हो गगन के चन्द्रमा तुम क्यों अगन बरसा रहे
देख कर बिरही अकेला क्यों मगन मुस्का रहे
मेरी धरती ने तुम्हे आकाश पर पहुंचा दिया
तुम भटकते ही रहे अब तक न तुमने कुछ किया
आज कर लो व्यंग्य कल तुम देख कर जल जाओगे
आज हूँ परदेश में कल पार्श्व में होगी प्रिया
इसलिए आगे बढ़ो जाओ जहाँ तुम जा रहे हो
हो गगन के चन्द्रमा ...........................
विरह में कितनी व्यथा है ये वियोगी जानते हैं
कोई क्या जानेगा केवल भुक्त भोगी जानते हैं
प्रेमियों को छेड़ने की अब ये आदत छोड़ दो
पूर्व के अभिशाप से हो कुष्ठ रोगी जानते हैं
मुँह छिपा लो बादलों में क्यों नहीं शरमा रहे
हो गगन के चन्द्रमा ...........................
मैं वही मानव हूँ जो अब चरण तुम पर रख चुका है
कितने बदसूरत हो तुम निज चक्षुओं से लख चुका है
है तेरा अस्तित्व ही निष्प्राण बिन जलवायु के
हर तरह से आधुनिक विज्ञान निरख परख चुका है
दान का 'आलोक ' पा तुम व्यर्थ में इतरा रहे हो
हो गगन के चन्द्रमा ...........................
आलोक सीतापुरी
Comment
आप सभी का बहुत-बहुत आभार |
विरह की भावना गीत में बखूबी अभिव्यक्त हुई है हार्दिक बधाई !!
//विरह में कितनी व्यथा है ये वियोगी जानते हैं
कोई क्या जानेगा केवल भुक्त भोगी जानते हैं
प्रेमियों को छेड़ने की अब ये आदत छोड़ दो
पूर्व के अभिशाप से हो कुष्ठ रोगी जानते हैं//
बहुत खूब आदरणीय आलोक जी ! विरह में कितनी व्यथा है यह तो वास्तव में भुक्तभोगी ही जानते हैं .....इस सुन्दर गीत के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें !
विरह में कितनी व्यथा है ये वियोगी जानते हैं
कोई क्या जानेगा केवल भुक्त भोगी जानते हैं
प्रेमियों को छेड़ने की अब ये आदत छोड़ दो
पूर्व के अभिशाप से हो कुष्ठ रोगी जानते हैं
क्या बात है आलोक जी .............. क्या बात है. आपके ख्याल को नमन
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