हाइकु...
१..
बचपन में
सहारा लगता है
पचपन में
. ----
२.
अदालत है
देखो फंस ना जाना
पुलिस-थाना..
-----
३.
साँझ ने घेरा
गहरा है अँधेरा
कहाँ सबेरा...
४.
अदावत में
बच नहीं पावोगे
अदालत में .
५.
यह तस्वीर
हैं रंग कैसे- कैसे
ये तकदीर ..
६..
धर्म अपना
ईमान भी अपना
कर्म अपना.
७..
कर्ज में डूबे
बढ़े बचाने हाँथ
फ़र्ज़ में डूबे.
८.
देश…
Added by AVINASH S BAGDE on May 11, 2012 at 4:30pm — 8 Comments
© AjAy Kum@r
Added by AjAy Kumar Bohat on May 11, 2012 at 11:56am — 6 Comments
मैं
भीड़ हूँ
इस लोकतंत्र के ढाँचे की मैं रीढ़ हूँ
जी हाँ
मैं भीड़ हूँ...
तिनका-तिनका जोड़ता दिन का
रोज़ बिखरता-जुड़ता
मन-आशाओं का नीड़ हूँ
मैं भीड़ हूँ...
कहाँ फुर्सत
वैष्णव-जन को,
की जाने मुझ को
एक परायी पीड़ हूँ
मैं भीड़ हूँ...
~ © AjAy Kum@r
Added by AjAy Kumar Bohat on May 11, 2012 at 11:30am — 10 Comments
Added by MAHIMA SHREE on May 10, 2012 at 4:15pm — 17 Comments
हां भीड़ में शामिल
मैं भी तो हूँ
रोज
अलसुबह उठ के
जाती हूँ
शाम को आती हूँ
दूर से देखती हूँ
कहती हूँ
ओह देखो तो जरा
कितनी भीड़ है
और फिर
मैं भी भीड़ हो जाती हूँ
Added by MAHIMA SHREE on May 10, 2012 at 4:00pm — 26 Comments
Added by rajesh kumari on May 10, 2012 at 1:45pm — 17 Comments
Added by Monika Jain on May 9, 2012 at 12:30am — 12 Comments
जिसका अंक है कोई, न रूप आकार है,
जो प्रकाश पुंज है, जो निर्विकार है,
कणों कणों से एक सुर में ये पुकार है,
वही तो सृजनकार है, वही तो सृजनकार है।
ये नगर ये…
ContinueAdded by इमरान खान on May 8, 2012 at 1:00pm — 8 Comments
छहः साल का नन्हा सा बच्चा था रोहन, लेकिन बड़ा होशियार.मम्मी पापा सब की आँखों का तारा . पढने में जितना होशियार उतना ही बड़ा खिलाडी.हमेशा कोई न कोई नयी हरकत कर के माँ को चौंका देता था. एक दिन शाम को काफी अँधेरा हो चला लेकिन रोहन खेल कर घर नहीं लौटा. माँ की डर के मारे हालत ख़राब होने लगी. उलटे सीधे विचार मन में आने लगे..बेहाल हो कर ढूंढने निकली तो देखा की जनाब शर्ट को पेट पर आधा मोड़े हुए उस में कोई चीज़ बटोरे लिए चले आ रहे हैं. ख़ुशी…
ContinueAdded by Sarita Sinha on May 8, 2012 at 1:00am — 24 Comments
ज़िंदगी कर दी सनम तेरे हवाले अब तो।
तू भी बढ़के मुझे सीने से लगा ले अब तो॥
दूर रहता हूँ तो आँखों में नमी रहती है,
मैं भी हँस लूँ तू ज़रा पास बुला ले अब तो॥…
Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on May 7, 2012 at 9:30pm — 18 Comments
Added by Ashok Kumar Raktale on May 7, 2012 at 6:00pm — 16 Comments
मैं नन्ही सी चिड़िया...भरती हूँ आज खुले आसमान में लम्बी से लम्बी उड़ान l याद है मुझे आज भी सर्द ठिठूरी कुहासे भरी वो गीली गीली सी सुबह, जब अपनी ही धुन में मस्त, मिट्टी की सौंधी सी खुशबू में गुम मैं फुदक रही थी एक पगडंडी पर l नम घास की गुदगुदाती छुअन मदमस्त कर रही थी मुझे और मैं अपनी ही अठखेलियों से आह्लादित चहक रही थी…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on May 7, 2012 at 1:07pm — 16 Comments
सूरज की गरमी को देखो, पड़ती सब पे भारी
सूखे ताल तलैया भाई, पिघली सड़कें सारी
सूख चली देखो हरियाली, सहमा उपवन सारा.
पंथिन को तो छांह नहीं अब, क्योंकर चलता…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 7, 2012 at 12:30pm — 29 Comments
मंजिले ऊँची बनाना आज की तामीर है ,
इस सदी की दोस्तों कितनी अजब तस्वीर है ...
ये है कंप्यूटर सदी यानि ज़माना है नया ,
कितनी आसानी से बदली जा रही तस्वीर है ...
क्या कटेगी ज़िन्दगी अपनों की मोबाईल बगैर ,
ये हमारे दौर की मुंह …
Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on May 7, 2012 at 11:30am — 11 Comments
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on May 7, 2012 at 9:30am — 15 Comments
औरत न तेरा दर कहीं काँटों भरी डगर है
तेरे जन्म के पहले ही बनती यहाँ कबर है l
रखती कदम जहाँ है गुलशन सा बना देती
फिर भी यहाँ दुनिया में होती नहीं कदर है l
ये नादान नहीं जानते कीमत नहीं पहचानते
तेरे बिन कायनात तो सूखा हुआ शजर है l
जब भी कहीं देश में कोई ज्वलंत समस्या उठी है तो चारों तरफ एक चर्चा का विषय बन जाती है. भ्रूण हत्या भी एक ऐसा ही विषय बना हुआ है. भारत में आये दिन खबरों में, या फिर कभी रचनाओं, कभी लेखों या सिनेमा के माध्यम से…
ContinueAdded by Shanno Aggarwal on May 7, 2012 at 6:00am — 12 Comments
मै ६ दिसंबर हूँ
मै ११ सितम्बर हूँ
२६ नवम्बर हूँ
आंसुओं का
महासागर हूँ मै !
--------------------------
गोल-गोल
बूँद भरी
पूर्ण हो
निकल पड़ी
-------------------…
ContinueAdded by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 6, 2012 at 10:09pm — 5 Comments
मैंने अपनी हर दुआ में बस तुझे मांगा यहाँ
तेरे आने से मिला है अब मुझे सारा जहाँ
लब हैं नाजुक पंखुड़ी से ये गुलाबों की तरह
जुल्फों में उलझे पड़े जो जी रहे हैं अब कहाँ
भूलूं कैसे "दीप" आखिर वो हया रुखसार की
उनके बिन कैसे रहूँगा मैं यहाँ औ वो वहाँ
…………."दीप"…………..
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on May 6, 2012 at 8:48pm — 3 Comments
तुम क्या समझो तुम क्या जानो
है पीर कहा ? है दर्द कहाँ ?
क्यों है मन आकुल व्याकुल सा
क्यों है तन थका थका सा ये
क्यों हार - हार कर भी लेती हूँ
जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं
क्यों बुझे हूऐ दीपों में मैं
आशा की जोत जलाती हूँ
क्यों हूँ रूठी हूँ दुनिया से मैं
क्यों फिर भी सबसे हिली मिली
हैं प्रश्न बहुत पर फिर भी
मैं क्यों खडी - खडी मुस्काती हूँ ?
क्या है ? क्यों है ? कैसा है ?
प्रश्नों की ठेलम ठेली है !
हो चकित देख कर…
Added by Monika Jain on May 6, 2012 at 7:00pm — 11 Comments
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