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कुंडलिया छंद

1....

शीतल मीठे नर्म से ,शब्दों को दो पाँव 

सद्भावों की ईंट से ,रचो प्रीत के गाँव 

रचो प्रीत के गाँव, फसल खुशियों की बोना 

नेह सुधा से सिक्त, रहे हर मन का कोना 

कंचन शुचिता धार ,अहम् का तज कर पीतल 

हरो ताप-संताप ,सलिल बन निर्मल शीतल ..

2.........…

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Added by seema agrawal on October 4, 2012 at 2:30am — 4 Comments

बटवारा आसमान का......

आज डूबते हुए सूरज को एक बार फिर देखा,

लालिमा से भरा सूरज अलविदा कहता हुआ,

अब सूरज छुप जाएगा बस कुछ ही पलों में,

और आकाश में दिखने लगेगा चाँद वो सुंदर सा,



कभी कभी ये भ्रम भी होने लगता है,

की क्या चाँद और सूरज अलग अलग हैं,

या सूरज ही रूप रंग बदल लौट आता है,

और दो किरदार निभाता है अलग अलग तरह के,

जैसे फिल्मों में एक ही आदमी दो हो जाता है एक होते हुए भी,

आखिर क्यों नहीं ये दोनों एक साथ दिखते हैं,

ये सोचते सोचते ही नज़र खोजने लगी आकाश…

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Added by पियूष कुमार पंत on October 3, 2012 at 9:30pm — 2 Comments

ये हादसे -- - - - -

 
ये हादसे 
मीडिया की 
टी आर पी के वास्ते 
लोगो के मनोरंजन 
के रास्ते
बतलाते 
मुनीम और गुमास्ते |
ये…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 3, 2012 at 5:57pm — 6 Comments

जिसे भी आइना दिखाया है

वो मेरे सामने न आया है

जिसे भी आइना दिखाया है



मुसलसल चोट हर घडी खा के

सनम में ये निखार आया है



जिगर क्या तार तार करने को

ये किस्सा दर्द का सुनाया है



फरेबी बे-अदब चरागों ने…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on October 3, 2012 at 4:00pm — 1 Comment

अपनी प्रिया को छोड़ के

अपनी प्रिया को छोड़ के प्रीतम अगर गया |
नन्हा सा कैमरा कहीं चुपके से धर गया ||

आया हमारे मुल्क में व्यापार के लिए
सोने की चिड़िया लेके जाने किधर गया ||

रुपये की खनक गूंजती बाज़ार में अभी
डालर के सामने मगर चेहरा उतर गया ||

बनकर मसीहा गाँव में घूमे जो माफिया ,
दस्खत कराना आज उसका सबको अखर गया ।।

कोयले से आजकल हम दांतों को रगड़ते-
तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया ।।

Added by रविकर on October 3, 2012 at 2:00pm — 2 Comments

अच्छा लगता है

"अच्छा लगता है" के तारतम्य में कुछ मुक्तक पेश हैं दोस्तों



कुछ लोगों को गंजे पर मुस्काना अच्छा लगता है

झड़ते अपने बालों को सहलाना अच्छा लगता है

इक दिन वो भी ऐसे ही हो जायेंगे हँसने लायक

लेकिन हँसते हँसते मन बहलाना अच्छा लगता है



टपरे पे जा सौ का नोट…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on October 3, 2012 at 11:23am — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३८ (मुद्दत हुई कि रात गुज़ारी है घर नहीं)

मुद्दत हुई कि रात गुज़ारी है घर नहीं

बच्चे सयाने हो गए मुझको खबर नहीं

 

वो प्यार क्या कि रूठना हँसना नहीं जहां

ऐसा भी क्या विसाल कि ज़ेरोज़बर नहीं

 

दरिया में डूबने गए दरिया सिमट गया

तेरे सताए फर्द की कोई गुज़र नहीं

 

उनके लिए दुआ करो उनका फरोग हो

जिनपे तुम्हारी बात का होता असर नहीं   

 

रहता हूँ मैं ज़मीन पे ऊँची है पर निगाह

रस्ते के खारोसंग पे मेरी नज़र नहीं

 

सबको खुदाका है दिया कोई न…

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Added by राज़ नवादवी on October 3, 2012 at 9:59am — 3 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
शुद्ध मनस कर श्राद्ध करें

नतमस्तक हो 
श्रद्धानत हो 
निर्विकार हर भाव करें...
प्रश्नातीत हुए 
अपनों का 
शुद्ध मनस कर श्राद्ध करें l
.
स्थाई प्रतिक्रिया-
हीनता, ओढ़ 
अबोल जो बिम्ब हुए...
उनके ओजस 
की चादर, अदृश्य 
मगर, एहसास करें l
.
चेतन से
अवचेतन की
सीमा रेखाएं जुड़ती…
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Added by Dr.Prachi Singh on October 3, 2012 at 9:30am — 16 Comments

कौन है वो बूढ़ी .....

आज चाँद दिखा आसमान में पूरा,

और वो बुढिया भी जो कात रही है,

सूत कई वर्षों से बैठी हुई तन्हा,

मैं हैरान हूँ, और परेशान भी,

क्या चाँद पर भी लोग हम जैसे ही रहते हैं,

क्या वहाँ भी बूढ़ों को यूं ही छोड़ दिया जाता है,

अकेला और तन्हा, विज्ञान कहता है कि,

कोई बुढ़िया नहीं रहती है चाँद पर,

पर मुझको तो मेरी माँ ने तो बचपन बताया था ,

सूत कातती उस बुढ़िया के बारे में,

वो चाँद मामा है हमारा हमने ये बचपन से सुना है,

तो…

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Added by पियूष कुमार पंत on October 2, 2012 at 9:00pm — 7 Comments

सम्पूर्ण ओबीओ परिवार की ओर से आप सभी को शास्त्री/गाँधी जयन्ती की बधाई !

अमर 'शास्त्री'

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

छंद: कुकुभ

(प्रति पंक्ति ३० मात्रा, १६, १४ पर यति अंत में दो गुरु)  

'लाल बहादुर' लाल देश के, काम बड़े छोटी…

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Added by Er. Ambarish Srivastava on October 2, 2012 at 4:00pm — 24 Comments

कृतज्ञ दुनिया इस दिन की .

एक की लाठी सत्य अहिंसा एक मूर्ति सादगी की,

दोनों ने ही अलख जगाई देश की खातिर मरने के .
जेल में जाते बापू बढ़कर सहते मार अहिंसा में ,
आखिर में आवाज़ बुलंद की कुछ करने या मरने की .
लाल बहादुर सेनानी थे गाँधी जी से थे प्रेरित ,
देश प्रेम में छोड़ के शिक्षा थामी डोर आज़ादी की .
सत्य अहिंसा की लाठी ले फिरंगियों को भगा दिया ,
बापू ने अपनी लाठी से नीव जमाई भारत की .
आज़ादी के लिए…
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Added by shalini kaushik on October 2, 2012 at 2:39pm — 4 Comments

पुढील स्टेशन (लघु कथा)

तेज लोकल में मध्यम ध्वनि गूँजी, “पुढील स्टेशन अँधेरी”.

“यार ये पुढील स्टेशन का मतलब पुलिस स्टेशन है क्या”? देव ने अजय से पूछा.

अजय बोला, “पता नहीं यार. मैंने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया”.

तभी उनके बगल में खड़ा एक लड़का बोला, “तुम साला भैया लोग यहाँ बस तो जाता है, लेकिन यहाँ का लैंग्वेज सीखने में तुम्हारा नानी मरता है”.

“ए छोकरा ये बातें नेता लोग…

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Added by SUMIT PRATAP SINGH on October 2, 2012 at 11:30am — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बुजुर्ग दिवस के उपलक्ष में

बुजुर्ग दिवस के उपलक्ष में 

सेदोका एक जापानी विधा ३८ वर्ण ५७७५७७

(१)बूढ़ा बदन 

कंपकपाते हाथ 

किसी का नहीं साथ 

लाठी सहारा 

पाँव से मजबूर 

बेटा बहुत दूर 

(२)धुंधली आँखें 

झुर्री  भरा…

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Added by rajesh kumari on October 1, 2012 at 8:56pm — 12 Comments

इस दौर में बेटों के मुक़ाबिल हैं बेटियाँ

अनजान हैं जो कह रहे, जाहिल हैं बेटियाँ

दुनिया में अब हर काम के,  काबिल हैं बेटियाँ



तौरो तरीके बा-अदब, रखना हैं जानती

इस दौर में बेटों के मुक़ाबिल हैं बेटियाँ



कुर्बान खुद को कर रही, उल्फत-ए-मुल्क पर

अब जंग के मैदाँ में भी शामिल हैं बेटियाँ



मौजे तमन्ना गर कोई, तूफाँ खड़ा करें   

जो थाम ले हर मौज वो साहिल हैं बेटियाँ



सबको यहाँ संवारतीं बन बेटी माँ बहन

इंसान की नेकी का ही हाशिल हैं बेटियाँ





संदीप पटेल "दीप"

सिहोरा ,…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on October 1, 2012 at 1:58pm — 12 Comments

इतनी दूर चले जाना था इतनी पास बुलाया क्यों -----------

तुमसे सीखा हंसना मैंने आखिर मुझे रुलाया क्यों ....

इतनी दूर चले जाना था इतनी पास बुलाया क्यों ...



तेरी यादें, ख़त तेरे कुछ केवल बचा खजाने में 

नींदें, दिल का चैन , खो गया तेरे ख्वाब सजाने में

सोना था तो सो जाते तुम नाहक मुझे जगाया क्यों 

इतनी दूर चले जाना था इतनी पास बुलाया क्यों -----------



काँटों पर चलना था चलते, लेकिन तुम भी होते साथ 

जब भी ठोकर गर मैं खाता तुम दे देते अपना हाथ 

वादे ढेरों लेकिन तुमने इक भी नहीं…

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Added by ajay sharma on October 1, 2012 at 12:02pm — 2 Comments

द्रौपदी के हिय की व्यथा सुनेगा कौन यहाँ ,,,,,,,,,

छोटी छोटी बातें बने आस्था के प्रश्न जब ,

बातें बड़ी बड़ी जाने क्यों बिसा र जाते है

अन्नदाता को तो है पिलाते दूध हम किन्तु ,

नौनिहाल देश की प्यासे मर जाते है

द्रौपदी के हिय की व्यथा सुनेगा कौन यहाँ

कृष्ण की चरित्र जब सत्ता की निमित्त हों

कैसे होंगे सीमित दु:शासनों के आचरण

कुंती पुत्र जब आत्मदाह को प्रवत्त हों

कैसे राष्ट्रगान राष्ट्र चिंतन करेगा कोई

पेट को भूख को अंगारे छलते हो मित्र

कैसे होगा देश का भविष्य खुशहाल भला

सड़कों पे जब वर्त्तमान…

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Added by ajay sharma on September 30, 2012 at 11:30pm — 2 Comments

जब वचन निभाने राम चले ....

जब वचन  निभाने राम चले ....
जब वचन  निभाने राम चले ,
संग सिया चली और लखन चले,
दशरथ के प्राणाधार चले ,
कौशल्या के अरमान चले 
जब वचन ......
 
जिस आँगन में खेले राघव ,
घुटनों के…
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Added by shikha kaushik on September 30, 2012 at 9:49pm — 3 Comments

शर्मिंदा हूँ

मनाना तो चाहता हूँ ईद

मगर बंद है

मेरे दिल के दरवाज़े

और ईद का चाँद

मुझे दिखाई नहीं पड़ता

 

दिवाली,दशहरा कैसे मनाऊँ

मेरे अन्दर का रावण

नहीं मरता मुझसे

 

बापू की जयंती है

पर मै

उनसे भी शर्मिंदा हूँ  

मेरे अन्दर हिंसा है

लालच है

मै नहीं मिला पाता

अपनी नज़रें

उनकी तस्वीर से

 

जिन शहीदों ने

जान तक दे दी

हमारी आज़ादी के लिए

हमने उनका सब कुछ लूट…

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Added by नादिर ख़ान on September 30, 2012 at 7:00pm — 5 Comments

लघुकथा :- मोम

“रोहन! अब ये आदत कहाँ से सीख रहा है! रोमी आंटी को नमस्ते क्यों नही किया?” रमेश गुस्से में बोला!

“थॉरी पापा!” रुआंसा आवाज थी रोहन की!

“ह्वाट सॉरी...गलती फिर सॉरी..कोई सॉरी नही मिलेगी!”

“अरे बेटा! अब जाने भी दो! पाँच साल का भी तो नही है ये....” कमरे में बैठे बुज़ुर्ग बोले ही थे कि रमेश बीच में ही बोल पड़ा, “पिताजी, आपको पता है न, मुझे टोक पसंद नही, फिर भी? शांत रहिए!” बुज़ुर्ग चुप हो गए! रमेश बोलता रहा!

अगले दिन! स्कूल में!

“रोहन! बातें नही, इधर ध्यान दो!” टीचर… Continue

Added by पीयूष द्विवेदी भारत on September 29, 2012 at 10:34pm — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३७ (बन्दिश में आके शाइरी कुम्हलाके रह गई )

 

दर पे हमारे शाम इक इठला के रह गई

हमको तुम्हारी दास्ताँ याद आके रह गई

 

बहरोवज़न के खेल भी हमने समझ लिए

बन्दिश में आके शाइरी कुम्हलाके रह गई

 

होना था दिल के टूटने के बाद और क्या

ज़िदमें ही ज़ीस्त ख्वाबको झुठलाके रह गई

 

बेबस हुए कुछ इस तरह किस्मतके हाथ हम

तेरी निगाहेनाज़ भी समझा के रह गई

 

मुझको तिरी बेजारियों का कुछ गिला नहीं

मेरी भी ज़िंदगी अना दिखला के रह गई  

 

गुंचे शगुफ्ता…

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Added by राज़ नवादवी on September 29, 2012 at 10:00pm — 6 Comments

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