर ....

आज फिर ....

नहीं जला

चूल्हा

उसके घर

आज फिर

घर से निकला

उदासी में लिपटा

काम की तलाश में

एक साया

आज फिर



लौट आया

रोज की तरह

खाली हाथ

आज फिर

पेट में

क्षुधा की ज्वाला

सड़क पर

काम की ज्वाला

नौकरियों में

आरक्षण की ज्वाला

ज्ञान गौण

प्रश्न मौन

उलझन ही उलझन

माथे पर

चिंताओं को समेंटे

यथार्थ से निराकृत

खाली हाथ

लौट आया

आज…

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Added by Sushil Sarna on April 10, 2018 at 8:13pm — 10 Comments

कभी इबादते-गुज़र

कभी इबादतें-गुज़र, कभी मयपरस्ती है जवानी में,
कभी ठण्ड हैं महताब जैसी, कभी आग हैं पानी में!

कभी ख्याले-बुतां, कभी खौफ़े-खुदा हैं जिंदगानी में,
बस यही दो ख्याल रहे हैं इस जिस्म-ए-फ़ानी में!

मैं जख्मी हो जाता हूँ सुनके उनके लफ्ज़-ए-तंग,
एक जंग सी जीतनी होती हैं उनसे बात बनानी में!

तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

Added by Tariq Azeem Tanha on April 9, 2018 at 11:37pm — 3 Comments

जज़्बात

जज़्बात

(अतुकांत)

हर फ़ल्सफ़:  यूँ बयाँ न ही हो तो अच्छा

शबे-वस्ल  हमेशा  मीठी  तो  नहीं होती

रात-अँधेरे जब नींद ओझल हो आँखो से

चले आते हैं मेरे ही फ़ल्सफ़े डसने मुझको

मेरा कहा आज कलामे मुस्तदाम न सही

या अल्फ़ाज़ मेरे चरागे आस्मानी न सही

जानता हूँ सोचेगा कर्दगार खुदा ही कभी

क़लमदस्त का कलाम ऐसा बुरा तो न था

रहमत होगी तब खुदा की, बुलाएगा मुझ्रे

रिहाइश के वास्ते…

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Added by vijay nikore on April 9, 2018 at 3:51pm — 14 Comments

ग़ज़ल नूर की- ख़ुद को क़िस्सा-गो समझे है हर क़िरदार कहानी में

२२/२२/२२/२२/२२/२२/२२/२

.

ख़ुद को क़िस्सा-गो समझे है हर क़िरदार कहानी में

क़तरा ख़ुद को माने समुन्दर  जाने किस नादानी में.  

.

कैसा हिटलर कौन हलाकू, साहिब गर्मी काहे की

इक दिन सब को जाना है इतिहास की कूड़े दानी में.

.

तैर नहीं सकते थे माना लेकिन चल तो सकते थे

डूब मरे हैं कुछ बेचारे टखनों से कम पानी में.  

.

जादू का इक झूठा कपड़ा पहने फिरते हैं साहिब

और ठगों की पौ-बारह है उनकी इस उर्यानी में.

.

पहले जिस के लफ्ज़ लबों के पार न…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 9, 2018 at 12:30pm — 35 Comments

गीत में ढलता रहा

स्वप्न मनभावन हृदय में,

रात-दिन पलता रहा.

गीत पग-पग साथ मेरे,

हर समय चलता रहा

 

पीर लिख कर कागजों में

रोज दिल अपना दुखाया.

प्रेम के दो शब्द लिखकर,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on April 9, 2018 at 10:00am — 10 Comments

अवलम्बन (लघुकथा)

'भीड़' से हासिल अपने अनुभवों के मुताबिक़ मरियल से बुज़ुर्ग मियां-बीवी अपने कटोरे लेकर बहुचर्चित धरने वाली जगह पर कुछ मिलने की उम्मीद से पहुंचे। काफी देर तक भीड़ और अपने खाली कटोरों को ताकते हुए वे मंचीय भाषण सुनते रहे। फिर निराश होकर वहां से लौटने लगे।
"चलो मियां, किसी बड़े मंदिर या गुरुद्वारे की तरफ़ चलते हैं!" अपनी अधनंगी से पोती को गोदी में लेते हुए बीवी ने शौहर से कहा।
"हां चलो, वहीं…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 9, 2018 at 4:54am — 11 Comments

मानवता की मौत -- लघुकथा –

मानवता की मौत -- लघुकथा –

 दिल्ली की ब्लू लाइन बस में आश्रम से सफ़दरगंज अस्पताल जाने के लिये एक बूढ़ी देहाती औरत अपने साथ एक जवान गर्भवती स्त्री को लेकर चढ़ रही थी।

"अरे अम्मा जी, बस में पैर रखने को जगह नहीं है। इस बाई की हालत भी ऐसी है कि ये खड़ी भी न हो पायेगी। कोई और सवारी देख लो"? बस कंडक्टर ने सुझाव दिया|

"एक घंटो हो गयो, खड़े खड़े। लाड़ी के दर्द शुरू हो गये। अस्पताल पहुंचनो जरूरी है| सारी सवारी गाड़ियों की हड़ताल है, सरकार ने पेट्रोल के दाम बढ़ा दिये, इसलिये| घनी मजबूरी है…

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Added by TEJ VEER SINGH on April 8, 2018 at 8:02pm — 12 Comments

ग़ज़ल -- तृष्णाओं के भँवर में फँसा बद-हवास था // दिनेश कुमार

221 - - 2121 - - 1221 - - 212

तृष्णाओं के भँवर में फँसा बद-हवास था

सब कुछ था मेरे पास मगर मैं उदास था

जीवन के मयकदे में कुछ हालत थी यूँ मेरी

होंठों पे प्यास हाथ में खाली गिलास था

हर आदमी के ज़ेह्न में रक़्साँ थी बेकली

दुनियावी ख़्वाहिशात का हर कोई दास था

आह्वान बंद का था सियासत के नाम पर

होगा नहीं वबाल फ़क़त इक क़यास था

भगवे हरे में बँट गया फिर शह्रे-दुश्मनी

चारों तरफ़ इक आलमे-ख़ौफ़ो-हिरास था

तूफ़ाँ में रात जिसका सफ़ीना बचा…

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Added by दिनेश कुमार on April 8, 2018 at 6:25pm — 12 Comments

ग़ज़ल...परेशां रहा हूँ मैं अहल-ए-सितम से-बृजेश कुमार 'ब्रज'

122 122 122 122

गम-ए-दिल उठाऊँ,अज़ीमत नहीं है

मगर बच निकलने की सूरत नहीं है

सुनो बख़्श दो मुझको वादों वफ़ा से

यहाँ अब किसी की जरुरत नहीं है

परेशां रहा हूँ मैं अहल-ए-सितम से

तुम्हारी भी क़ुर्बत की नीयत नहीं है

ओ महताब तू है तो ग़ज़लें हैं रौशन

वगरना सुख़नवर की अज़्मत नहीं है

सरेआम  'ब्रज' की ग़ज़ल गुनगुनाना

ये है और क्या गर मुहब्बत नहीं है

अज़ीमत-इरादा

अहल-ए-सितम-तानाशाह…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 8, 2018 at 1:30pm — 20 Comments

धतूरे (लघुकथा)

"कितनी बार कहा कि ऐसी पवित्र धार्मिक जगहों पर मंद-मंद मुस्कराया मत करो!" रामदीन को कोहनी मारते हुए उसके दोस्त ने कहा - " यहां चलते-फिरते सीसीटीवी कैमरे भी हैं! स्टिंग ऑपरेशन तक हो सकते हैं, समझे!"



"कितने दर्शन और करने होंगे! इस सदी में भी यहां ये कस्टम-सिस्टम! .. और कहां-कहां जाना पड़ेगा!" बड़ी बेचैनी के साथ धार्मिक औपचारिकताएं निभाते हुए रामदीन ने धीरे से कहा।



"आदत डाल ही लो! बड़े नेता के बेटे हो! अब जीवन में यही करना होगा!" - रामदीन के माथे से पसीने की बूंदें अपने…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2018 at 10:17am — 11 Comments

ज़ुदा हुआ पर सज़ा नहीं है

121 22 121 22

...

ज़ुदा हुआ पर सज़ा नहीं है,

न ये समझना ख़ुदा नहीं है ।

ज़रा सा नादाँ है इश्क़ में वो,

सबक़ वफ़ा का पढ़ा नहीं है'

दिखाऊँ कैसे वो दिल के अरमाँ ,

चराग दिल का जला नहीं है ।

है दर्द गम का सफर में अब तक,

कि अश्क़ अब तक गिरा नहीं है ।

न वो ही भूले ये दिल दुखाना,

यहाँ अना भी खुदा नहीं है ।

न देना मुझको ये ज़ह्र कोई,

हुनर तो है पर नया नहीं है ।

लिपट जा…

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Added by Harash Mahajan on April 8, 2018 at 9:30am — 16 Comments

कविता -- अनकही ख़ामोशियाँ



अनकही ख़ामोशियाँ

बहुत कुछ कहती है

उनका शोर बहुत दूर तक सुनाई देता है

उन ख़ामोशियों की ज़मीन पे

बीज अंकुरित होते हैं

बहुत कुछ कहने के

मगर अनकही ख़ामोशियाँ

ख़ामोश बनकर रह जाती है

जैसे हड़ताल की अधूरी रह जाती है माँगें

जो कभी पूरी नहीं होती है

और माँगें हड़ताल को चलाती है

अतीत की स्मृतियों को भी

दबाती है अनकही ख़ामोशियाँ

धीरे-धीरे अनकही ख़ामोशियाँ

कब भीतर की तपिश बन जाती है

पता ही नहीं चलता है

यह तपिश

लावा बनकर फूट पड़ती है…

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Added by Mohammed Arif on April 8, 2018 at 9:06am — 12 Comments

आलमे खयाल

आलमे खयाल

(अतुकांत)

शाम बैठी रही हो कर तैयार वह दुलहन-सी

उदास.. मुन्तज़िर थी वह आज भी इश्क की

ज़रूर निराला ही होगा  यह आलमे तसव्वुर

दर पर हाँ एक हल्की-सी दस्तक तो हुई थी…

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Added by vijay nikore on April 8, 2018 at 7:59am — 11 Comments

क्यों वो हाँ में हाँ मिलाता आज सबकी दिख रहा ..गजल



बह्र:- 2122-2122-2122-212

एक तरफ़ा हो नहीं सकता कोई भी फैसला।।

दर्द दोनों ओर देगा ये सफर ये रास्ता।।

अब रकीबत का असर आया है रिस्ते में मेरे।

दरमियाँ अब दिख रहा है दूरियां और फासला।

बीज रिश्ता ,फासले के आज कल बोने लगा ।

अब फसल नफरत की पैदा खेत में वो कर रहा।।

लाख समझाया मगर उनको समझ आया नहीं।

दम मुहब्बत तोड़ देगी, गर नहीं होंगे फ़ना।।

बस जरा सा मुस्कुराकर कर दिया हल मुश्किलें।

फर्क अब पड़ता नहीं ,मैं…

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Added by amod shrivastav (bindouri) on April 7, 2018 at 10:53pm — 10 Comments

तज़ुर्बे (लघुकथा)

"लगता है कि अभी भी यह उड़ना नहीं सीख पायी।"


"अरे नहीं! दरअसल वह  उड़ना भूल चुकी है बुरे तज़ुर्बों से !" - नई सदी की हैरान, परेशान नवयौवना को घर की छत पर अनिर्णय की स्थिति में देख उसके इर्द-गिर्द हवा में उड़ते एक गिद्ध ने अपने साथी कौवे से कहा। कौवा उस गिद्ध को घूरने सा लगा।


(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 7, 2018 at 10:07pm — 16 Comments

हो सके तो वन बचा लो  -नवगीत

हो सके तो वन बचा लो  

 

दे रहे जीवन सभी को,

खेत, वन, उपवन सजा लो.

हैं जरूरी जिन्दगी को,

हो सके तो वन बचा लो.  

 

हो चुके हैं, मत करो इन,

पर्वतों को और…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on April 7, 2018 at 8:30pm — 18 Comments

ग़ज़ल नूर की -पार करने हैं समुन्दर ये दिलो-जाँ वाले

२१२२ /११२२ /११२२ /२२

.

पार करने हैं समुन्दर ये दिलो-जाँ वाले

और आसार नज़र आते हैं तूफाँ वाले.

.   

फ़ितरतन मुश्किलें; मुश्किल मुझे लगती हीं नहीं     

पर डराते हैं सवाल आप के आसाँ वाले.

.

तितलियाँ फूल चमन सारे कशाकश में हैं

एक ही रँग के गुल चाहें गुलिस्ताँ वाले.

.

ये न कहते कि रखो एक ही रब पर ईमाँ

इश्क़ करते जो अगर गीता-ओ-कुरआँ वाले.  

.

जानवर हैं कई, इंसान की सूरत में यहाँ

शह्र में रह के भी हैं तौर बयाबाँ वाले.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 7, 2018 at 1:02pm — 20 Comments

ग़ज़ल

221 2121 1221 212

अन्याय के विरोध में जाने से डर लगा ।।

भारत का संविधान बताने से डर लगा ।।

यूँ ही बिखर न जाये कहीं मुल्क आपका ।

कोटे पे आज बात चलाने से डर लगा ।।

घोला है ज़ह्र अपने गुलशन में इस तरह ।

अब जिंदगी को और बचाने से डर लगा ।।

फर्जी रपट लिखा के वो अंदर करा गया ।

मैं बे गुनाह था ये बताने से डर लगा ।।

शोषित हुआ सवर्ण करे भी तो क्या करे ।

उसको तो अपना ज़ख्म दिखाने से डर लगा…

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Added by Naveen Mani Tripathi on April 7, 2018 at 1:04am — 8 Comments

ग़ुस्ताख़ी मुआफ़ (लघुकथा)

मिर्ज़ा मासाब कई बार मांसाहार छोड़ने की नाक़ामयाब कोशिशें कर चुके थे।‌ लेकिन उनके घर में बेगम साहिबा के रिवाज़ के मुताबिक़ हर छोटी-बड़ी ख़ुशी के मौक़े पर या तो चिकन पकता या मछली। कभी छोटे या बड़े की जुगाड़ होती या बाज़ार के कबाबों की! मिर्ज़ा जी के शाकाहारी बनने के ख़्वाब इस बार भी चकनाचूर हो गये। रात के ख़ाने के वक़्त दस्तरख़्वान पर बकरे का लज़ीज़ गोश्त पहले से कोई बातचीत किये बिना ही पेश कर दिया गया।‌ उन्होंने बुरा सा मुंह बनाते हुए बेगम की तरफ़ देखा।



"ख़ुशी का मौक़ा था न! आज…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 6, 2018 at 9:36pm — 6 Comments

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