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गणतंत्र दिवस गीत

जय भारत के लोगों की 

जय भारत देश महान की 

जय जय जय गणतंत्र दिवस की

जय जय संविधान की

जय जय जय जय हिंद

अपनी धुनें बनाई हमने अपना राग बनाया था 

जिसमें समता, न्याय, आजादी का संकल्प समाया था 

एक अखंडित राष्ट्र के लिए गरिमा भाईचारा से 

हमने अपने गीत लिखे थे हमने खुद को गाया था 

जय लिक्खी संप्रभुता की जय लोकतंत्र कल्याण की 

जय जय जय गणतंत्र दिवस की

जय जय संविधान की

जय जय जय जय हिंद 

सूत कातते…

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Added by आशीष यादव on January 25, 2022 at 11:15pm — 3 Comments

ऐ सरहद पर मिटने वाले...(मुसल्सल ग़ज़ल)

22 22 - 22 22 - 22 22 - 22 2

ऐ  सरहद पर  मिटने वाले  तुझ में  जान  हमारी है        

इक तेरी  जाँ-बाज़ी  उनकी  सौ जानों  पर भारी है 

अपने वतन की मिट्टी हमको यारो जान से प्यारी है

ख़ाक-ए-वतन बेजान नहीं ये इस में जान हमारी है

एक …

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 25, 2022 at 4:37pm — 6 Comments

साल पचहत्तर बाद

कैसे अपने देश की
नाव लगेगी पार?
पढ़ा रहे हैं जब सबक़
राजनीति के घाघ

जिनके हाथ भविष्य की
नाव और पतवार
वे युवजन हैं सीखते
गाली के अम्बार

अपने को कविवर समझ
वाणी में विष घोल
मानें बुध वह स्वयं को
उनके बिगड़े बोल

वेद , पुराण, उपनिषद
सत्य सनातन भाष्य
समझ सके न आज भी

साल पचहत्तर बाद

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on January 24, 2022 at 10:18am — 4 Comments

दोहा त्रयी. . . . . .राजनीति

दोहा त्रयी : राजनीति

जलकुंभी सी फैलती, अनाचार  की बेल ।
बड़े गूढ़ हैं क्या कहें, राजनीति के खेल ।।

आश्वासन के फल लगे, भाषण की है बेल ।
राजनीति के खेल की , बड़ी अज़ब है रेल ।।

राजनीति के खेल की, छुक- छुक करती रेल।
डिब्बे बदलें पटरियां, नेता खेलें खेल ।।

सुशील सरना / 23-1-22

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on January 23, 2022 at 3:50pm — 8 Comments

ग़ज़ल (क़वाफ़ी चंद और अशआर कहने हैं कई मुझको)

1222 - 1222 - 1222 - 1222 

क़वाफ़ी चंद और अशआर कहने हैं कई मुझको

चुनौती दे रहे हैं चाहने वाले नई मुझको 

ये किसने दिलकी चौखट पर ज़बीं ख़म करके रख दी है 

अक़ीदत की मिली है ये इबारत इक नई मुझको 

चले आओ ख़ुतूत-ओ-फ़ोन से ये दिल न बहलेगा 

कि तुम से रू-ब-रू करनी हैं अब बातें कई मुझको 

हवाओं में घुली है फिर वो ख़ुशबू जानी-पहचानी 

सुनाई दी अभी आवाज़ उसकी वाक़ई मुझको 

तेरे पैकर की गर्मी से पिघलता है…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 23, 2022 at 1:41pm — No Comments

ग़ज़ल नूर की- ज़ुल्फ़ों को ज़ंजीर बना कर बैठ गए

.

ज़ुल्फ़ों को ज़ंजीर बना कर बैठ गए

किस किस को हम पीर बना कर बैठ गए.

.

यादें हम से छीन के कोई दिखलाओ

लो हम तो  जागीर बना कर बैठ गए.  

.

दुनिया की तस्वीर बनानी थी हम को

हम तेरी तस्वीर बना कर बैठ गए.  

.

मौक़ा रख कर भेजा था नाकामी में

आप जिसे तक़दीर बना कर बैठ गए.

.

मैंने कॉपी में इक चिड़िया क्या मांडी

दुनिया वाले तीर बना कर बैठ गए.

.

चलती फिरती मूरत देख के हम नादाँ

मंदिर की तामीर बना कर बैठ गए.

.

हँसते…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on January 23, 2022 at 9:02am — 2 Comments

ग़ज़ल (तुझे है जीतने की धुन तो ये इक़रार ले पहले)

1222 - 1222 - 1222 - 1222

तुझे  है जीतने  की  धुन तो ये  इक़रार ले पहले

न  हारेगा  कभी भी तू  किसी भी हार  से पहले 

अगर  कुंदन  के जैसा  चाहता है तू चमकना तो

ज़रा शो'लों के दरियासे तू  ख़ुद को तारले पहले 

हवाओं की तरह आज़ाद बहना अच्छा लगता है 

तो परवा छोड़  दुनिया की  ज़रा रफ़्तार ले पहले 

फ़रिश्तों  की तरह  मासूम होना है तेरी ख़्वाहिश

इताअत में तू रब की इस ख़ुदी को मार ले पहले  

तुझे महताब…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 21, 2022 at 3:47pm — No Comments

दोहा त्रयी .....

दोहा त्रयी...

दुख के जंगल हैं घने , सुख की छिटकी धूप ।
करम पड़ेंगे भोगने , निर्धन हो या भूप ।।

धन वैभव संसार का, आभासी शृंगार ।
कभी  कहकहे जीत के, कभी मौन की हार ।।

विदित वेदना शूल की, विदित पुष्प की गंध ।
सुख-दुख दोनों जीव की, साँसों के अनुबंध ।।


सुशील सरना / 20-1-22

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on January 20, 2022 at 1:00pm — 5 Comments

शिशिर के दोहे -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

ठण्ड कड़ाके की पड़े, सरसर चले समीर।

नित्य शिशिर में सूर्य का, चाहे ताप शरीर।१।

*

दिखे शिशिर में जो नहीं, गजभर दूरी पार।

लगता  धरती  से  हुआ, अम्बर  एकाकार।२।

*

धुन्ध लपेटे भोर तो, विरहन जैसी साँझ।

विधवा लगते वृक्ष हैं, धरती लगती बाँझ।३।

*

घना कुहासा ढब घिरे, झरे हवा से नीर।

बदली जैसी भीत भी, धूप न पाये चीर।४।

*

देती है हिम खण्ड सा, शीतलहर अहसास।

चन्दा जैसा दीखता, सूर्य  क्षितिज के पास।५।

*

हुए वृक्ष सब काँच से, हिम की ओढ़…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 19, 2022 at 7:16am — 4 Comments

ग़ज़ल (जिसको हुआ गुमाँ कि 'ख़ुदा' हो गया है वो)

2212 1211 2212 12

जिसको हुआ गुमाँ कि 'ख़ुदा' हो गया है वो 

रुस्वाई के भंवर में तो ख़ुद जा गिरा है वो

अच्छा भला था 'ख़ुल्द' में 'इब्लीस' हो गया 

झूठी अना की शान को मुन्किर हुआ है वो 

हद से ज़ियाद: ख़ुद पे भरोसे का ये हुआ

थूका जो आस्मान पे मुँह पर गिरा है वो

मिट्टी जो फेंकी चाँद पे मैला नहीं हुआ 

करनी पे अपनी ख़ुद ही तो शर्मा रहा है वो

थोड़ी सी धूप के लिये था जो रवाँ-दवाँ

सूरज को ले के…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 17, 2022 at 11:38am — 9 Comments

ग़ज़ल: हर इक दिन इन फ़ज़ाओं में नई अल्बम लगाता है

1222 1222 1222 1222

हर इक दिन इन फ़ज़ाओं में नई अल्बम लगाता है

कोई तो है हरी सी घास पर शबनम लगाता है

कहीं सुनता नहीं महफ़िल में भी अब दर्द ए दिल कोई

किसे आवाज वीराने में तू हमदम लगाता है

अज़ब है वाक़िया या रब अज़ब साकी मिला दिल को

नमक ज़ख़्मों पे दिल के किस क़दर पैहम लगाता है

धुआँ होकर निकलती हैं ये साँसें दिल के अंदर से

किसी की याद में दिल दम व दम फिर दम लगाता…

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Added by Aazi Tamaam on January 15, 2022 at 3:00pm — No Comments

मकर संक्रांति के दोहे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

आया है जन पर्व जो, मकर संक्रांति आज।

गंगा तट पर सब  जुटे, छोड़  सकारे काज।१।

*

आज उत्तरायण हो चले, मकर राशि पर सूर्य।

हर घाट शंखनाद  अब, बजता  चहुँदिश तूर्य।२।

*

निशा घटे बढ़ते दिवस, बढ़ता सूर्य प्रकाश।

भर देते हैं इस  दिवस, कनकौवे  आकाश।३।

*

विविध प्रांत, भाषा यहाँ, भारत देश विशाल।

विविध पर्व भी हैं  मगर, मनें  सनातन चाल।४।

*

गंगा में डुबकी  लगा, करते हैं सब स्नान।

करते पाने पुण्य फिर, अन्न धन्न का दान।५।

*

कहो मकर संक्रांत…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 14, 2022 at 10:39am — 3 Comments

ग़ज़ल (हँसी में उनकी हमने वो छुपा ख़ंजर नहीं देखा )

1222 - 1222 - 1222 - 1222 

हँसी में उनकी हमने वो छुपा ख़ंजर नहीं देखा 

हसीं मंज़र ही देखा था पस-ए-मंज़र नहीं देखा 

वो जैसा उनको देखा है कोई दिलबर नहीं देखा 

हसीं तो ख़ूब देखे हैं रुख़-ए-अनवर नहीं देखा 

ज़माने में कहीं तुम सा कोई ख़ुद-सर नहीं देखा 

सितमगर तो कई देखे मगर दिलबर नहीं देखा

वो मेरे ज़ाहिरी ज़ख़्मों को मुझसे पूछते हैं क्या 

दिवानों ने कभी दिल में चुभा नश्तर नहीं देखा 

जो कहते थे…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 13, 2022 at 6:03pm — 8 Comments

इस जग में दाता बता. . . . दोहे

इस जग में दाता बता .....दोहे

इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।

बहता हो जिस तीर पर, बिना दर्द का नीर ।।

इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।

मिल जाए जिस घाट पर, सुख का थोड़ा नीर ।।

इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।

मिट जाए जिस तीर पर, जग की सारी पीर ।।

इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।

राँझे से आकर मिले, उसकी बिछुड़ी हीर ।।

इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।

जहाँ बने बिगड़ी हुई, बन्दों की तकदीर…

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Added by Sushil Sarna on January 13, 2022 at 1:12pm — 1 Comment

ग़ज़ल: आख़िरश वो जिसकी खातिर सर गया

2122 2122 212

आख़िरश वो जिसकी ख़ातिर सर गया

इश्क़ था सो बे वफ़ाई कर गया

आरज़ू-ए-इश्क़ दिल में रह गई

जुस्तजू-ए-इश्क़ से दिल भर गया

दिल की दुनिया दर्द का बाजार है

दर-ब-दर…

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Added by Aazi Tamaam on January 13, 2022 at 12:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल नूर की- कहीं ये उन के मुख़ालिफ़ की कोई चाल न हो

.

कहीं ये उन के मुख़ालिफ़ की कोई चाल न हो

सो चाहते हैं कि उन से कोई सवाल न हो.

.

कोई फ़िराक़ न हो और कोई विसाल न हो

उठे वो मौज कि अपना हमें ख़याल न हो.   

.

तेरी तलब में हमें वो मक़ाम पाना है

कि लुट भी जाएँ तो लुट जाने का मलाल न हो.

.

हमें सफ़र जो ये बख़्शा है क्या बने इसका

न हो उरूज अगर इस में या ज़वाल न हो.

.

बशर न हो तो ख़ुदा भी न हो जहाँ में कोई 

न हो जहाँ में ख़ुदा तो कोई वबाल न हो.

.

मैं चाहता हूँ ये दुनिया वहाँ…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on January 12, 2022 at 9:00am — 4 Comments

ग़ज़ल: लिखें हिंदी कहें हिंदी पढ़ें हिंदी जहाँ हिंदी

1222 1222 1222 1222

लिखें हिंदी कहें हिंदी पढ़ें हिंदी जहाँ हिंदी

अगर है हिंद की संतान फिर बोले यहाँ हिंदी

बताता छंद चौपाई है पिंगल शास्त्र अपना क्या

हमारे देश की यह मात्र भाषा है रवाँ हिंदी

सिखाया पाठशाला में है इसकी संस्कृत जननी

वतन का नाम हिंदोस्तान हमारा कारवाँ हिंदी

यही है ध्येय चारो ओर इसका ध्वज भी लहराये

हमारे देश के हर प्रांत में गूंजे सदाँ हिंदी

न शर्मायें विदेशों में कभी हिंदी अगर…

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Added by Deepanjali Dubey on January 10, 2022 at 4:30am — 2 Comments

मेरे पिता मेरा गर्व  - लघुकथा -

मेरे पिता मेरा गर्व  - लघुकथा - 

सुरेखा जी समाज शास्त्र की अध्यापिका होने के कारण   सातवीं कक्षा के बच्चों को "सामाजिक स्तर" क्या होता है। इस विषय पर पढ़ा रहीं थीं। कुछ छात्र सही तौर पर समझ नहीं पा रहे थे। अतः सुरेखा जी ने सभी छात्रों को…

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Added by TEJ VEER SINGH on January 8, 2022 at 1:00pm — 6 Comments

मैं पुलिस हूँ (पुलिस गीत) : आशीष यादव

मैं पुलिस हूँ 

मैं पुलिस हूँ, मित्र हूँ 

मैं आपका ही प्यार हूँ 

आपकी खातिर खड़ा हूँ

आपका अधिकार हूँ 

मैं पुलिस हूँ 

शपथ सेवा की उठाया हूँ करूँगा आमरण 

धीर साहस के लिए मैंने किया वर्दी-वरण 

जुल्म-अत्याचार से चाहे प्रकृति की मार से

रात-दिन रक्षा करूँगा आपका बन आवरण 

मैं अहर्निश कमर कसकर 

वेदना में भी विहँसकर 

कर्म को तैयार हूँ

मैं पुलिस हूँ 

मैं पुलिस…

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Added by आशीष यादव on January 5, 2022 at 9:23am — 4 Comments

दोहा सप्तक -६( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

रह कर अपनी मौज में, बहना  नित चुपचाप

सीख सिन्धु से सीख ये, जीवन पथ को नाप।।

*

जन सम्मुख जो दे रहे, आपस में अभिशाप

सत्ता को करते  मगर, वो  ही  भरत मिलाप।।

*

शासन  भर  देते रहे, जनता  को सन्ताप

सत्ता बाहर बैठ अब, करते बहुत विलाप।।

*

बचपन से ही बन रहे, जो गुण्डों की खाप

राजनीति की छाँव में, रहे नोट नित छाप।।

*

दुख वाले घर द्वार पर, सुख देता जब थाप

उड़ जाते  हैं  सत्य  है, बनकर  आँसू भाप।।

*

कह लो  चाहे  तो  बुरा, चाहे अच्छा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 4, 2022 at 8:47pm — 8 Comments

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"आ. अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, मेरी सारछंद प्रस्तुति आपको सार्थक, उद्देश्यपरक लगी, हृदय से आपका…"
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"आ. प्रतिभा पाण्डे जी, आपको मेरी प्रस्तुति पसन्द आई, आपका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।"
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"हार्दिक आभार आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी"
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"हार्दिक आभार आदरणीय "
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"आदरणीय अखिलेश जी उत्साहवर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार। "
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"आ. प्रतिभा बहन, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 159 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। चित्रानुरूप उत्तम छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
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"आदरणीय प्रतिभा पांडे जी, निज जीवन की घटना जोड़ अति सुंदर सृजन के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।"
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Dayaram Methani replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 159 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश कृष्ण जी, सार छंद में छन्न पकैया का प्रयोग बहुत पहले अति लोकप्रिय था और सार छंद की…"
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