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अपनी प्रिया को छोड़ के

अपनी प्रिया को छोड़ के प्रीतम अगर गया |
नन्हा सा कैमरा कहीं चुपके से धर गया ||

आया हमारे मुल्क में व्यापार के लिए
सोने की चिड़िया लेके जाने किधर गया ||

रुपये की खनक गूंजती बाज़ार में अभी
डालर के सामने मगर चेहरा उतर गया ||

बनकर मसीहा गाँव में घूमे जो माफिया ,
दस्खत कराना आज उसका सबको अखर गया ।।

कोयले से आजकल हम दांतों को रगड़ते-
तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया ।।

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Comment

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Comment by रविकर on October 4, 2012 at 8:57am

जी , आदरणीय सौरभ जी -

समय पर तैयार नहीं कर पाया था -

दरअसल गजल अब भी बहुत कम समझ पा रहा हूँ -

तरही मुशायरा का शुक्र-गुजार हूँ-

अभ्यास का मौका मिला -

सादर ।

बहुत बहुत आभार ।।

आदरणीय प्रदीप जी आभार ।।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2012 at 11:16pm

रचना अच्छी है, रविकर जी. 

आखिरी द्विपदी की आखिरी पंक्ति ही पिछले मुशायरे का तरह-मिसरा भी था.

कृपया ध्यान दे...

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