स्वागत करो बसंत का, अब.. अनंग दरवेश।
बदन..सुलगने ..हैं लगे, खिल उठा परिवेश ।।
रथ सवार सूरज हुआ, बढ़ती ..आँगन ..धूप।
मकरंद बसा प्राण में, प्रतिपल प्रिया अनूप ।।
अलसाया सी डाल पर, उतर ..पड़ी है.. धूप।
कलियाँ मुस्काने लगीं, जगमग गाँव अनूप ।।
गंधायी ..अब है ..हवा, खिलने.. लगे.. प्रसून।
गश्त बढ़ गई भ्रमर की, कली लाल सी खून ।।
मौलिक व अप्रकाशित
प्रोफ. चेतन प्रकाश…
ContinueAdded by Chetan Prakash on February 8, 2022 at 9:22am — No Comments
आहट की संभावना, करवट का आभास,
पुलक देह ने भर छुअन, लिया मुग्ध उच्छ्वास
नस-नस झंकृत राग-लय, तन-तन लहर गुँजार
बासंती मनमुग्ध को, प्यार प्यार बस प्यार !
पता नहीं किस ठौर से, आयी अल्हड़ भोर
तन मन से बेसुध मगर, मुग्ध नयन की कोर
तन्वंंगी अल्हड़ लता, बैठी उचक मुँडेर
खेल रही है धूप में, बासंती सुर टेर ।
***
Added by Saurabh Pandey on February 5, 2022 at 12:00pm — 11 Comments
शुक्ल पंचमी माघ की, लायी यह संदेश
सजधज साथ बसंत के, बदलेगा परिवेश।।
*
कुहरे की चादर हटा, लगी निखरने धूप
दुल्हन जैसा खिल रहा, अब धरती का रूप।।
*
डाल नये परिधान अब, दिखे नयी हर डाल
हर्षित इस से सज रही, भँवरों की चौपाल।।
*
तरुण हुईं हैं डालियाँ, कोंपल हुई किशोर
उपवन में उल्लास है, अब तो चारो ओर।।
*
गुनगुन भँवरों ने कहे, स्नेह भरे जब बोल
मार ठहाका हँस पड़ी, कलियाँ घूँघट खोल।।
*
नहीं उदासी से …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 5, 2022 at 9:00am — 8 Comments
221 2121 1221 212
अब आदमी में जोश का ज़ज्बा नहीं रहा
मौसम बहार का वो सुहाना नहीं रहा
हमको तुम्हारा तो सहारा नहीं रहा
वो दर्द ज़िन्दगी का अपना नहीं रहा
उम्मीद कब रही हमें इस ज़ीस्त से कभी
मंज़िल का जाँ कभी भी वो चहरा नहीं रहा
कोशिश बहुत की कोई हमदम कहाँ हुआ
इक दोस्त न मिला कभी साया नहीं रहा
धोका मिला जहाँ हमें वुसअत के नाम पर
सुन दोस्त ज़िन्दगी का निशाना नहीं…
ContinueAdded by Chetan Prakash on February 3, 2022 at 7:00pm — 1 Comment
तेरे मेरे दोहे :
दंतहीन मुख पोपला, हुए दृष्टि से सूर ।
शक्तिहीन काया हुई, चलने से मजबूर ।।
दंतहीन मुख पोपला, दृष्टि से लाचार ।
देख -देख मिष्ठान को, मुख से टपके लार ।।
लघु शंका बस में नहीं, मुख से टपके लार ।
बदला सा लगने लगा , अपनों का व्यवहार ।।
काया का सूरज ढला, ढली श्वास की शाम ।
दूर क्षितिज पर साँझ की, लाली करे प्रणाम ।।
काया साँसों से चले ,चले कर्म से नाम ।
चंचल मन के अश्व की, वश में रखो…
Added by Sushil Sarna on February 3, 2022 at 3:00pm — 10 Comments
2122-1122-22/112
झूठ बोले हैं न जाने कितने
उसको आते हैं बहाने कितने (1)
मैं किसी से भी तो नाराज नहीं
आ गए लोग मनाने कितने (2)
अब भी लोगों के नई दुनिया में
हैं ख़यालात पुराने कितने (3)
एक भी लफ़्ज मुझे याद नहीं
याद आते हैं वो गाने कितने (4)
घर जला कोई बुझाने न गया
आ गए आग लगाने कितने (5)
साथ आया न निभाने कोई
रस्म आएंँगे निभाने कितने (6)
अब कहीं पर तू ठहर जा…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on February 3, 2022 at 9:33am — 4 Comments
उम्र गँवा दी लोमड़ी, उछल- कूद वनवास।
ईश साधना की नहीं, भजन हुआ सन्यास।।
दोहा कवि को साध्य है, मूर्ख सदैव असाध्य।
लंगड़ी जब भी मारता, गिरता ठोकर खाय।।
काव्य - धर्म है साधना, प्राण बसे मम आग ।
साधू - संगति चाहिए , तुलसी सम अनुराग।।
काव्य - कर्म जागृति जगत, हास्य-व्यंग्य है राग।
कविता - गंगा है सदा, नवरस का अनुराग।।
काव्यशास्त्र विलास कवि, पंडित को ही साध्य।
तप - काव्य विरल भाव…
ContinueAdded by Chetan Prakash on February 1, 2022 at 6:30pm — 5 Comments
आज भी भैया-भाभी उसे मनाने आ गए।
बिन्नी चार महीने पूर्व ही ब्याही गई थी। मात्र चार दिन ही साथ रह पाई कि बुलावा आ गया था। मेंहदी का रंग फीका न हुआ था, पाँवों का महावर भी टुह-टुह लाल था, उसने पति के भाल पर लाल तिलक लगा फ्रंट पर भेजा था।
उनके जाने के बाद घर उसका, वह घर की होकर रह गई थी।
फौजी की बेहद कर्मठ ब्याहता उसकी बाँसुरी को हर समय साथ रखती। बाँसुरी दोनों के बीच एक डोर की तरह थी।
"इसे कभी न छोड़ना। जहाँ भी रहूँगा, मैं तेरा रहूँगा। और तू मेरी। है न? रहेगी न?"
"चल…
Added by Anita Rashmi on January 31, 2022 at 7:00pm — No Comments
Added by Hiren Arvind Joshi on January 31, 2022 at 8:29am — No Comments
हार का हाहाकार .....
ऐसा क्यों हो कि मेरी हार हो
लाख सच की मनुहार हो
आँखें बंद कर लूँ न ?
कह दूँ यह बहार नहीं
चाहे खूब हाहाकार हो....!
पर मेरी जय जयकार हो !
कह दूँ, वो मेरी माँ नहीं है
मैं उसका जाया नहीं हूँ,
बाप को पहले ही मार चुका हूँ
सच का हिसाब चुकता कर चुका हूँ
हरकारे एक नहीं कई, मेरे पास हैं ही.....
होने दो हल्ला....खूब खाओ गल्ला...
पर नाहक सच मत बोलो यार
झूठा हूँ…
ContinueAdded by Chetan Prakash on January 30, 2022 at 5:00pm — No Comments
सलाह ...(लघुकथा )
"बाबू जी, बाबू जी । बच्चा भूखा है । कुछ दे दो ।"
एक भिखारिन अपने 5-6 माह के बच्चे को अस्त-व्यस्त से कपड़ों में दूध पिलाते हुए गिड़गिराई ।
" क्या है , काम क्यों नहीं करती । भीख मांगते हुए शर्म नहीं आती क्या । जब बच्चे पाले नहीं जाते तो पैदा क्यों करते हो ।" राहुल भिखारिन को डाँटते हुए बोला ।
"आती है साहब बहुत आती है भीख मांगने में नहीं बल्कि काम करने में आती है ।" भिखारिन ने कहा ।
"क्यों ?" राहुल ने पूछा ।
"साहब ,आप जैसे ही…
ContinueAdded by Sushil Sarna on January 30, 2022 at 4:39pm — 6 Comments
गज़ल
2122 2122 2122 212
आजकल हर बात पर लड़ने लगा है आदमी,
क्रोध के साये तले पलने लगा है आदमी।
चाह झूठी शान की अब बढ़ गई है बहुत ही,
इस लिये बेचैन सा रहने लगा है आदमी।
आग हिंसा की बहुत झुलसा रही है देश को,
खूब धोखा दल बदल करने लगा है आदमी।
धन कमाया पर बचाया कुछ नहीं अपने लिये,
अब बुढ़ापे में छटपटाने लगा है आदमी।
जिन्दगी भर झगड़ने से क्या मिला इंसान को,
देख ’’मेठानी‘‘ बहुत रोने लगा है आदमी।
मौलिक…
ContinueAdded by Dayaram Methani on January 30, 2022 at 12:16pm — 2 Comments
Added by Hiren Arvind Joshi on January 29, 2022 at 10:00pm — No Comments
मन्थन कर के सिन्धु का, बँटवारे में कन्त
राजनीति को क्यों दिए, बहुत विषैले दन्त।१।
*
दुख को तो विस्तार है, सुख में लगा हलन्त
ऐसी हम से भूल क्या, कुछ तो बोलो कन्त।२।
*
वैसे कुछ तो बाल भी, कहते सत्य भदन्त
मन छोटी सी कोठरी, बातें रखे अनन्त।३।
*
आया है उत्कर्ष का, यहाँ न एक बसन्त
केवल पतझड़ में जिये, यूँ जीवन पर्यन्त।५।
*
सुख तो मुर्दा देह सा, केवल दुख जीवन्त
जाने किस दिन आ स्वयं, ईश करेंगे अन्त।४।
*
कहलाने की होड़ में,ओछे लोग…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2022 at 8:43pm — 2 Comments
2122 - 2122 - 2122 - 212
मुझको पहलू में सुला लेना मेरे प्यारे वतन
अपने आँचल की हवा देना मेरे प्यारे वतन
आ रहा हूँ तुझसे मिलने जंग के मैदान से
अपनी बाहों में उठा लेना मेरे प्यारे वतन
आ मिलूंगा जब तुझे मैं बाज़ुओं में लेके तू
मुझको झूला भी झुला देना मेरे प्यारे वतन
प्यार करना माँ के जैसे चूमकर माथा मेरा
मुझको सीने से लगा लेना मेरे प्यारे वतन
ख़ाक अपनी तेरे क़दमों छोड़ जाता हूँ…
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 27, 2022 at 4:40pm — 2 Comments
2122 2122 2122 212
वक्त इतना भी कठिन कब है,ज़रा महसूस कर।
एक रोशन दिन की ये शब है,ज़रा महसूस कर।
खुद को तन्हा कहना तेरी भूल है, इतना समझ
हर कदम साथी तेरा रब है,ज़रा महसूस कर।
मिल ही जाएगी तेरी मंज़िल अगर चलता रहा
रास्ता थोड़ा सा ही अब है,ज़रा महसूस कर।
तू नहीं पहला बशर है ठोकरों की चोट में,
सालों से चलने का ये ढब है ज़रा महसूस कर।
बेबसी, मायूसियाँ,नाक़ामियाँ, रुसवाईयाँ,
जिंदगी की ये ही तो…
Added by मनोज अहसास on January 26, 2022 at 11:00pm — 2 Comments
जय भारत के लोगों की
जय भारत देश महान की
जय जय जय गणतंत्र दिवस की
जय जय संविधान की
जय जय जय जय हिंद
अपनी धुनें बनाई हमने अपना राग बनाया था
जिसमें समता, न्याय, आजादी का संकल्प समाया था
एक अखंडित राष्ट्र के लिए गरिमा भाईचारा से
हमने अपने गीत लिखे थे हमने खुद को गाया था
जय लिक्खी संप्रभुता की जय लोकतंत्र कल्याण की
जय जय जय गणतंत्र दिवस की
जय जय संविधान की
जय जय जय जय हिंद
सूत कातते…
ContinueAdded by आशीष यादव on January 25, 2022 at 11:15pm — 3 Comments
22 22 - 22 22 - 22 22 - 22 2
ऐ सरहद पर मिटने वाले तुझ में जान हमारी है
इक तेरी जाँ-बाज़ी उनकी सौ जानों पर भारी है
अपने वतन की मिट्टी हमको यारो जान से प्यारी है
ख़ाक-ए-वतन बेजान नहीं ये इस में जान हमारी है
एक …
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 25, 2022 at 4:37pm — 6 Comments
कैसे अपने देश की
नाव लगेगी पार?
पढ़ा रहे हैं जब सबक़
राजनीति के घाघ
जिनके हाथ भविष्य की
नाव और पतवार
वे युवजन हैं सीखते
गाली के अम्बार
अपने को कविवर समझ
वाणी में विष घोल
मानें बुध वह स्वयं को
उनके बिगड़े बोल
वेद , पुराण, उपनिषद
सत्य सनातन भाष्य
समझ सके न आज भी
साल पचहत्तर बाद
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on January 24, 2022 at 10:18am — 4 Comments
दोहा त्रयी : राजनीति
जलकुंभी सी फैलती, अनाचार की बेल ।
बड़े गूढ़ हैं क्या कहें, राजनीति के खेल ।।
आश्वासन के फल लगे, भाषण की है बेल ।
राजनीति के खेल की , बड़ी अज़ब है रेल ।।
राजनीति के खेल की, छुक- छुक करती रेल।
डिब्बे बदलें पटरियां, नेता खेलें खेल ।।
सुशील सरना / 23-1-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 23, 2022 at 3:50pm — 8 Comments
2025
2024
2023
2022
2021
2020
2019
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2015
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2011
2010
1999
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