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मुक्तिका: अब हिंदी के देश में --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

अब हिंदी के देश में

संजीव 'सलिल'

*

करो न चिंता, हिंदी बोलो अब हिंदी के देश में.

गाँठ बँधी अंग्रेजी, खोलो अब हिंदी के देश में..



ममी-डैड का पीछा छोड़ो, पाँव पड़ो माँ-बापू के...

शू तज पहन पन्हैया डोलो, अब हिंदी के देश में



बहुत लड़ाया राजनीति ने भाषाओँ के नाम पर.

मिलकर गले प्रेम रस घोलो अब हिंदी के देश में..



'जैक एंड जिल' को नहीं समझते, 'चंदा मामा' भाता है.

नहीं टेम्स गंगा से तोलो अब हिंदी के देश में..…



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Added by sanjiv verma 'salil' on September 14, 2011 at 8:30am — 8 Comments

अभियंता दिवस १५ सितम्बर पर विशेष आलेख: तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्रीय भाषा में (संजीव वर्मा 'सलिल')

अभियंता दिवस १५ सितम्बर पर विशेष आलेख:

तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्रीय भाषा में

संजीव वर्मा 'सलिल'


*

राष्ट्र गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा:

              किसी राष्ट्र की संप्रभुता के प्रतीक संविधान, ध्वज, राष्ट्रगान, राज भाषा, तथा राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह (पशु, पक्षी आदि) होते हैं. संविधान के अनुसार भारत लोक कल्याणकारी गणराज्य है, तिरंगा झंडा राष्ट्रीय ध्वज है, 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान है, हिंदी राज भाषा है, सिंह राष्ट्रीय पशु तथा मयूर…

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Added by sanjiv verma 'salil' on September 14, 2011 at 8:00am — No Comments

विरह की पीड़ा

कुछ कह न सके तुम, चुप सह न सके हम .

खामोशियों में टूट गया दिल ये  बेचारा 
आहें दबी रहीं, चाहें दबी रहीं..
बिन तुम्हारे हमसे जिया…
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Added by Lata R.Ojha on September 14, 2011 at 12:00am — 10 Comments

मेरी हाँ

मेरी हाँ

कई दिनो से 

घर के बाहर 

चक्कर लगाते-लगाते

एक दिन अचानक वो

ठहरा, झिझकता हुआ बोला

मै…

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Added by सुनीता शानू on September 13, 2011 at 11:23pm — 6 Comments

किसी और के पास कहाँ

घर शिफ्टिंग के दौरान एक पुरानी diary हाथ लगी और गर्द झाड़ी तो यह रचना नमूदार हुई. इस पर तारीख अंकित थी 12-8-1999...मैने सोचा कच्ची उम्र और कच्ची सोच की यह रचना के सुधि पाठकों की नज़र की जाए.

तुम्हारी जो ख़बर हमें है

वो किसी और के पास कहाँ

देख लेता हूँ कहकहों में भी

आंसू के कतरे

ऐसी नजर किसी और के पास कहाँ



ज़माने ने ठोकरें दी पत्थर समझकर

तुने मुझे सहेज लिया मूरत समझकर

होगी अब हमारी गुजर

किसी और के पास कहाँ



उम्र भर देख लिया

बियाबान में…

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Added by दुष्यंत सेवक on September 13, 2011 at 6:44pm — 6 Comments

ध्रुवतारा ...

मेघ से आच्छादित नभ में

एकमात्र सुक्ष्म नक्षत्र से…

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Added by Anwesha Anjushree on September 13, 2011 at 4:51pm — 4 Comments

मैं अपनों से उम्मीद ही कम रखती हूँ

मैं हिफाज़त से तेरा दर्दो अलम रखती हूँ

और खुशी मान के दिल में  तेरा ग़म रखती हूँ।



मुस्कुरा देती हूँ जब सामने आता है कोई

इस तरह तेरी जफ़ाओं का भरम रखती हूँ।



हारना मैं ने नहीं सीखा कभी मुश्किल से

मुश्किलों आओ दिखादूं मैं जो दम रखती हूँ। 



मुस्कुराते हुए जाती हूँ हर इक  महफ़िल में

आँख को सिर्फ़ मैं तन्हाई में नम रखती हूँ 



है तेरा प्यार इबादत मेरी  पूजा मेरी 

नाम ले केर तेरा मंदिर में क़दम रखती हूँ। 



दोस्तों से न गिला है न शिकायत है…

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Added by siyasachdev on September 13, 2011 at 1:17am — 16 Comments

''पल-पल फिसलती जिंदगी''

 

कोई पल ना बीतें काम के बिन हैं 

रस्ते जीवन के बहुत कठिन हैं l

 

खुशी और गम के घूँट घूँट के

अभिलाषायें मन में अनगिन हैं l

 

साँस जभी तक आस तभी तक

सिमट रहे हर पल पल-छिन हैं l

 

काया ठगती है क्षमता घटती है

और बुझती सी साँसें बैरिन हैं l  

 

ना होता हर दिन एक समाना

उम्मीदें भी लगतीं नामुमकिन हैं l

 

काम बहुत और समय रेत है

सब फिसल रहे हाथों से दिन हैं l

 

मंजिल है…

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Added by Shanno Aggarwal on September 13, 2011 at 12:30am — 2 Comments

मन को मनाने के अंदाज निराले है

 

बस एक छोटी सी कोशिश है लिखने की...

 

मन को मनाने के अंदाज निराले है

हुए नही वो हम ही उसके हवाले हैं

 

उसने कसम दी तो न पी अभी तक

हाथ में पकड़े लो खाली प्याले है

 

दिल की बात जुबां पर लाये भी कैसे

ये भीड़ नही बस उसके घरवाले हैं

 

बात छोटी सी भी वो समझे नही

चुप रहेंगे भला जो कहने वाले हैं

 

इन्तजार की भी होती है हद दोस्तों

रूक न पायेंगे हम जो मतवाले हैं

 

शानू

Added by सुनीता शानू on September 12, 2011 at 11:30pm — 8 Comments

भादों की अमावास

अमावास की रात अब बहुत सुकून देती है

वो भी भादों की अमावास हो तो क्या कहने

उसके अलावा हर रात को…

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Added by आशीष यादव on September 12, 2011 at 1:00pm — 16 Comments

बाक़ी रहा न मैं....

बाक़ी रहा न मैं, न ग़मे-रोज़गार मेरे.

अब सिर्फ़ तू ही तू है परवरदिगार मेरे.



यारब हैं सर पे आने को कौन सी बलायें,

क्यूँ आज मेरी क़िस्मत है साज़गार मेरे.



बरसेगी और तुझपे ? उनके करम की बदली,…

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Added by डॉ. नमन दत्त on September 12, 2011 at 7:30am — 2 Comments

मुझे देख के एक लड़की ................

मुझे देख के एक लड़की, बस हौले -हौले हँसती है I

प्रेम - जाल मैं डाल के थक गया, पर कुड़ी नहीं फंसती हैI

 

        रहती है मेरे पड़ोस में वो,    कुछ चंचल कुछ शोख है वो I

        ना गोरी - ना काली है, सांवली है मतवाली है I

        झील सी गहरी आँखें हैं , ज़ुल्फ़ यूँ काली रातें हैं I

        लहरों जैसी बल खाती, दुल्हन जैसी शरमाती I

        चेहरा चाँद है पूनम का, होंठ सुमन है उपवन का I

        नाम है उसका नील कमल, वो है ज़िंदा ताजमहल…

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Added by satish mapatpuri on September 12, 2011 at 12:00am — 3 Comments

" उलझन"

न कोई गिला, न कोई शिकवा,

उनसे न मिलना भी है एक सजा;

न मिले हम उनसे तो दिल डूबा रहता है उनकी यादो में,

मिले अगर हम उनसे तो दिल डूबा रहता है अरमानो में;

डरते हैं हम कि कहीं हम  बह न जाएँ इन अरमानो में,

कहीं रह न जाये बस वो मेरे खयालो में;

मेरी जिंदगी में बस यही कशमकश है,

और बस यही मेरी जिंदगी की उलझन है;

जितना उनको खोना  है …

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Added by Smrit Mishra on September 11, 2011 at 10:29pm — 2 Comments

" जालिम दुनिया"

साथ रहकर भी दूर हैं हम,
उनकी मजबूरियों के कारण मजबूर हैं हम;
उनकी चाहतो  को पूरा करूँ मैं हरदम,
पर बताते भी तो हैं वो मुझको कम;
कारण ये नहीं की जुदा हैं हम उनसे,
कारण तो ये है कि डरते है हम जगसे;
जग में कहीं उनकी जग हंसाई न हो जाये,…
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Added by Smrit Mishra on September 11, 2011 at 10:28pm — No Comments

कोई आया है

 



रमिया बड़ी खुश थी । शहर जो जा रही थी - अपने पोते को देखने जाने का आखिर उसे मौका मिल ही गया था । यह अवसर बनने में समय लग गया और देखते देखते उसका पोता सात साल का हो गया था । महानगर की भागम-भाग भरी जिन्दगी में से न तो उसका बेटा ही समय निकाल पा रहा था और ना ही रमिया गाँव की अपनी खेती गृहस्थी में से समय निकाल पा रही थी । या यूँ कहें कि कुछ अधिक ही व्यस्त थे दोनों ही माँ-बेटे । और रमिया का पोता…

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Added by Neelam Upadhyaya on September 11, 2011 at 8:30pm — 13 Comments

विरह गीत भाग (१)

हो गगन के चन्द्रमा तुम क्यों अगन बरसा रहे

देख कर बिरही अकेला क्यों मगन मुस्का रहे



मेरी धरती ने तुम्हे आकाश पर पहुंचा दिया

तुम भटकते ही रहे अब तक न तुमने कुछ किया

आज कर लो व्यंग्य कल तुम देख कर जल जाओगे

आज हूँ परदेश में कल पार्श्व में होगी प्रिया

इसलिए आगे बढ़ो जाओ जहाँ तुम जा रहे हो

हो गगन के चन्द्रमा ...........................



विरह में कितनी व्यथा है ये वियोगी जानते हैं

कोई क्या जानेगा केवल भुक्त भोगी…

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Added by Yogendra B. Singh Alok Sitapuri on September 11, 2011 at 4:05pm — 4 Comments

सृजनहार ,तुम्हारी नगरी कितनी सुन्दर

आज

मुर्गे की बांग के साथ ही

प्रवेश किया मैंनें तुम्हारी नगरी में .

रुपहरी भोर ,सुनहरी प्रभात से ,

गले लग रही थी

लताओं से बने तोरणद्वार को पारकर आगे बढ़ी,

कलियाँ चटक रही थीं,

फूलों का लिबास…

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Added by mohinichordia on September 11, 2011 at 2:00pm — 10 Comments

हाइकू

 

1. छब अपनी

   भूली मैं सांवरिया 
   तोसे मिल के 
2. बावरा मन
   पुकारे तेरा नाम 
   सुबह शाम 
3. उड़ा के खाक 
   अपने बदन की 
   पाया ये इश्क 
4. दर्द की पाती
   तुम बिन जीवन 
   रोए ये मन
5. क्या जीत हार 
   तुम बिन सनम 
   सब बेकार 
6. किसी बहाने 
   करूँ तेरी ही बात 
   दोस्तों के…
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Added by Veerendra Jain on September 11, 2011 at 12:30am — 2 Comments

मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ

 

मैं कैसे कहूँ की मैं क्या चाहता हूँ |
सिर्फ आदमी मैं बना चाहता हूँ ||
ज़माने को देना बता चाहता हूँ |  
ज़मीं को मैं ज़न्नत-नुमाँ चाहता हूँ ||  मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ |
तवक्को  से बहतर ज़हाँ चाहता हूँ |…
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Added by Shashi Mehra on September 9, 2011 at 9:14pm — 1 Comment

मुक्तक

 हमने कुछ किया तो उसे फ़र्ज  बताया गया 

 उन्होंनें कुछ किया तो उसे क़र्ज/अहसान बताया गया 
आओ ! विसंगतियां  देखें जीवन की 
अपनी सुविधानुसार हमें शब्दों का अर्थ समझाया गया |


पाकर खुशी मेरे आँसू निकल पड़े ,
उन्होंनें समझा मै दु:खी हूँ 
मै…
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Added by mohinichordia on September 9, 2011 at 9:00pm — 1 Comment

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