ग्राफो योगा जीवन को गौरवान्वित करने का अत्याधुनिक तकनीक है.मनुष्य के जीवन मे अपार संभावने छीपी होती हैं. प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहता है. इस सुख की प्राप्ति के लिए किए गये प्रयास के कारण ही आज संसार सुहाना लगता है.
मनुष्य के लिए सर्वाधिक प्रिय है कष्ट विहीन जीवन, सफलता भरी जिंदगी.
यह सफलता या असफलता मनुष्य के अंदर मौजूद शक्ति पर निर्भर करता है. संसार के सभी तत्व मनुष्य के अंदर पाए जाते है. इसलिए कहा गया है- यथा पिंडे तथा ब्रह्माण्डे.
मनुष्य की हर क्रिया उसके…
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Added by Sachchidanand Pandey on October 25, 2010 at 4:30am —
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ऐ जिंदगी !
हम एहसान तुझ पर किये जाते हैं
दिल के टुकड़े होने पर भी
उसको पाकर खोने पर भी
मन ही मन रोने पर भी
दर्द जिगर में होने पर भी
ऐ जिंदगी!
हम जिए जाते हैं
हम एहसान तुझ पर किये जाते हैं
{दीप जीरवी}
Added by DEEP ZIRVI on October 24, 2010 at 9:51pm —
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बड़े खामोश रहते हैं अभी हम,
सुना है लोग अब भी बोलते हैं .
बड़े दिल से लगाकर दिल यहाँ पर,
सुना है लोग अब दिल तोड़ते हैं.
कभी अमुआ की अमराई पे कोयल ,
कुहू कुहु के गाती गीत थी पर ,
सुबह की शाख पे बैठी कोयल है ,
नगर में गीत कागा छेडते हैं.
धनक खिलती दिखी थी कल जहां पर ,
आज मरघट सा वो पनघट रुआंसा .
जो बुझाया करे थे प्यास कल तक,
आज वोही क्यों प्यासा छोड़ते हैं
वो सागर रूप के…
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Added by DEEP ZIRVI on October 24, 2010 at 9:30pm —
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कैसी बहार यह आई मेरे शहर अंदर,
हर कली मुरझाई मेरे शहर अंदर.
खून सफ़ेद हुआ है रिश्ते नातो का,
किस ने ज़हर पिलाई मेरे शहर अंदर.
दूर आप क्या हुए जैसे हर तरफ,
तन्हाई तन्हाई मेरे शहर अंदर.
हम साए का साया नज़र नही आता,
हो गयी पीर पराई मेरे शहर अंदर.
प्यार के बादल उड़ कर कहाँ चले गये,
नफ़रत की घटा है छाई मेरे शहर अंदर.
आँसू पीड़ा दर्द की सौगात नयी,
हर मानव ने पाई मेरे शहर अंदर.
हर पल रोशन करने की वह बात…
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Added by Hardam Singh Maan on October 24, 2010 at 8:00pm —
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सावन की घटा घहराती हैं,
मन में हलचल कर जाती हैं ..
विरही मन छोड़ रूठना अब,
प्रियतम की याद सताती है...
काले पीले बादल आते,
वर्षा की आशा ले आते,
मन हरा भरा हो जाता तब,
प्रियतम फिर से घर को आते,
प्रियतम की यादों को सावन,
फिर घेर घेर ले आता है,
दर्शन की अमित चाह में अब,
जीवन उत्साह बढ़ाता है ...
मन व्याकुल है तन आकुल है,
है कंठ रुद्ध आशा अपूर्ण..
प्रिय आँखों में बस जाओ तो,
जीवन हो…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 24, 2010 at 3:30pm —
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आज सुबह
जब घड़ी की सुइयाँ
हो तैयार
निकल पड़ीं विपरीत दिशाओं को
तभी
हुई दरवाज़े पर दस्तक
बंद आँखों से ही
नींद ने हिलाया मुझे
और ना चाहते हुए भी
आधी सोई आधी जागी आँखों से
दरवाज़ा खोला मैने
फटे होंठों से मुस्कुराते हुए
खड़ी थी ठिठुरती ठंडI
चाय की प्याली की गरमाहट
महसूस करते हुए
दोनों हथेलियों पर
खिड़की से बाहर झाँका मैने
तो आज सूरज ने भी
नहीं लगाई थी
दफ़्तर में हाज़िरी
बादलों की रज़ाई…
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Added by Veerendra Jain on October 24, 2010 at 1:09am —
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आभार तुम्हारा कैसे माँ, मै व्यक्त करूँ....?
जीवन के बदले बोलो माँ मै क्या दे दूँ....?
तेरी मिट्टी की खुशबू माँ ...
मेरे तन मन मे छाई है.....
तेरी आशीषें ले कर ही...
पुरवाई फिर से आई है....
सुख यश की इन सौगातों का उपकार मै कैसे व्यक्त करूँ...?
जीवन के बदले बोलो माँ मै क्या दे दूँ...?
तेरी मिट्टी से जो उपजा ,
वह अन्न बड़ा बलदायी है...
तुझको छू कर ही पवन आज
शीतल है...व सुखदाई है...
इन सुंदर सुखद बहारों का मै मोल तुम्हे कैसे… Continue
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 23, 2010 at 8:30am —
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नवगीत:
नफरत पाते रहे प्यार कर
संजीव 'सलिल'
*
हर मर्यादा तार-तार कर
जीती बाजी हार-हार कर.
सबक न कुछ भी सीखे हमने-
नफरत पाते रहे प्यार कर.....
*
मूल्य सनातन सच कहते
पर कोई न माने.
जान रहे सच लेकिन
बनते हैं अनजाने.
अपने ही अपनापन तज
क्यों हैं बेगाने?
मनमानी करने की जिद
क्यों मन में ठाने?
छुरा पीठ में मार-मार कर
रोता निज खुशियाँ उधार कर......
*
सेनायें लड़वा-मरवा
क्या चाहे…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 22, 2010 at 1:30am —
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जो बातें प्यार की छूटीं हैं अब तक,
आज करनी हैं …
सुनो जी काम छोड़ो , पास बैठो…
शाम की गाड़ी पकड़नी है ….
वो पैंतीस साल पहले रात,
जो आई सुहानी थी…
वो गुजरी रात मे अभिसार की,
प्यारी कहानी थी ….
वो जो छूटीं रहीं इनकार मे थीं …
प्यार की बातें….
वो जो मूंदीं ढकीं इनकार मे थीं ,
प्यार की बातें….
वो जिनके बीच
मुन्नू और चुन्नू का बहाना था…
वो जो… Continue
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 21, 2010 at 9:30pm —
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मौत !
तिमिर की गहराईयों सी
भयानक
जीवन को निगलने को
तत्पर
जीवन पर्यंत
लक्षित यह अंत
मौत !!
शारीरिक शक्ति का ह्रास
पोषक तत्वों का विनाश
या
काया का परिवर्तन
पुरातन से नूतन
मौत !!!
आती है चुपके-चुपके
प्राण को निगलने के लिए
मिट्टी को मिट्टी में
मिलाने के लिए
मौत !!!!
नहीं... नहीं... !
मौत नहीं मोक्ष
कष्टों से मुक्ति का
जीवन का अंतिम लक्ष्य
~शशि
Added by Shashi Ranjan Mishra on October 21, 2010 at 8:28pm —
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मैंने न जाना प्यार क्या है,
रिश्ता ऐ दर्द का अहसाह सा क्यूं है ?
साया-ऐ-दरख्तों पे पहुँच न सकी जो रौशनी,
उस रौशनी का इक अहसास सा क्यों है ?
ता उम्र ना खुल के मिल सकी जो सासें
उस प्राणवायु की कमी पे भी ये सांस क्यूं है ?
सूख चुके है जो धारे नदी से
फिर भी आज ये नयन नम से क्यूं है ?
ता उम्र ढूंढती रही जिस रौशनी को
उस सूरज का अहसास सा क्यों है.
जिंदगी तो जी के भी जी ना पाई ,
फिर भी, मौत के बाद इक -
जिंदगी का इन्तजार सा क्यूं है…
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Added by Dr Nutan on October 21, 2010 at 5:30pm —
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सांझ की पंचायत में..
शफ़क की चादर में लिपटा
और जमुहाई लेता सूरज,
गुस्से से लाल-पीला होता हुआ
दे रहा था उलाहना...
'मुई शब..!
बिन बताये ही भाग जाती है..'
'सहर भी, एकदम दबे पांव
सिरहाने आकर बैठ जाती है..'
'और ये लोग-बाग़, इतनी सुबह-सुबह
चुल्लुओं में आब-ए-खुशामद भर-भर कर
उसके चेहरे पे छोंपे क्यूँ मारते हैं?"
उफक ने डांट लगाई-
'ज्यादा चिल्ला मत..
तेरे डूबने का वक़्त आ गया..'
माँ समझाती थी-
"उगते…
Added by विवेक मिश्र on October 21, 2010 at 1:00pm —
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(ये मेरी पहली कोशिश है ग़ज़ल लिखनें की... जहाँ गलती हो कृपया करके बे'झिझक बताएं... शुक्रिया...!!)
सख्त रास्तों पर भी आसान सफ़र लगता है...
ये मुझे माँ की दुआओं का असर लगता है...!!
हो जाती है, बोझिल आँखें जब रोते-रोते...
माँ से फ़िर मुश्किल चुराना ये नज़र लगता है...!!
नहीं आती नींद इन मखमली बिस्तरों पर...
माँ की थपकियों का यादों में जब मंज़र लगता…
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Added by Julie on October 20, 2010 at 10:30pm —
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कहाँ कहाँ से बचा कर निकालते खुद को
हरेक मोड़ पै कैसे संभालते खुद को
हमारी आँख से दरया कई रवाँ होते
जो आँसुओं की फ़िज़ाओं मैं ढालते खुद को
किसी पै तंज़ की हिम्मत कभी नहीं होती
ज़रा सी देर कभी जो खंगालते खुद को
बड़े ही ज़ोर से आकर ज़मीन पर गिरते
जो आसमान की जानिब उछालते खुद को
बहुत गुरूर है तुमको चिराग होने पर
कभी मचलती हवाओं मैं पालते खुद को
Added by SYED BASEERUL HASAN WAFA NAQVI on October 20, 2010 at 9:30pm —
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((( यूँ तो हूँ साधारण-सी इंसान बस... पर आजकल भावनाओं को शब्द देने आ गया है और लोग मुझे 'कवि' (कवयित्री) के नाम से पुकारने लगे हैं... पर अभी इस उपाधि से हमें नवाज़ा जाए ये हम सही नहीं समझते... अभी ऐसे किसी विषय पर लिखा नहीं... मैं अभी "कवि" नहीं...!! ये रचना बस यही सोचते सोचते बन पड़ी के मैं कवि क्यूँ नहीं और कब होउंगी...!! -जूली )))
मैं "कवि" 'नहीं' हूँ... ...… Continue
Added by Julie on October 20, 2010 at 8:30pm —
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रुख पे उदासी , आँख क्यूँ नम है
यार बता , तुझे कौन सा गम है
ज़ख्म जिगर के मुझको दिखा दे ,
मेरी नज़र भी इक मरहम है .
तेरी पलक का अश्क मैं अपने
लब पे उठा लूं , ये शबनम है.
लगता है मुझको तुझमे खुदा है ,
हंस कर बोले लोग वहम है
जिस्म तेरा या रूह हो तेरी
मेरे लिए यह दैरो- हरम है
कहना ग़ज़ल यूं मैं क्या जानू
यह तो खुदा का रहमो- करम है
आनंद तनहा
Added by anand pandey tanha on October 20, 2010 at 7:03pm —
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इस घटना ने मुझे जबरदस्त सबक सिखा दिया ! हुआ यह कि पिछले दिनों मेरे एक जो की किसी ज़माने में मेरे रूममेट हुआ करते थे मेरे घर पधारे ! उनको मेरे शहर में ही नौकरी मिली थी, लेकिन नया होने की वजह से उनको रहने का कोई ठिकाना अभी तक नहीं मिल पाया था ! क्योंकि उनसे पुरानी जान पहचान थी तो मैं उन्हे अपना समझकर अपने कमरे की चाबी सौंप कर अपने काम पर निकल गया ! लेकिन उस मित्र ने इस पल का भरपूर इस्तेमाल करते हुए मेरे कंप्यूटर की हार्ड डिस्क ही बदल डाली| इस बात का आभास मुझे कल ही हुआ जब मैंने कंप्यूटर ठीक करवाने…
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Added by ABHISHEK TIWARI on October 20, 2010 at 1:30pm —
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काश हर आह सर्द हो जाये,
काश हमदर्द दर्द हो जाये .
अब दवा से मुझे क्या लेना ,
ला- दवा मेरा मर्ज़ हो जाये .
मौत री! ले ले मुझ को दामन में ,
दूर जीवन का कर्ज़ हो जाये .
आंसुओ सूख जाना भीतर ही ,
कहीं जग में न नशर हो जाये .
दीप जीर्वी
09815524600
Added by DEEP ZIRVI on October 20, 2010 at 6:48am —
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ढलती हुई शाम ने
अपना सिंदूरी रंग
सारे आकाश में फैला दिया है,
और सूरज आहिस्ता -आहिस्ता
एक-एक सीढ़ी उतरता हुआ
झील के दर्पण में
खुद को निहारता
हो रहा हो जैसे तैयार
जाने को किसी दूर देश
एक लंबे सफ़र पर I
काली नागिन सी,
बल खाती सड़कों पर
अधलेते पेड़ों के सायों के बीच
मैं,
अकेला,
तन्हा,
चला जा रहा हूँ
करता एक सफ़र,
इस उम्मीद पर
कि अगले किसी मोड़ पर
राहों पर अपनी धड़कनें बिछाए
तुम करती होगी…
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Added by Veerendra Jain on October 20, 2010 at 1:08am —
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सभी को मेरा प्रणाम ... एक नयी कोशिश की है आपके सामने पेश है ...
बहर है
2122 212 2 212 2 212
मंज़िले अपनी जगह, रास्ते अपनी जगह ... आप इस गाने की धुन पे इसे गुनगुना सकते हैं ...
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जानलेवा प्यार है, इस प्यार से तौबा करो
नासमझ ये दिल सही तुम तो इसे टोका करो
किस तरफ हो जा रहे, इस राह की मंज़िल है क्या
देर थोड़ी बैठ कर, तुम दूर तक सोचा करो
तुम बचाओ मुझसे दामन, पास…
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Added by vikas rana janumanu 'fikr' on October 19, 2010 at 3:00pm —
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