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ये जो समय है

बदलाव चाहता है

बदलाव लाता है

अच्छा भी है समाज में

बदलाव का होना

नीचे से ऊपर की ओर बढ़ना

 

किन्तु ऐसा क्या सच में हुआ है

क्या मानव ऊपर की ओर बढ़ा है

या स्तर गिरा है

हमारी मानवता का

समाज के भाईचारे को

तोड़ चुका है ये

परिवर्तन

पहले जहाँ पर था

प्रेम का चलन

और अब

इर्ष्या जलन

 

एक के पीछे सौ जान

देने को रहते थे तैयार

आह! वर्तमान

अब एक ही सौ जान

लेने को है तैयार

कौन? आखिर कौन

है इसका जिम्मेदार

 

आज की व्यवस्था, नीतियां, नियम

या फिर आप और हम

है ये सत्य कटु परम

हैं हमीं जिम्मेदार

होती तारतार

मानवता के

टूटते सम्बन्धों के

उड़ती इज्जतों के

 

जिम्मेदार है हमारी मनःस्थिति,

सांस्कारिक विकलांगता,

जिसने पैदा की ऐसी स्थिति

जहाँ मानव मानव को खा जाना चाहता

हे मानवों!

अगर तुम अभी भी मानव हो

तो इस बात को समझो

ये जो घोर कलियुग है आया,

भगवान् ने नहीं,

किसी और ने नहीं,

इसे हमीं ने है बनाया......

 

प्रभात पाण्डेय

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Prabhat Pandey on October 2, 2015 at 1:38pm
आभार आपका आदरणीय डॅा. आशुतोष मिश्रा जी
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 2, 2015 at 11:32am

आदरणीय प्रभात जी इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर 

कृपया ध्यान दे...

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