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July 2016 Blog Posts (184)

गजल(सो रहा माझी....)

2122 2122 2122 2

सो रहा माझी किनारा दूर लगता है

बढ़ रही कश्ती पथिक मजबूर लगता है।1



रोशनी का जो सबब हमदम कभी बनता,

आँख पे पट्टी चढ़ी मद चूर लगता है।2



सिर गिने जाते अभी तक थे जमाने में

हो रहा उल्टा नशा भरपूर लगता है।3



खेल चलता है यहाँ शह-मात का कबसे

मात चढ़ती शाहपन काफूर लगता है।4



हो रहीं सब ओर हैं बाजार की बातें

बिक गया जैसे यहाँ हर नूर लगता है।5



दाँव पर लगता यहाँ अब जो बचा कुछ था

लुट रहा कोई बिका मशकूर… Continue

Added by Manan Kumar singh on July 17, 2016 at 10:00am — 5 Comments

सभी नादान बन गए

२२१  २१२१ १२२१ २१२

 

ये रूप रंग गंध सभी  शान बन गए

कुछ रोज में ही जो मेरी पहचान बन गए

 

नफरत के सिलसिले जो चले धूप छाँव बन

इंसानियत के शब्द भी मेहमान बन गए

 

तुम-तुम न रह सके न ही मैं-मैं ही बन सका

दोनों ही आज देख लो शैतान बन गए

 

खेमों में बँट गए हैं सभी आज इस तरह

कुछ राम बन गए कई रहमान बन गए

 

हद के सवाल पर या कि जिद के सवाल पर

हद भूलकर गिरे सभी नादान बन…

Continue

Added by Ashok Kumar Raktale on July 17, 2016 at 9:35am — 5 Comments

नारी तू नारायणी (उलाला छंद)/सतविन्द्र कुमार

नारी भारत में कभी,पाती थी सम्मान को

उसको थे सब पूजते,रखते उसके मान को

कष्ट बहुत सहने पड़े,कालांतर में नार को

कमतर था समझा गया, दुर्गा के अवतार को।



फिर नारी ने भी सही,दी खुदको पहचान है

आदिकाल से ही रही,नारी की तो शान है

सूया-सीता रूप में,नारी पर अभिमान है

जीजा माँ ,दुर्गावती,भारत-भू की आन है।



मातृशक्ति है जो बनी,नारी जीव महान है

जिसके आँचल में पले, पाती सुख संतान है

हर सुख अपने छोड़ दे,ममता-गुण की खान है

हे देवी! हम मानते,… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on July 17, 2016 at 7:30am — 4 Comments

ग़ज़ल

२१२२        २१२२     २१२२       २२

जिंदगी क्या है ज़रा नज़रे उठा कर  देखो

अश्क बारी  बंद कर चश्में सुखा कर  देखो |

जिंदगी भर  लालसा के पीछे भागे तुम क्यूँ    

शांति से तुम सोचकर कारण पता कर देखो |

मुफलिसी को तुम भी हंसी  में चिढ़ाया होगा

मुफलिसों को कुछ कभी तो तुम खिला कर देखो |

चश्मा पहने हो जो उसको  साफ़ करना  होगा

शान शौकत  धन के ऐनक को हटा कर  देखो |

मानुषिकता में नहीं कोई बड़ा या…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on July 17, 2016 at 7:30am — No Comments

रस्म ए उलफ़त की बात करते हैं

रस्म ए उलफ़त की बात करते हैं

हम मुहब्बत की बात करते हैं



वहशते ग़म के साथ रहके भी

हम मसर्रत की बात करते हैं



जो इशारे हैं उनकी आँखों के

सब शरारत की बात करते हैं



ज़िक्र होता है वस्ल का जब भी

वो क़यामत की बात करते हैं



पूछता है जो कोई हाले दिल

उसकी रहमत की बात करते हैं



दिल में क्या है बयां नहीं करते

बस सियासत की बात करते हैं



क्यूँ डरें इश्क़ में ज़माने से

हम बग़ावत की बात करते हैं



जो लुटेरे थे… Continue

Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on July 17, 2016 at 1:56am — 12 Comments

धर्म-प्रदूषण (लघुकथा)

उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, "काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना| ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है|"

 

"लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 16, 2016 at 10:26pm — 9 Comments

ग़ज़ल मनोज अहसास(इस्लाह के लिए)

221 2121 1221 212



हिम्मत को तोड़ देगा दुःखो का बखान भी

गर रास्ता है बंद,दबा ले जबान भी



हाथों से खोदकर ज़मीं पानी तलाश कर

दुश्मन जो तेरा हो गया हो आसमान भी



मैं दर ब दर हुआ था तेरी रुखसती के बाद

आहों में मेरी जल गया तेरा जहान भी



अपनी ही शक्ल देखी जो मुल्जिम बनी हुई

मेरे खिलाफ हो गया मेरा बयान भी

(मुझसे बयां न हो सका मेरा बयान भी)



झगड़ो पे मिली जिनसे नसीहत हमें सदा

अपनी वजह से चलती है उनकी दुकान भी



बेचारगी… Continue

Added by मनोज अहसास on July 16, 2016 at 4:54pm — 6 Comments

मीत बनाते बस इक अपना दुश्मन सौ खुद मिल जाते है.

२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ 

मीत बनाते बस इक अपना दुश्मन सौ खुद मिल जाते है

गुल को पाने की चाहत में खारों से तन  छिल जाते हैं

हम तो उसको भाई कहते वो हमको कमजोर बताता

नहीं समझता जब हम अपनी पे आते सब हिल जाते है

बसें चलाते गले लगाते क्या क्या नहीं किया करते हम

पर जिस वक़्त गले मिलते दुश्मन को मौके मिल जाते हैं

हम पूरब के बासी हमको मत तहजीब सिखा उल्फत की

यहाँ जमाने से उल्फत में बदले दिल से दिल जाते…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on July 16, 2016 at 4:00pm — 6 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व पीठिका) 21

कल से आगे ........



जैसी की सुमाली को अपेक्षा थी, पिता विश्रवा का निर्णय रावण के पक्ष में आया था।

दूसरे दिन प्रातः ही यह पूरा कुटुम्ब कुबेर के साथ पुष्पक में बैठकर विश्रवा के पास गया था। उन्होंने पूरी बात समझी और बोले- ‘‘मैं दोनों से पृथक-पृथक एकान्त में बात करना चाहता हूँ।’’

पहले रावण से बात हुई। विश्रवा ने उसे तभी देखा था जब वह दुधमुहाँ बच्चा था। आज उसको इस पूर्ण विकसित अवस्था में देख कर उन्हें प्रसन्नता हुई। उसे स्नेह से सीने से लगा लिया। फिर वे धीरे से विषय पर आये…

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Added by Sulabh Agnihotri on July 16, 2016 at 10:23am — 1 Comment

रिश्ते की जद्दोजहद

शादी मे सारा कुछ अच्छे से निपट गया थासभी मेहमानों को वापसी उपहार,  मिठाईयो के डिब्बे देकर रुखसत किया गया था। घर को भी फ़िर से सवार कर पटरी पर ले आई थी कि अचानक  एक सुटकेस और …

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Added by नयना(आरती)कानिटकर on July 15, 2016 at 8:00pm — 2 Comments

वह 'हरामज़ादा' नहीं (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

माँ-बेटी दोनों अपने पुराने से घर के जंग लगे गेट पर लटके जंग लगे ताले को ग़ौर से देख रहीं थीं। ताले में चाबी लगाने वाली जगह पर एक नन्हा सा पौधा उग आया था, जो उनके कौतुक का कारण था।



अतीत की बातें सोचते हुए माँ ने अपना हाथ बढ़ा कर पौधे को उखाड़ना चाहा, तो बेटी ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा- "अब इसे भी क्या 'हरामज़ादा' कहोगी? यह हरामी नहीं, अपने नसीब का है!" यह कहते हुए उसने कहा - मैं भी इसे ज़िन्दगी जीने दूंगी!"



माँ की आँखों से आंसू छलक पड़े। बेटी बोली- हाँ अम्मा, मैं भी इसे… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 15, 2016 at 5:39pm — 12 Comments

जश्न ऐ आज़ादी (लघु कथा ) जानकी बिष्ट वाही -नॉएडा

" बिट्टू और गुड़िया ! आज स्कूल नहीं जा रहे हो ? आज तो पन्द्रह अगस्त है।" दादा जी ने सिर पर गांधी टोपी रखते हुए कहा।



" दादा जी ! आज छोटे बच्चों की छुट्टी है।" 7 साल की गुड़िया बोली।



" अरे ,पन्द्रह अगस्त के दिन भी कोई छुट्टी करता है ? लड्डू मिलते हैं आज तो। ये आजकल के स्कूल भी ? ...बच्चे कैसे सीखेंगे आज़ादी के बारे में ।"



" दादा जी ! जुड़वाँ भाई बिट्टू ने उत्सुकता दिखाई , हमारी बहनजी ने बोला है, आज के दिन हमारा देश आज़ाद हुआ था।अब कोई छोटा - बड़ा नहीं है सब बराबर… Continue

Added by Janki wahie on July 15, 2016 at 5:23pm — 4 Comments

मैं क़ैदी हूँ

कितने ही गिद्धमानव

आकाश में मुक्त होकर

उड़ रहे हैं

क्योंकि उनके मुँह पर

खून के निशान नहीं पाये गए

और तीन सौ रुपये चुराने वाला

अपनी सज़ा के इंतज़ार में

वर्षों जेल में सड़ता रहा

मैंने एक अवयस्क बलात्कारी को

हत्या करने के बाद इत्मीनान से

सुधारगृह जाते हुए देखा है

मैं क़ानून की क़ैदी हूँ ।



स्टोव हों या कि

बदले जमाने के गैस चूल्हे

बस बहू का आँचल थामते हैं

'न' सुनकर जगे पुरुषत्व के

नाखूनों से रिसते तेज़ाब से…

Continue

Added by Tanuja Upreti on July 15, 2016 at 3:30pm — 6 Comments

ईश-वन्दना : दोहा छंद

ईश करूं नित वंदना, रहो सदा हिय-धाम।

कलुष-भेद उर-तम मिटा, सफल करो सब काम।।1।।



सदा वास उर में करो, करुणानिधि जगदीश।

करूं जोर कर वंदना, धरो कृपा-कर शीश।।2।।



पार करो भवसिंधु से, बन तरणी-पतवार।

तुम बिन कौन सहाय अब, हे! जग-पालनहार।।3।।



हरि! हर लो हर भेद-तम, द्वेष-दंभ-दुर्भाव।

उर में नित सत-स्नेह के, भर दो निर्मल भाव।।4।।



सूर्य-चंद्र-भू-व्योम-जल, अनल--अनिल तनु-श्यान।

सिंधु-शैल-सरि सृष्टि के, कण-कण में भगवान।।5।।



कृपा-सिंधु… Continue

Added by रामबली गुप्ता on July 15, 2016 at 11:14am — 4 Comments

अस्तित्व -- डॉo विजय शंकर

विशालता - सूक्ष्मता
का अनूठा संगम हैं प्रकृति,
हाथी भी है , चींटी भी है,
सूक्ष्म जीव , जीवाणु ,
कीट , कीटाणु भी हैं
दोनों का भोजन है ,
भूखा कोई नहीं है ,
इंसान को समझो ,
उसे न्यून मत करो ,
इतना न्यून तो
बिलकुल मत करो
कि वह सूक्ष्म हो जाए ,
और तुम्हें दिखाई भी न दे ,
कीटाणु की तरह ,
रोगाणु की तरह ,
रहेगा तब भी वह समाज में,
सोचो , क्या करेगा ?
समाज को ही रोगी करेगा।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on July 15, 2016 at 10:15am — 12 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व पीठिका) 20

कल से आगे .........



महाराज दशरथ राजसभा की औपचारिक परम्परा के बाद सभा कक्ष में बैठे हुये थे। सभा में कुछ नहीं हुआ था, बस सबने देवर्षि द्वारा किये गये भविष्य कथन पर हर्ष व्यक्त किया था, सदैव की भांति चाटुकारिता की थी। इसी में बहुत समय व्यतीत हो गया था। सारे सभासद यह दर्शाना चाहते थे कि वे ही सबसे अधिक शुभेच्छु है महाराज के, वे ही सबसे बड़े स्वामिभक्त हैं। यह किस्सा नित्य का था। चाटुकारिता सभासदों की नसों में लहू से अधिक बहती थी। महाराज भी इससे परिचित थे किंतु उन्हें इसमें आनन्द…

Continue

Added by Sulabh Agnihotri on July 15, 2016 at 8:58am — 1 Comment

ग़ज़ल,,,

2222 2222 2222 222



पीछे मुड़कर जब भी देखा मौन खड़ा साकार मिला ।।

इसकी आँहें उसके आँसू बिखरा बिखरा प्यार मिला ।।(1)



मतलब की इस दुनियाँ में सब यार मिले हैं मतलब के,

मतलब से है मतलब सबको मतलब का मनुहार मिला ।।(2)



झूम रहीं नफ़रत की फसलें बीज सभी ने बोये हैं,

अपनों के सीनों पर चलता अपनों का हथियार मिला ।।(3)



खून खराबा देख रहा वह अपनी अनुपम दुनियाँ में,

सबकी किस्मत लिखने वाला आज स्वयं लाचार मिला ।।(4)



अज़ब निराले खेल यहाँ के…

Continue

Added by कवि - राज बुन्दॆली on July 15, 2016 at 2:30am — 6 Comments

तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी (कविता)

तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी

जैसे धरती से मिलने आती है बारिश

जैसे सागर से मिलने आती है नदी

 

मिलकर मुझमें खो जाओगी

जैसे धरती में खो जाती है बारिश

जैसे सागर में खो जाती है नदी

 

मैं हमेशा अपनी बाहें फैलाये तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा

जैसे धरती करती है बारिश की

जैसे सागर करता है नदी की

 

तुमको मेरे पास आने से

कोई ताकत नहीं रोक पाएगी

जैसे अपनी तमाम ताकत और कोशिशों के बावज़ूद

सूरज नहीं रोक पाता…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 14, 2016 at 2:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल खूबरू इक लिखूँ तुझ ग़ज़ल पर--------पंकज

122 122 122 122



इज़ाज़त ये तुमसे, है माँगे सुखनवर।

ग़ज़ल खूबरू इक, लिखे तुझ ग़ज़ल पर।।



कहो तो लिखे झील, आँखों को तेरी।

लिखे, चाहता हुस्न, का इक समंदर।।



गज़ब की हो तुम तो, विधाता की रचना।

बहुत खूबरू ज्यूँ, हिमालय का मंजर।।



ये होंठों की मुस्कान, है क़ातिलाना।

कलम लिख रहा है, इसे ज़िंदा खंज़र।।



है जो मरमऱी सा, बदन ये तुम्हारा।

सजा कर बसाया, इसे मन के अंदर।।



मौलिक-अप्रकाशित



(आदरणीय समर सर की इस्लाह पर… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 14, 2016 at 12:00pm — 6 Comments

बढ़ता जीवन,घटती ताकत(कुण्डलिया)/सतविन्द्र कुमार

जीवन का यह खेल है,जो चलता दिन रैन
समझे जो इस बात को,वह पाता है चैन
वह पाता है चैन,कभी फिर दुःख ना पाए
मस्ती में ले काट,समय जैसा मिल जाए
सतविंदर कह बात,वही जो हो सच्ची जी
कटते जब दिन -रात,चले ताकत घटती जी।।


मौलिक एवम् अप्रकाशित।

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on July 14, 2016 at 11:17am — 10 Comments

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