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लघुकथा: नाक और पेट

एक तो उसके पिता जी के वकालत के दिनों में ही घर की माली हालत ठीक नहीं थी, तिस पर अचानक हुई उस दुर्घटना ने गरीबी में आटा गीला करने का काम किया। घर-गहने बिका देने वाले इलाज़ ने किसी तरह पिता जी की जान तो बचा ली गई लेकिन उनकी रीढ़ की हड्डी टूटने ने ना सिर्फ उन्हें बल्कि घर की अर्थव्यवस्था को ही अपाहिज बना दिया। खेलने-खाने के दिनों में जब उसने सिर पर घर के छः सदस्यों की जिम्मेवारी को मह्सूस किया तो गेंद-बल्ला सब भूल गया। पढ़ाई के साथ-साथ ही कुछ काम करने के बारे में सोचा। वामन पुत्र था और देखने-सुनने में भी ठीक था सो ज्यादा भाग-दौड़ न करनी पड़ी, कस्बे की प्रमुख रामलीला में राम की मूर्ति (पात्र) के लिए उसका चयन हो गया। वह खुश था कि चलो कुछ दिनों के लिए तो गुज़ारे का प्रबंध हो गया।
महीने भर की रामलीला में उसने आगे के कुछ महीनों के लिए बचत कर ली। ऊपर से रामलीला समिति ने रामलीला के दौरान उसके द्वारा पहना गया चांदी का मुकुट भी उसे उपहार में दे दिया। पर अगले महीनों में कुछ और काम न मिला। किस्मत की बात कि उसके मोहल्ले में होने वाली एक दूसरी छोटी रामलीला के लिए भी उसके पास राम बनने का प्रस्ताव आया। उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
जब यह खबर प्रमुख रामलीला के आयोजकों तक पहुँची तो यह उन्हें नागवार गुज़रा। आयोजन समिति के महामंत्री ने आकर उसे समझाया
- देखो नासमझी मत दिखाओ, आप एक बार चांदी में पुज चुके हो अब गिलट(के मुकुट) में कैसे पुज सकते हो भला? यह हमारी नाक का सवाल है, उनकी पेशगी लौटा दो, वो कोई नया लड़का ढूंढ लेंगे।
- मगर मैं इस स्थिति में नहीं कि इस प्रस्ताव को नकार सकूँ। यह मेरे पूरे परिवार के पेट का भी सवाल है।
- मुझे समिति ने जो कहने को कहा था सो मैंने कह दिया, इतना बताये देता हूँ कि यहाँ मूर्ति बन गए तो अगली बार हमारे यहाँ दोबारा मौका नहीं मिलेगा। अच्छे से सोच-विचार कर लो। अब चलता हूँ, जय सियाराम।
कुछ दिन पहले जो सारे कस्बे के लिए राम था, अब वो असल जीवन में नाक और पेट के युद्ध में फंसा था, न लक्ष्मण साथ थे और न हनुमान।

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Comment by Shubhranshu Pandey on December 18, 2012 at 6:30pm

राम बेचारे, काम के मारे, अब् किसके सहारे, अब न लखन ना हनुमान रे......

बधाई...

Comment by Dipak Mashal on December 18, 2012 at 6:13pm

आदरणीय सौरभ जी, आपकी बात से इत्तेफाक रखता हूँ, इस लघुकथा को सुधारने का प्रयास करूंगा। आभार 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 18, 2012 at 11:16am

बहुत अच्छी लघुकथा है दीपक जी। समाज का एक कड़वा सच।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 18, 2012 at 10:10am

नाक और पेट की जंग को सुन्दर पात्रों के साथ प्रस्तुत किया है,मानस पटल पर पूरा चित्र खींचने में सक्षम यह लघुकथा, सुप्त विचारों पर प्रहार करती है. हार्दिक बधाई इस सुन्दर लघु कथा के लिए.

Comment by वीनस केसरी on December 18, 2012 at 1:23am

ऊंची नाक वाले लोगों को पिचके हुए पेट नहीं दीखते .....

लघु कथा ने देर तक़ और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया ......


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 17, 2012 at 11:22pm

’शरीर भर राम था’ या ’शरीर में राम था’ के ऊहापोह से गुजरने को न्यौतती यह कथा पाठकों के सामने व्यावहारिक सीमाओं और सामाजिक विद्रुपताओं को एक साथ झन्नाटे से पटक देती है. कथा के पात्रों के स्तर पर भूख और निवाले की सनातन लड़ाई में जबकि जीतना भूख को चाहिये, अक्सर निवाला जीतता रहा है, पेट को ठेंगा दिखाता हुआ ! पेट बेचारा बरबस भूख की उंगलियाँ थामे निवाले के सामने निरुपाय दिखा है.

बढिया तथ्य पर बेहतर कथा. यों कथ्य में थोड़ी और कसावट संप्रेषणीयता को सान्द्र करती हो्ती. 

बधाई और शुभकामनाएँ .. .

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