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ढलती हुई शाम ने
अपना सिंदूरी रंग
सारे आकाश में फैला दिया है,
और सूरज आहिस्ता -आहिस्ता
एक-एक सीढ़ी उतरता हुआ
झील के दर्पण में
खुद को निहारता
हो रहा हो जैसे तैयार
जाने को किसी दूर देश
एक लंबे सफ़र पर I

काली नागिन सी,
बल खाती सड़कों पर
अधलेते पेड़ों के सायों के बीच
मैं,
अकेला,
तन्हा,
चला जा रहा हूँ
करता एक सफ़र,
इस उम्मीद पर
कि अगले किसी मोड़ पर
राहों पर अपनी धड़कनें बिछाए
तुम करती होगी मेरा इंतेज़ार I

और इसलिए
हर मोड़ पर
झाँक लेता हूँ चुपचाप
कि किसी ने पुकारा तो नही मेरा नाम
इस अनजान डगर पर
इस अनजान सफ़र पर I

ना जाने कब
ख़त्म होगा
ये इंतज़ार,
ना जाने कब
ख़त्म होगा
ये सफ़र,
मेरा,
तुम्हारा,
हम दोनों का I

है मेरे मन को ये विश्वास
कि जल्द होने को है समाप्त
तुम्हारा suffer और मेरा सफ़र I

और फिर,
पकड़े एक-दूसरे का हाथ
थामे धड़कनों का साथ
जीवन की उबड़-खाबड़ राहों पर
बन एक-दूसरे का सहारा
करेंगे हम एक स्वर्णिम सफ़र,
जीवन के अंतिम पड़ाव तक
और फिर चल पड़ेंगे हम भी
सूरज की तरह,
किसी और जहाँ की ओर
एक लंबे सफ़र पर II

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Comment

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Comment by Veerendra Jain on October 25, 2010 at 11:22pm
dhanyawad preetamji...
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on October 25, 2010 at 12:04pm
ना जाने कब ख़त्म होगा ये इंतज़ार,
ना जाने कब ख़त्म होगा ये सफ़र मेरा,
तुम्हारा,हम दोनों का इ

बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने वीरेंदर साहब.....बहुत खूब,,,,ऐसेही लिखते रहे...अगली रचना का इंतज़ार रहेगा....
Comment by Veerendra Jain on October 23, 2010 at 12:01am
bahut bahut dhanyawad...Singh sahab....

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on October 22, 2010 at 7:44pm
बहुत सुन्दर भावनाएं और सुन्दर चित्रण
प्रेयसी का साथ और जीवन का लम्बा सफ़र.......... यक़ीनन आसान हो जाता है
Comment by Veerendra Jain on October 21, 2010 at 11:46pm
Navinji... bahut bahut dhanyawad...aapne meri rachna padhi aur usse saraha, iske liye bahut bahut aabhar..
Comment by Veerendra Jain on October 21, 2010 at 11:44pm
Ganesh ji bahut bahut aabhar.... aapke comments bahut hi protsahit karte hain...dhanyawad

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 21, 2010 at 10:03am
और फिर,
पकड़े एक-दूसरे का हाथ
थामे धड़कनों का साथ
जीवन की उबड़-खाबड़ राहों पर
बन एक-दूसरे का सहारा
करेंगे हम एक स्वर्णिम सफ़र,
जीवन के अंतिम पड़ाव तक,

आमीन ! ऐसा ही हो !
वीरेन्द्र साहिब बहुत बढ़िया, सुंदर ख्यालात, प्रकृति के साये मे घुमती हुई यह रचना वास्तव मे बहुत ही बेहतरीन बनी है , बधाई कुबूल कीजिये |
Comment by Veerendra Jain on October 20, 2010 at 11:14pm
Julie ji बहुत बहुत धन्यवाद...उम्मीद करता हूँ की आप इसी तरह मेरे प्रयासों की सराहना करती रहेंगी, साथ ही मेरी ग़लतियाँ भी बताती रहेंगी... शुक्रिया
Comment by Julie on October 20, 2010 at 9:50pm
और सूरज आहिस्ता -आहिस्ता
एक-एक सीढ़ी उतरता हुआ
झील के दर्पण में
खुद को निहारता

वाह... बहुत बहुत सुंदर कल्पना... और सफ़र के शुरू होने से पहले अंदर का डर... बहुत ही बेहतरीन अंदाज़ में शब्दों में पिरोया है आपनें वीरेंद्र जी... बधाई... सुंदर रचना के लिए...!!

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