यकीन करॊ,,,,,,,,
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यहाँ भी सब गॊल-माल है,यकीन करॊ !!
सब अपनी-अपनी चाल है,यकीन करॊ !!१!!
उनकॆ स्विस बैंकॊं मॆं, सड़ रहॆ हैं नॊट,
हमारी किस्मत कंगाल है, यकीन करॊ !!२!!
गाँधी कॆ पुजारी ही, जातॆ हैं संसद मॆं,
संसद नहीं वॊ टकसाल है, यकीन करॊ !!३!!
यॆ बजातॆ हैं बैठ कॆ,चैन की बंशी वहां,
यहाँ जनता का बुरा हाल है,यकीन करॊ !!४!!
तरक्की दॆश की, सुहाती नहीं है इनकॊ,
आँख मॆं सुअर का बाल है,यकीन करॊ !!५!!…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 18, 2012 at 2:00pm — 2 Comments
बदलती दुनियां
आज कितनी बदल रही दुनियां
गिर के संभल रही दुनियां
अपनों से दिल की दूरियां बनाकर
गेरो के संग बहल रही दुनियां
चुराकर अपनी ऑखो से हकीकत
भरम के साथ पल रही दुनियां
प्यार की राहों से मुह मोड़कर
साथ नफरत के चल रही दुनिया
जलाकर झूठी आशाओं के चिराग
रौशनी को मचल रही दुनियां
डॉ अजय आहत
Added by Dr.Ajay Khare on December 18, 2012 at 12:45pm — 2 Comments
हरिगीतिका
क्षण मात्र भी बिन कर्म के कोई नहीं रहता कभी
सत्कर्म या दुष्कर्म में ही व्यस्त दीखते हैं सभी
तज स्वत्व व निज स्वार्थ को जो…
ContinueAdded by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on December 18, 2012 at 7:30am — 2 Comments
ट्राई करॊ,,,,,,,,,,,,
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शायद मिल ही जायॆ, लाइन ट्राई करॊ ॥
कभी कर दॆगी दिलपॆ, साइन ट्राई करॊ ॥१॥
मॊबाइल नंबर शायद, पहचानती हॊ वॊ,
पी.सी.ऒ. सॆ डालकॆ, क्वाइन ट्राई करॊ ॥२॥
हॆलॊ हाय बॊलॆ ग़र, बनॆगी बात वरना,
बर्थ-डॆ पार्टी मॆं हॊकॆ, ज्वाइन ट्राई करॊ ॥३॥
मॆहनत का फल भी, मिलॆगा यकीनन,
फ़्रॆन्डसिप,रॊज़ डॆ, वॆलॆन्टाइन ट्राई करॊ ॥४॥
ग़र प्यार मॆं हॊ गई, बद-हज़मी तुम्हॆं,
काला नमक और, अजवाइन ट्राई करॊ ॥५॥
प्यार कॆ चक्कर…
ContinueAdded by कवि - राज बुन्दॆली on December 18, 2012 at 3:30am — 4 Comments
गर सब धुँआ है तो धुआँ रहने दो
अब जो जहां है उसे वहां रहने दो
सभी रिश्ते सुलझ जाएँ तो मजा कैसा
कुछ उलझनें भी तो दरम्याँ रहने दो
हर डगर फूल बिछाए नहीं मिलती
जलजलों में भी ये कारवां रहने दो
रहने वाला ही जब खो गया है कहीं
लापता फिर ये भी आशियाँ रहने दो
ये भी क्या कि तुम ही हर जगह रहोगे
कहीं तो जमीन ओ आसमाँ रहने दो
सहमे लफ़्ज़ों से रिश्ते संभलते कहाँ हैं
हमतुम में अब ये खामोशियाँ रहने दो
-पुष्यमित्र…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 18, 2012 at 12:07am — 2 Comments
चारों तरफ अगर रौशनी का जाल फैला हो मगर इंसान के मन में अँधेरा हो तो शायद एक कदम भी ठीक से नहीं रख सकता. अपनी उलझनों में डूबता उतराता मनुष्य संयम भी खो देता है और परेशानियों के सागर के तल में खुद को खोने लगता है.
ये धर्म गुरु भी ना बस प्रवचन करना जानते हैं और कुछ नहीं , कोई चढ़ावे ना चढ़ाए तब देखो कैसा ज्ञान देते हैं…
Added by SUMAN MISHRA on December 18, 2012 at 12:00am — 2 Comments
बुझाकर दीप नही करते जग रोशन होवत दीप हि से/
हुआ जग रोशन लो उनका उजियार मिला जब दीपक से/
मिटा तम भी मन भीतर का जब दीप जला मन भीतर से/…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on December 17, 2012 at 10:41pm — No Comments
एक तो उसके पिता जी के वकालत के दिनों में ही घर की माली हालत ठीक नहीं थी, तिस पर अचानक हुई उस दुर्घटना ने गरीबी में आटा गीला करने का काम किया। घर-गहने बिका देने वाले इलाज़ ने किसी तरह पिता जी की जान तो बचा ली गई लेकिन उनकी रीढ़ की हड्डी टूटने ने ना सिर्फ उन्हें बल्कि घर की अर्थव्यवस्था को ही अपाहिज बना दिया। खेलने-खाने के दिनों में जब उसने सिर पर घर के छः सदस्यों की जिम्मेवारी को मह्सूस किया तो गेंद-बल्ला सब भूल गया। पढ़ाई के साथ-साथ ही कुछ काम करने के बारे में सोचा। वामन पुत्र था और…
ContinueAdded by Dipak Mashal on December 17, 2012 at 7:47pm — 6 Comments
छू दो तुम.. . / फिर
सुनो अनश्वर !
थिर निश्चल
निरुपाय शिथिल सी
बिना कर्मचारी की मिल सी
गति-आवृति से
अभिसिंचित कर
कोलाहल भर
हलचल हल्की.. .
अँकुरा दो
प्रति विन्दु देह का
लिये तरंगें
अधर पटल पर.. . !
विन्दु-विन्दु जड़, विन्दु-विन्दु हिम
रिसूँ अबाधित
आशा अप्रतिम.. .
झल्लाये-से चौराहे पर
किन्तु चाहना की गति …
Added by Saurabh Pandey on December 17, 2012 at 6:00pm — 29 Comments
समय से परे, अगर जो कभी हम मिले
अलग से ही कुछ नाम से
अलग से ही रंग-रुप में
क्या तुम मुझे पहचान लोगे?
शायद मेरा स्पर्श या हृदय का स्पन्दन अलग हो,
मेरी बोली, मेरी अभिव्यक्ति अलग हो,
मेरा चेहरा या मेरे भाव अलग हो,
क्या तुम मुझे पहचान लोगे?
गर पवन बन मैं छु लूं तुम्हे,
या वृष्टि बन तुम्हारे रोम-रोम को भिगाउँ ,
नीर…
Added by Anwesha Anjushree on December 17, 2012 at 5:00pm — 7 Comments
हास्य कहाँ कहाँ से निकलता है मुझे स्वयं यकीन नहीं होता
अब देखिये
सेठ जी ने सड़क पे पन्नी बीनते बच्चे से संवेदना भरे स्वर में पूछा
क्यूँ सड़क पर बीनते हो पन्नियाँ
मिल नहीं पाती है जब चवन्नियाँ
काम कर लो घर पे मेरे तुम अगर
रोज मिल जाएँगी कुछ अठन्नियां
लड़का बोला
जेब से सबकी चुरा चवन्नियां
हमको दोगे आप कुछ अठन्नियां
चोर के घर काम करना पाप है
उससे बेहतर है उठाना पन्नियाँ
आप भी मेहनत करो अब सेठ…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 17, 2012 at 3:59pm — 7 Comments
“तंत्र को पारदर्शी करो, तंत्र को पारदर्शी करो”। सरकारी दफ़्तर के बाहर सैकड़ों लोगों का जुलूस यही नारा लगाते हुए चला आ रहा था। अंदर अधिकारियों की बैठक चल रही थी। एक अधिकारी ने कहा, “जल्दी ही कुछ किया न गया तो जुलूस लगाने वाले लोग कुछ भी कर सकते हैं”। अंत में सर्वसम्मति से ये निर्णय लिया गया कि तंत्र को पूर्णतया पारदर्शी बना दिया जाय।
कुछ ही दिनों में दफ़्तर की सारी दीवारें ऐसे शीशे की बनवा दी गईं जिससे बाहर की रोशनी अंदर न आ सके लेकिन अंदर की रोशनी बाहर जा सके। अब दफ़्तर का सारा काम काज…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 17, 2012 at 3:25pm — 14 Comments
हे ! शुभा तुम बहुत सुंदर हो , तुम्हें फुर्सत में बैठकर उस ऊपर वाले ने बनाया है, इंशा अल्लाह आँखें कितनी सुंदर हैं, ये सब सुनते समझते शुभा उम्र की दहलीज धीरे धीरे पार कर रही थी, ऊपर से जितनी चंचल और शोख अन्दर से कही बहुत शांत बिलकुल झील की सतह की तरह.
उसकी छोटी बहन की शादी की तैयारियां चल रही हैं शुभा ने अपनी सबसे प्रिय दोस्त सुप्रिया से बताया -क्यों ? वो तो सुंदर भी…
ContinueAdded by SUMAN MISHRA on December 17, 2012 at 2:30pm — 6 Comments
एक और ग़ज़ल पेश -ए- महफ़िल है,
इसे ताज़ा ग़ज़ल तो नहीं कह सकता, हाँ यह कि बहुत पुरानी भी नहीं है
गौर फरमाएँ
खूब भटका है दर-ब-दर कोई |
ले के लौटा है तब हुनर कोई |
अब पशेमां नहीं बशर कोई…
Added by वीनस केसरी on December 17, 2012 at 4:17am — 12 Comments
आज चांदनी नहीं अन्धेरा
खतम हुआ सूरज का फेरा
आधा अधूरा चाँद ना आया
राह पे तम ने जाल विछाया
स्वेद बूँद बस मोती छलका
कदम थका तो ख़तम प्रहर था
कांटे विछे या पुष्प सुरभि हो
मलय तेज या…
Added by SUMAN MISHRA on December 17, 2012 at 12:30am — 4 Comments
अनुपम अद्दभुत कलाकृति है या द्रष्टि का छलावरण
जिसे देख विस्मयाभिभूत हैं द्रग और अंतःकरण
त्रण-त्रण चैतन्य औ चित्ताकर्षक रंगों का ज़खीरा
पहना सतरंगी वसन शिखर को कहाँ छुपा चितेरा
शीर्ष पर बरसते हैं रजत,कभी स्वर्णिम रुपहले कण
जिसे देख विस्मयाभिभूत हैं आँखें और अंतःकरण…
Added by rajesh kumari on December 16, 2012 at 10:30pm — 11 Comments
फिरि आवत जावत जाकर आवत, आवत है ऋतु ठंड कि ये पुनि/
फिरि सुर्य छिपा अरु धुंध बढ़ी, बदली दिखती नभ में बिछि ये पुनि/
सब लोग लिए कर कंपन कुम्पन, तांक रहे नभ में रवि को पुनि/
अरु सुर्य लगे धरती पर से, निकला सुबहा नभ में शशि है पुनि//
Added by Ashok Kumar Raktale on December 16, 2012 at 9:16pm — 3 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 16, 2012 at 2:25pm — 2 Comments
एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ ...... गुरुजनों से अनुरोध है कृपया मार्गदर्शन किजिए
चांदनी आज फिर विदा होगी
रोशनी आज फिर फना होंगी
जब कभी रंग रोशनी होंगे
आपके हाथ में हिना होगी
दर्द दे आज फिर हमें मौला
दर्द की आज इन्तहा होगी
हो गया एक नज़्म का सौदा
शायरी देख कर खफा होगी
चूम लों आँख, सोख लों…
Added by अमि तेष on December 16, 2012 at 1:30pm — 9 Comments
याद में तेरी जिऊँ, मैं आज में जीता नहीं,
लड़खड़ाते पांव मेरे, जबकि मैं पीता नहीं,
नाज़ नखरे रख रखें हैं, आज भी संभाल के,
मैं नहीं इतिहास फिरभी, सार या गीता नहीं,…
Added by अरुन 'अनन्त' on December 16, 2012 at 12:59pm — 10 Comments
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