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September 2015 Blog Posts (160)

"पानी" (लघुकथा)

रोज की तरह आज भी सुबह सुबह हो-हल्ला सुन कर में उठ गयाI  घड़ी की तरफ देखा तो चार बज रहे थेI घर के सभी सदस्य अपने दोनों हाथोँ में पानी के बर्तन लेकर तैयार खड़े थेI और मेरे लिए भी पानी के बर्तन तैयार थेI हम सब लोग पानी भरने के लिए निकल पड़ेI 3 घंटे बाद पसीने से लथपथ दो दो बाल्टी पानी मिला तो सुकून की साँस लीI  लाइन में खड़े खड़े पाँव अकड़ गए थे, इसलिए थोड़ा बैठकर राहत की साँस ली, फिर अपने घर की तरफ चल पड़ा, रास्ते में चौबे जी के घर के आगे पड़े अख़बार की हेडलाइन "मंगलग्रह पर मिला पानी" पढ़कर ख़ुशी से बाँछे…

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Added by harikishan ojha on September 30, 2015 at 3:00pm — 9 Comments

"तीन प्रत्युत्तर"-- [प्रत्युत्तर संदर्भित लघु कथा]

"तीन प्रत्युत्तर" [ प्रत्युत्तर संदर्भित लघु कथा]



पति देव जी की ज़िद पर आज पैदल ही दोनों एक समारोह में शामिल होने घर से निकले थे।

बाज़ार में एक सड़क पर एक सात-आठ साल का बच्चा स्कूल बैग लिए बुरी तरह रो रहा था। ट्यूशन से लौटते समय शौच पर नियंत्रण न कर पाने से उसका पैन्ट और पैर पतले 'मल' से सने हुये थे।



पत्नी के विरोध के बावजूद सक्सेना जी ने उस अनजान बच्चे को पास की ही एक प्याऊ तक ले जाकर उसकी सफाई करने में सहायता की। बच्चे का चेहरा खिल उठा। वह सामान्य हो कर घर की ओर चल… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 30, 2015 at 12:51am — 11 Comments

मैं आज अपने दिल के ज़ज़्बात भर कहूँगा

फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन

2212 122 2212 122



मैं आज अपने दिल के ज़ज़्बात भर कहूँगा।

तुम पास आज बैठो मैं बात भर कहूँगा।



तुम मुस्कुराके सुनना, मुझे गुनगुनानें देना।

ग़ज़लों में इस हृदय के हालात भर कहूँगा।



ज़ुल्फ़ों के बादलों से ये चाँद झाँकने दो।

तुम चाँदनी बिखेरो मैं रात भर कहूँगा।।



छलका रही हो मदिरा,मयकदे नज़र से।

मधु रस की सिर्फ इसको बरसात भर कहूँगा।।



बेसुध हुआ हूँ ऐसे जैसे कोई शराबी।

मदिरा ए हुश्न की मैं सौगात भर… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 29, 2015 at 11:30pm — 14 Comments

तुम इसे तवज्जो न देना........

तुम इसे तवज्जो न देना ....



ये बादे सबा अगर

तुम्हें मेरे दर्द का पैगाम दे जाये

तो अपने ज़हन में

करवटें लेते खुशनुमा अहसासों पर

तुम तवज्जो न देना

किसी तारीक शब को

अब्र से झांकता माहताब

पीला नज़र आये

तो तन्हाई से गुफ़्तगू करती

मेरी खामोशियों पर

तुम तवज्जो न देना

सड़क पर चलते

तुम्हारे पाँव के नीचे

कोई ज़र्द पत्ता चीखे

तो गर्द में डूबे

मेरी मुहब्बत के

बदलते मौसम पर

तुम तवज्जो न…

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Added by Sushil Sarna on September 29, 2015 at 7:30pm — 10 Comments

हरसिंगार फूला नहीं समाया

शुभ्र चाँदनी ने था दुलराया

हरसिंगार फूला नहीं समाया

*****

तिर गया मदहोश हो

चमन की सुंदर हथेली पर

छुप कर खेलता आँखमिचौली

जान देता निशा की सहेली पर

सुंदरी ने जूड़े में सजाया

हरसिंगार फूला नहीं समाया

*****

खिल गया कपोलों पे

रजत कणों की कर्पूरी आभा लिए

वसुधा को करने सुगंधित

रूप अपना सादा लिए

भोर ने वृक्ष को धीरे से हिलाया

हरसिंगार फूला नहीं समाया

*****

बिछ गया बेसुध हो

मन में असीमित नेह…

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Added by kalpna mishra bajpai on September 29, 2015 at 6:30pm — 6 Comments

गजल(मनन)

122 122 122 122

हिमालय बना था पड़ा ढल रहा हूँ

पिघलकर बना मैं नदी चल रहा हूँ।

उसाँसें धरा की सहेजे-सहेजे

बना मैं घटा कर अभी मल रहा हूँ।

बहा हूँ कभी मैं ढुलकता रहा था

अभी भी उसी आँख में पल रहा हूँ।

रही आग है जो जलाती- बुझाती

उसी आग में मैं अभी गल रहा हूँ।

जली थी कभी जो कहूँ नेह-बाती

अभी मैं वही लौ बना जल रहा हूँ।

पला था सपन जो घनेरे-घनेरे

रंगा मन उसीमें अभी चल रहा हूँ।

उषा की नवेली किरण तब हँसी थी

कभी बल रहा मैं कभी जल रहा… Continue

Added by Manan Kumar singh on September 29, 2015 at 2:59pm — 4 Comments

नाम काफ़ी है किसी का,सिर झुकाने के लिये (ग़ज़ल)

(2122 2122 2122 212)

आज फिर आये वो मुझको आज़माने के लिये..

क्या मिले हम ही थे उनको दिल दुखाने के लिये..

-

बात से फ़िर जाएँगे,ये सोच भी कैसे लिया,

सर कटा देंगे, दिया वादा निभाने के लिये..

-

ये शिकन माथे पे मेरे,बेवजह ही है सही,

कुछ तो कारण चाहिये ना, मुस्कुराने के लिये..

-

थे भरे संदूक वो,शैतान सब धन खा गये,

हो गये हैं आज वो,मुहताज दाने के लिये..

-

मंदिरों औ' मस्ज़िदों में 'जय' भटकना छोड़…

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Added by जयनित कुमार मेहता on September 29, 2015 at 12:27pm — 10 Comments

तरही ग़ज़ल

रोटी कपडा दयार थे सदमे

मुफलिसी मे हज़ार थे सदमे



एक मुद्दत से साथ चलते थे

जान के दावेदार थे सदमे



खूब रोया था कहके चारागर

क्यों मेरा रोजगार थे सदमे



शाइरी भी फंसी सियासत मे

पहले ही बेशुमार थे सदमे



सारी बातें गलत तबीबों की

तेरे गम का गुबार थे सदमे



उनकी आँखों से नूर बहता है

हर तरफ मेरी हार थे सदमे



आज कह डाले तेरी महफ़िल है

मुझपे तेरा उधार थे सदमे



इश्क वालो के बीच कहता हु

रौशनी मे दरार… Continue

Added by मनोज अहसास on September 28, 2015 at 7:32pm — 2 Comments

ग़ज़ल : लौट कर जब शाम को मैं घर गया

2122   2122  212

 

लौट कर जब शाम को मैं घर गया ,

निस्‍फ़ दफ़्तर  साथ में लेकर गया ।

 

आंख में देखी थकानों की नदी,

डूब कर उत्‍साह घर का मर गया ।

 

खेंच लो तुम भी तनाबें नींद की ,

चाँद खिड़की से हमें कह कर गया ।

 

बात जो मैं भूलना चाहूं वही ,

ध्‍यान भी उस बात पर अक्‍सर गया ।

 

जब गया तो वो सिंकदर या सखी ,

शान शौकत सब यहीं पर धर गया ।

 

क्‍या बताएं वक्‍़त की मज़बूरियां…

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Added by Ravi Shukla on September 28, 2015 at 6:06pm — 10 Comments

घोर कलियुग

ये जो समय है

बदलाव चाहता है

बदलाव लाता है

अच्छा भी है समाज में

बदलाव का होना

नीचे से ऊपर की ओर बढ़ना

 

किन्तु ऐसा क्या सच में हुआ है

क्या मानव ऊपर की ओर बढ़ा है

या स्तर गिरा है

हमारी मानवता का

समाज के भाईचारे को

तोड़ चुका है ये

परिवर्तन

पहले जहाँ पर था

प्रेम का चलन

और अब

इर्ष्या जलन

 

एक के पीछे सौ जान

देने को रहते थे तैयार

आह! वर्तमान

अब एक…

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Added by Prabhat Pandey on September 28, 2015 at 1:00pm — 2 Comments

"माँ तो माँ है न "- (लघु कथा)

गुड्डी पर स्नेह की वर्षा पर उस समय क्षणिक विराम लगा जब सुमित ने अचानक कक्ष में प्रवेश किया।

"अरे, क्या आज ज़ल्दी आ गयीं थीं स्कूल से?"- सुमित ने आश्चर्य से पूछा।

"नहीं, आज मैं गई ही नहीं, छुट्टी ले ली मैंने ! मालूम है न तुम्हें, आज मैं कितनी अपसेट हूँ !"

"तुमसे कितनी बार कहा दीपा कि जब हमारे बीच बहस शुरू हो जाती है, तो तुम कुछ देर के लिए चुप्पी साध लिया करो। कहीं की भड़ास कहीं निकाली तुमने। सोचो अगर ये फोम का गद्दा न होता तो क्या होता। गुड्डी को इतनी ज़ोर से चांटा मारा तो… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 28, 2015 at 12:58pm — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - मगर मज़ा ही कहाँ है अगर न तू शामिल (गिरिराज भंडारी )

1212    1122    1212    22  /112

तेरे खतों में  रहा यूँ तो रंगो बू शामिल

मगर मज़ा ही कहाँ है अगर न तू शामिल

 

मुझे अधूरी किसी चीज़ की नहीं हाजत

मेरी हयात में हो जा तू हू ब हू शामिल

 

बिन आरज़ू भी कभी ज़िन्दगी कटी है कहीं

तू कर ले ज़िन्दगी में मेरी आरजू शामिल

 

किसी की याद भी तनहाइयों का दरमाँ है

किसी की याद की कर ले तू ज़ुस्तजू शामिल

 

झिझक नहीं , न जमाने…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 5:00am — 19 Comments

ग़ज़ल :- जान के दावेदार थे सदमे

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़ाइलुन/फ़ेलान



जान के दावेदार थे सदमे

मै अकेला, हज़ार थे सदमे



इस क़दर पाइदार थे सदमे

मेरे हमदम थे,यार थे सदमे



मेरे दिल में मुक़ीम हैं अब तो

कल तलक बे दियार थे सदमे



कोई भी बच नहीं सका इन से

सब के दिल पर सवार थे सदमे



कोई तामीरी काम , नामुम्किन

सारे तख़रीब कार थे सदमे



'मीर'-ओ-'ग़ालिब' के बाद दुनिया में

सिर्फ मेरे ही यार थे सदमे



सोच ने मेरी इनको जन्म दिया

ज़ह्न का ख़लफ़िशार… Continue

Added by Samar kabeer on September 27, 2015 at 2:30pm — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
कभी मैं खेत जैसा हूँ कभी खलिहान जैसा हूँ -- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

1222—1222—1222—1222

 

कभी मैं खेत जैसा हूँ, कभी खलिहान जैसा हूँ

मगर परिणाम, होरी के उसी गोदान जैसा हूँ

 

मुझे इस मोह-माया, कामना ने भक्त…

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Added by मिथिलेश वामनकर on September 27, 2015 at 9:30am — 28 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
मत कहो! कि सत्य फिर विचार लूँ ज़रा.................(डॉ० प्राची सिंह)

बादलों की ओट से उधार लूँ ज़रा

चाँद आज तुझको मैं निहार लूँ ज़रा..

कँपकँपा रहे अधर नयन मुँदे मुँदे

साँस की छुअन से ही पुकार लूँ ज़रा..

शब्द शून्य सी फिज़ा हुई है पुरअसर 

सिहरनों से रूह को सँवार लूँ ज़रा..

चाँद भी पिघल के कह रहा मचल मचल 

चाँदनी में प्यार का निखार लूँ ज़रा..

अब महक उठे बहक उठे प्रणय के पल

इन पलों में ज़िन्दगी…

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Added by Dr.Prachi Singh on September 27, 2015 at 1:00am — 24 Comments

मृगतृष्णा - कहानी

 

सरकारी नौकरी लगते ही रिश्तेवालों की सूची लम्बी हो गई थी. हर दिन एक नए रिश्ते लेकर कोई न कोई उसका घर चला आता था. अपनी मां से जब भी उसकी बातें होती वह लड़की के दादा परदादा से लेकर उसकी जनम कुण्डली तक बखान कर ही दम लेती. हर दिन रिश्ते के नए चेप्टर खुलते, उसके मन में इस बात को लेकर कुतूहल बना रहता था. उसे स्कूल के दिन याद हो आए थे. वहां भी हर रोज नए चेप्टर खुलते और नई-नई जानकारी मिलती थी. बात कुछ वैसी ही यहां पर भी उसके साथ हो रही थी. यहां भी हर रोज…

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Added by Govind pandit 'swapnadarshi' on September 26, 2015 at 10:23pm — 4 Comments

विसर्जन - लघुकथा

"गणपति भप्पा मौर्या... अगले बरस तू जल्दी आ....।" हर प्रतिमा विसर्जन के साथ कई आवाजें उठती और इन्ही आवाजों के साथ उसके चेहरे पर कभी बच्चो जैसी खुशी झलकने लगती तो कभी चेहरा गंभीरता का आवरण ओढ़ न जाने क्या सोचने लगता?

धुंधली शाम अब रात में ढलने लगी थी लेकिन उसे अभी तक वहीं टहलते देख 'नाव वाले' से रहा नही गया। "विसर्जन तो कब का हो गया बाबा! रात हो गयी है, अब घर जाओ।"

"घर!.....कौन से घर?" बुजुर्ग ने एक गहरी सांस ली और ग॔गाजी को लहरो को देख बुदबुदाने लगा। "विसर्जन तो मेरा भी हो गया है, बस… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on September 26, 2015 at 4:59pm — 2 Comments

'लक्ष्मी का तकनीकी सफ़र'--(लघु कथा)

"वाह, भाभी इस बार तो ग़ज़ब की जीन्स-टोप लायी हो आगरा से ....लेकिन कुछ ज़्यादा ही महंगा है.....भाई साहब को मना ही लिया आपने !"- शालू ने चहकते हुये लक्ष्मी से कहा ।

"देखो, अभी यहाँ किसी को बताना मत, वरना ख़ानदानी सड़ल्ले रीति-रिवाज़ों के भाषण अभी शुरू हो जायेंगे। जहाँ तक महंगे होने की बात है, तो सुन मैं लक्ष्मी हूँ लक्ष्मी ! मुझे 'लक्ष्मी' को टेकल करने और हैण्डल करने की टेकनीक अच्छी तरह आती है। मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ ये मुझे बीमार ननंद जी को देेखने जबरन आगरा ले तो गये, लेकिन मैं धन-दौलत…

Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 26, 2015 at 2:00pm — 3 Comments

एकात्म बोध /कविता : नीरज

तेजी से घूम रहे चक्र पर
हम ठेल दिये गए हैं
किनारों की ओर
जहां
महसूस होती है सर्वाधिक
इसकी गति
ऊंची उठती है उर्मियाँ
जैसे जैसे हम बढ़ते हैं
केंद्र की ओर
सायास
स्थिरता बढ़ती जाती है
प्रशांत हो जाती है तरंगे
सत्य का बोध
अनावृत होने लगता है
अनुभव होता है एकात्म का ....
.............. नीरज कुमार नीर

Added by Neeraj Neer on September 26, 2015 at 12:37pm — 5 Comments

ग़ज़ल : मैं पागल था मगर इतना नहीं था

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

 

सनम जब तक तुम्हें देखा नहीं था

मैं पागल था मगर इतना नहीं था

 

बियर, रम, वोदका, व्हिस्की थे कड़वे

तुम्हारे हुस्न का सोडा नहीं था

 

हुआ दिल यूँ तुम्हारा क्या बताऊँ

मुआँ जैसे कभी मेरा नहीं था

 

यकीनन तुम हो मंजिल जिंदगी की

ये दिल यूँ आज तक दौड़ा नहीं था

 

तुम्हारे हुस्न की जादूगरी थी

कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 26, 2015 at 10:33am — 20 Comments

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