माँ के आँचल में छुप जाते
हम सुनकर डाँट कभी जिनकी।
नव उमंग भर जाती मन में
चुपके से उनकी वह थपकी ।
उस पल जाना ‘प्रेम पिता का’
कितनी उसमें गहराई है!
दिल पर अपने पत्थर रख जब
मुन्ने को चपत लगाई है।
इस जीवन धारा से बरसों
सींचा पौधा निज अनुभव का।
अनजान रहे हम नर होकर
कब बोध रहा निज उद्भव का?
कर्ज चुकाने मात-पिता का
अपना फर्ज निभाना होगा।
पर मर्म समझने ममता का
बेटी बन फिर आना होगा।
"मौलिक व अप्रकाशित"
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