22 22 - 22 22 - 22 22 - 22 2
ऐ सरहद पर मिटने वाले तुझ में जान हमारी है
इक तेरी जाँ-बाज़ी उनकी सौ जानों पर भारी है
अपने वतन की मिट्टी हमको यारो जान से प्यारी है
ख़ाक-ए-वतन बेजान नहीं ये इस में जान हमारी है
एक ज़रा सा टुकड़ा क्या मैं मुट्ठी भर मिट्टी न दूं
इसके ज़र्रे - ज़र्रे में ही जीवन की फुलवारी है
जिस्म हमारे ढाल वतन की और निगहबाँ हैं आँखें
इसकी हिफ़ाज़त बोझ नहीं ये अपनी ज़िम्मेदारी है
छोड़के रंगीं महफ़िल हमने वीराना आबाद किया
सरहद के इस सहरा में भी अपनी ही गुल-कारी है
जिसने तुझ पर जान लुटा दी ऐ मेरे महबूब वतन
उसके ख़ून के हर क़तरे पे दुश्मन की आज़ारी है
बचके निकलने की जल्दी में अपने मुर्दे छोड़ गए
वो क्या जंग लड़ेंगे जिनकी फ़ितरत में मक्कारी है
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार। सादर।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। सुन्दर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार। सादर।
वाह वाह आदरणीय बहुतख़ूब ग़ज़ल कही...
आदरणीय हिरेन अरविंद जोशी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया। सादर।
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