आज फैसन का जमाना हैं ,
सारा जग माना हैं ,
हम सब अब ये भूल गए हैं ,
सच्चाई से दूर गए हैं ,
जिसको छुपाना हैं ,
उसकी नुमाइस होती हैं ,
जिसको दिखाना हैं ,
उसको छुपाई जाती हैं,
मैं नहीं ये तो ,
सारा जग माना हैं ,
आज फैसन का जमाना हैं ,
खाने में भी इसकी ,
अब होती नुमाइस हैं ,
भुट्टे को भूलने लगे ,
पापकोन की चोवाइस हैं ,
थोड़े में पेट भर जाये ,
खर्चा भी कम आये ,
मगर रोटी चावल नहीं ,
रेडी फॉर इट लाना हैं ,
आज…
Continue
Added by Rash Bihari Ravi on July 9, 2010 at 1:42pm —
1 Comment
गरीबी और भ्रष्टाचार
एक तरह से देखे तो गरीबी और भ्रष्टाचार शास्वत समस्या है | यह समस्या सृष्टि के उद्भव से ही है और शायद सृष्टि के अंत तक रहेगी | जब हमारा राष्ट्र विश्व गुरु हुआ करता था तब भी ये समस्या किसी न किसी रूप में विद्यमान थी | शास्त्रों में भी इसका वर्णन मिलता है | समय के साथ ये समस्या बढती गई और अब इसने उग्र रूप ले लिया है | आज समाज का कोई भी कोना और वर्ग इससे अछूता नहीं है |
अगर हम चिंतन करे तो पता चलता है कि गरीबी और भ्रष्टाचार एक दूसरे के पूरक है | गरीबी से त्रस्त ब्यक्ति…
Continue
Added by BIJAY PATHAK on July 9, 2010 at 1:30pm —
3 Comments
एक लड़का था । बचपन में ही उसके माता-पिता गुजर गए । उसका लालन-पालन उसके नाना ने किया । लड़का अभी आठ-नौ साल का था तभी उसपर दुनिया देखने का भूत सवार हो गया । वह बार-बार अपने नाना से कहता कि मैं दुनिया देखना चाहता हूँ ? नाना समझाते कि बेटा अभी तो तुम्हारे पास बहुत समय है, जब तू बड़ा होगा, दुनियादारी में लगेगा तो तूझे खुद मालूम हो जाएगा कि दुनिया क्या है ? पर लड़का अपने नाना की एक न सुनता और बार-बार दुनिया देखने की रट लगाता ।
एक दिन लड़के के नाना ने कहा, "चलो आज मैं तुमको दुनिया दिखाता हूँ" ।…
Continue
Added by Prabhakar Pandey on July 9, 2010 at 10:08am —
4 Comments
समर्थन मूल्य पर अनाज बेचकर , किसान हुए बेहाल
उत्पादों का स्वं मूल्य लगाकर , पूंजीपति हुए निहाल ॥
अरहर दाल ९० रूपये किलो , बोल- बोलकर लोग खूब चिल्लाते
५ रूपये के टैबलेट को , पूंजीपति १०० रूपये का मूल्य दिखाते ॥
मंहगाई का दीया दिखाकर , पूंजीपति खूब कमाते
कड़े -कड़े नोटों की माला , नेताओं को पहनाते ॥
चुनाव के वक़्त दिया था , नेताओं को चंदा
जी भर कर दाम बढाओ , कर लो गोरखधंधा ॥
दवा, सीमेंट और लोहा पर , सरकार की कुछ नहीं चलती
मंहगाई…
Continue
Added by baban pandey on July 9, 2010 at 8:22am —
4 Comments
ताजे फल , ताज़ी सब्जियां
बनाती है , स्वस्थ खून
ताजे विचार , ताज़ी सोच
बनाती है , स्वस्थ रिश्ते ॥
स्वस्थ रिश्ते
चढ़ाती है सीढिया
सफलता की ॥
और फिर
चंचल बनते है हम
लक्ष्मी बरसने लगती है ॥
फिर एक दिन ....
हमें जाना होता है
शाश्वत सत्य की दुनियां में
साथ नहीं जाती लक्ष्मी ॥
दुनियां .....
उसे और लक्ष्मी को भूल जाती है
याद रहती है
सिर्फ ...उसके द्वारा बनाये गए
स्वस्थ रिश्ते ॥
Added by baban pandey on July 9, 2010 at 7:48am —
3 Comments
कृति चर्चा:
चुटकी-चुटकी चाँदनी : दोहा की मन्दाकिनी
चर्चाकार : संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कृति विवरण : चुटकी-चुटकी चाँदनी, दोहा संग्रह, चन्द्रसेन 'विराट', आकार डिमाई, सलिल्ड, बहुरंगी आवरण, पृष्ठ १५६, समान्तर प्रकाशन, तराना, उज्जैन, म.प्र.
*
हिंदी ही नहीं विश्व वांग्मय के समयजयी छंद दोहा को सिद्ध करना किसी भी कवि के लिये टेढ़ी खीर है. आधुनिक युग के जायसी विराट जी ने १२ गीत संग्रहों, १० गजल संग्रहों, ३ मुक्तक संग्रहों तथा ६ सम्पादित काव्य संग्रहों के प्रकाशन के बाद…
Continue
Added by sanjiv verma 'salil' on July 9, 2010 at 12:21am —
1 Comment
ना आप दूर जाना ना हम दूर जाएँगे ..
ना आप दूर जाना ना हम दूर जाएँगे ..
जिंदगी के इस सफ़र मे हम अपने वादे निभाएँगे..
बहुत अछा लगेगा जिंदगी का सफ़र .....
आप वाहा से याद करना हम यहा मुस्कुराएँगे
Added by advocate mukund vyas on July 8, 2010 at 6:11pm —
1 Comment
बंद ,
कितना छोटा शब्द ,
कितना बड़ा असर ,
मगर ,
इसकी पुकार पर ही ,
कितनो की .
धड़कन बढ़ जाती हैं ,
कितनो की ,
सांसे रुक जाती हैं ,
कितने
ये सोच कर परेशान,
कहा से कल ,
रोटी आयेगे ,
बच्चे क्या खायेंगे ,
लेकिन ,
कुछ को मिलती हैं ,
छुट्टी का आनंद ,
तो कुछ को ,
मिलता हैं ,
तांडव करने में आनंद ,
Added by Rash Bihari Ravi on July 8, 2010 at 2:00pm —
1 Comment
महानगर में
सड़क के किनारे खड़ा था
१२ रूपये प्रति दर्जन की दर से
केले लेने पर अड़ा था ॥
कार से एक सज्जन आये
दुकानदार ने
२५ रूपये प्रति दर्जन की दर से
सब केले बेच दिए .... ॥
मैं बेवश था
सोच रहा था ....
कहां है महँगाई
खोज ही लिया मैं
महँगाई मेरे पर्स में रहती है
और जब
पर्स नोटों से भरी हो
मंहगाई पास भी नहीं फटकती
Added by baban pandey on July 8, 2010 at 10:43am —
5 Comments
एक दुआ
--------
वोह उम्र के उस रुपहले दौर से
गुज़र रही है
जब दिन सोने के और
रातें चांदी सी
नज़र आती हैं
जब जी चाहता है
आँचल में समेट ले तारे
बहारों से बटोर ले रंग सारे
जब आईने में खुद को निहार
आता है गालों पर
सिंदूरी गुलाब सा निखार
और खुद पर ही गरूर हो जाता है
जब सतरंगी सपनों की दुनिया मे खोये
इंसान खुद से ही बेखबर नज़र आता है
जब तितली सी शोख उड़ान लिए
बगिया में इतराने को जी चाहता है
जब पतंग सी पुलकित उमंग…
Continue
Added by rajni chhabra on July 8, 2010 at 12:30am —
6 Comments
वे इटे थापते है
बाल-बच्चो सहित
वर्षा ने कहर बरपाया
पानी ...
सर्वत्र पानी
वे वेरोजगार है आज से ॥
इधर सरकार का बेरोजगारी
दूर करने की योजना
मनरेगा भी बंद हो गया
२८ जून के बाद
हर साल की तरह ॥
मगर उनके बच्चो का
सुनहला दिन लौट आया है
केकड़ा पकड़ना
और ....दिन भर
खेतों में /तालाबों में
मछली मारना ॥
शाम को
माँ को मछली देना
और रात के खाने में
मछली -चावल का इंतज़ार॥
उन…
Continue
Added by baban pandey on July 7, 2010 at 8:02pm —
1 Comment
गुज़रा था रात सूरज, गलियों से मेरी होकर.
कितना कुरूप था वो, दिन का लिबास खोकर
किसने बदल दिया है, इस शहर का ही नक्शा.
जहां हुस्न सहमता है, मोहब्बत का नाम सुनकर.
जाबांज वो नहीं था, बुजदिल नहीं था मैं भी.
बैठा था मेरा कातिल, घूँघट की ओट लेकर.
हो जाए बात कुछ भी, नाराज़ हम ना होते.
सिखा है जब से हमने, जीना सहम-सहम कर.
कायर के हाथ खंज़र, जब से लगा है पुरी.
दैरो-हरम में अल्लाह, बैठा हुआ है छिपकर.
गीतकार- सतीश मापतपुरी
Added by satish mapatpuri on July 7, 2010 at 4:42pm —
1 Comment
योगिराज देवरहा बाबा :- देवरिया सुप्रसिद्ध संत ब्रह्मर्षि योगिराज देवरहा बाबा की कर्मस्थली रह चुकी है । देवरिया क्षेत्र की जनता हार्दिक रूप से शुक्रगुजार है उस परम मनीषी, योगी की जो देवरिया क्षेत्र को अपना निवास बनाया, इस क्षेत्र की मिट्टी को अपने पावन चरणों से पवित्र किया और अपने ज्ञान एवं योग की वर्षा से श्रद्धालु जनमानस को सराबोर किया । इस योगी की कृपा से देवरिया जनपद विश्वपटल पर छा गया । देवरहा बाबा ब्रह्म में विलीन हो गए लेकिन उनके ईश्वरी गुणों की…
Continue
Added by Prabhakar Pandey on July 7, 2010 at 3:37pm —
1 Comment
हाँ! मैं हूँ परमेश्वर.
मैं बन बैठा भगवान,
मंदिर में,सबके दिल में.
गाँव-गाँव व शहर-शहर,
मैं घूमता रहा पहर-पहर,
चंदे के लिए,मंदिर के वास्ते,
मिल गए मुझे भाग्य के रास्ते.
सुबह निकलता बिना नहाए-खाए,
लंबा चंदन टीका करता,
कंधे में झोला लटकाता,
लगता पंडित भोला-भाला.
मंदिर के नाम की रसीद
हाथ में रहती,कटती रहती,
मैं घूमता रहता,काटता रहता,
अपने अभाग्य को,रसीद के साथ.
लोग चंदे के साथ भोजन भी कराते,
रात को हम वहीं भरते…
Continue
Added by Prabhakar Pandey on July 7, 2010 at 10:52am —
3 Comments
लेकर उजियारे मेरे, अंधेरी शाम दे गया कोई
आँसू भरी रहे आँखे ऐसे इंतज़ाम दे गया कोई
इस ज़माने मे रहता था नशा उसके प्यार का
आज इस मासूम के हाथ मे जाम दे गया कोई
ना अब जाता हूँ मंदिर ना नमाज़ पढ़ता हू मैं
जपू माला उसके नाम की,ये काम दे गया कोई
नहीं हुई आवाज़ पर दिल टूटकर मेरा चूर हुआ
जातेजाते मुझपे बेवफ़ाई का इल्ज़ाम दे गया कोई
कल तक तो बुलाते थे तुझे पल्लव कह की ही सब यहाँ
छीनकर मेरी पहचान दीवाना मुझे नाम दे गया कोई
Added by Pallav Pancholi on July 7, 2010 at 12:01am —
1 Comment
सम्वेदनाओं के शून्य को ,जगाना चाहता हूँ !
विचारो के उत्तेज से ,हलचल मचाना चाहता हूँ !
मर्म को पहचान, चोट करारी होनी चाहिए ,
बंद आँखों को नींद से ,जगाना चाहता हूँ !
…!!
खून की गर्म धारा ,बह रही ही जिस्म में ,
देश-भक्ति का इसमें ,उबाल लाना चाहता हूँ !
जज्बों में ना कमी हो तो ,समन्दर भी छोटा है ,
,आसमां में अपना तिरंगा फहराना चाहता हूँ !
कमी नही इस देश में, बौद्धिक शारीरिक बल की ,
‘कमलेश’ इसे विश्व शीर्ष पर पहुंचाना चाहता हूँ… Continue
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 11:03pm —
1 Comment
अनजाने में छू गया था हाथ तेरा ,
पल को लगा मिल गया , तेरा ।
दिल ही तो है इसका क्या करें ,
न मिलो तो होता होगा, क्या हाल मेरा ।
ये ख्याल मुझे जीने नही देता ,
मिली तो क्या होगा सवाल तेरा ?
कटने को कट तो कट रही है जिन्दगी ,
क्यूँ की मेरे पास है जो रुमाल तेरा ।
ऐसे बेदर्द तो नही हो” कमलेश” ,
की जेहन में न आए ख्याल मेरा ॥
Posted in अहसास | Tags: पल,
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 10:54pm —
2 Comments
कौन होना चाहता है
यहाँ बे-आबरू ।
ये वक्त ही है ,
बे-शर्म बना देता है
हसरत मुझे भी थी,
आसमान छूने की ,
वक्त ,कोशिशों की सीढ़ी को ,
बे-वक्त गिरा देता है ।
संभल -संभल कर बढ़ रहे थे ,
जानिबे – मंजिल ,
जो कभी खत्म न हो राह ,
वक्त,पकडा वो सिरा देता है ।
टूटते हौंसलों को ,
कैसे सम्भाले ”कमलेश” ,
बसे बसाये घरौंदों पर ,
वक्त बिजली गिरा देता है…
Continue
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 10:50pm —
1 Comment
मेरा तन- मन उचाट क्यूँ है? इस पूरे जहान से ,
चिड़ियों ने भी समेट लिये , घोंसले मेरे मकान से ।!
इंसानों में खुदगर्जी हो गयी ,इस कदर हावी ,
जड़ भी कहने लगे ,हम अच्छे है इस इन्सान से ।!
फिजां की इन सरसराती हवावों में है ,बू साजिश की
, इनकी दोस्ती से है कहीं अच्छी ,दुश्मनी तूफ़ान की ।!
कितना भी अफ़सोस कर लो, इस जमाने नीयत पर ,
कितने बेगुनाहों को गुजारा है ,इसने अपने इम्तिहान से ।!
‘कमलेश ‘अब भी बहुत कुछ है…
Continue
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 10:14pm —
2 Comments
मेरी जिन्दगी में इतने झमेले ना होते
गर तुम मेरे जज्बातों से खेले ना होते ,
बहुत पर खुशनुमा थी मेरी यह जिन्दगी
गर दिखाए हसीं- ख्वाबों के मेले न होते ,
रफ्ता-रफ्ता चल रहा था कारवां जिन्दगी का
दुनिया की इस महफिल में हम अकेले न होते ,
''कमलेश'' ना लुटता दिले- सकूं मेरा कभी
गर मेरी नजरों के सामने ,तेरे हाथ पीले ना होते ,
हमेशा ही कहर बरपा है इश्क पर जमाने का
राहें फूलों की होती कांटे भी न नुकीले होते
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 9:41pm —
3 Comments