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भारतीय सेना को समर्पित एक घनाक्षरी.........

भारती के झंडे तले, आए दिवा रात ढले,
देश के जवान चले, माँ की रखवाली में |

बाजुओं में शस्त्र धरें, मौत से कभी न डरें,
साथ-साथ ले के चलें, शीश मानो थाली में |

नाहरों की टोली बने, खून से ही होली मने,
शादियों में तोप चले, गोलियाँ दिवाली में |

भाग जाना दूर बैरी, वर्ना नहीं खैर तेरी,
काट-काट फेंक देंगे, एक-आध ताली में ||

Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 1, 2012 at 9:17am — 10 Comments

हाँ वही मेरी प्रिया है

जिसमे राष्ट्रिय मान  भी  हो!

दूजों के प्रति सम्मान  भी हो!

अभिमान नही किंचित मन में,

पर दृढ़मय स्वाभिमान भी हो!

 

वाणी  से  केवल सत्य कहे!

जो सत्य हेतु  हर कष्ट सहे!

निर्बल का जो बल बन जाए!

परदुख से जिसके  नैन  बहें!

उस अदृश्य को ही मैंने, मन समर्पित कर दिया है!

हाँ  वही  मेरी  प्रिया  है, हाँ  वही  मेरी प्रिया है!

 

जो  अत्याचार  विरोधी  हो!

अन्याय-राह   अवरोधी  हो!

पथभ्रष्ट जनों की खातिर…

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Added by पीयूष द्विवेदी भारत on September 1, 2012 at 7:00am — 10 Comments

नए कवि की तरह

खूँटी पे लटकी

खाली पोटली

मुँह ताक रही है

कोई आएगा

जो झाड़ देगा

इसमें जमी धूल

बिलकुल वैसे ही

जैसे मुक्तिबोध

की कोई कविता

टंगी हो 

समीक्षक के

इंतज़ार में

लेकिन उसे नहीं पता

अब कोई नहीं छेड़ेगा

उस खाली पोटली को

क्यूंकि वो एंटीक है

उसे म्यूजियम में रखा जायेगा

प्रदर्शनी की सोभा सा

क्यूँ कोई जीर्ण-उद्धार करेगा

फिर उदाहरण के लिए

क्या दिखाएगा

कुछ भी नहीं

अब तुम दुष्यंत की…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 31, 2012 at 3:30pm — 12 Comments

मेरी सोच

मेरी सोच

तत्पर सी
जिज्ञासा शून्य
सब कुछ जानती हो जैसे
क्या होगा क्या नहीं ???
शब्दों में बिलबिलाती
भावों में छट-पटाती सी
स्वरों में मचलती सी
तोड़ने को चक्रव्यूह
बिलकुल अभिमन्यु की तरह

भेद जाती है चक्रव्यूह
पहुँच जाती है भीतर
पर लौटते वक़्त
तोड़ देती है दम
कौरवी छल से हुए आक्रमण
और दमन चक्र से
बच नहीं पाती है
"मेरी सोच"

संदीप पटेल "दीप"

Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 31, 2012 at 2:42pm — 2 Comments

कविता का स्वरूप

जहाँ जोर ना चले तलवार का

जहाँ मोल ना हो व्यव्हार का

तब सन्देश का माध्यम बन

समस्या करती छू मन्तर

कभी प्रेम प्रसंग का ताना बुन

शब्द लाती मैं चुन चुन

व्याकुल हो जब कोई मन

अंकुश लगाती शंकित मन

सूचक दे छवि विषाद का

आन्तरिक सुख को करूं अपर्ण

वीर रस का जब

ब्खान हूँ करती

मुर्दों में भी जीवन भरती

शब्दों के मैं मोती बना

भावना ऐसी व्यक्त करती

नीरस जीवन में जब

रंग रस मैं भरती

संकोची हृदय की जब व्यथा सुनती

उन्मुक्त…

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Added by PHOOL SINGH on August 31, 2012 at 2:00pm — 5 Comments

देश की दारुण दशा हमसे सहन होती नहीं

देश की दारुण दशा हमसे सहन होती नहीं

सोन चिड़िया की कथा भी स्मरण होती नहीं



हो रहे पत्थर मनुज सब आँख का पानी सुखा

जल रहे हैं आग में लेकिन जलन होती नहीं



मर चुका ईमान सबका बेदिली है आदमी

फिर रहीं बेजान लाशें जो दफ़न होती नहीं…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 31, 2012 at 1:00pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ये माटी सभी की कहानी कहेगी ||

कहाँ बदन पर सजी रंगोली

कहाँ हुआ उसका खनन

कब कोई उसमे विलीन हुआ

कहाँ हुआ पूजा हवन

सब युगों युगों तक निशानी रहेगी

ये माटी सभी की कहानी कहेगी |



कहाँ प्यासे जिस्म में पड़ी दरारें

कहाँ निर्बाध जल में नहाया बदन

कहाँ इंसां ने बंजर बनाया

कहाँ लहलहाया मदमस्त चमन

जब तलक हवाओं में रवानी रहेगी

ये माटी सभी की कहानी कहेगी |



कहाँ मेढ़ों ने करे विभाजन

कहाँ जुड़े सांझे आँगन

कहाँ सुने मिलन के गीत

कहाँ बरसा विरह का सावन

इन…

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Added by rajesh kumari on August 31, 2012 at 12:00pm — 15 Comments

नित्कर्म ही धर्म (दोहे)

मर्यादित आचरण ही,सद्चरित्र व्यवहार,
सद्चरित्र व्यवहार से,हो दर्शन करतार //

कर दर्शन करतार के, सदाचार सोपान,
सदाचार सोपान से, होगा बेडा पार //

होगा बेडा पार तब,परहित तेरे कर्म,
परहित तेरे कर्म हो, उसेही मनो धर्म //

पुरुषोत्तमश्री राम का, है मर्यादित चरित्र,
अनुशासित नित्कर्म, है आचरण पवित्र //

जीवन दर्शन तत्व को,कृष्ण ही समझाय
युक्ति संगत करम को, कर्मयोगी बतलाय //

-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला,जयपुर

Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 31, 2012 at 11:30am — 16 Comments

आखिर

(१)

कभी फुर्सत में चले आना,हँस के जी लेंगे

ज़िक्र उनका न करेंगे होंठ सी लेंगे

दिल तो आखिर दिल है उदास भी हो सकता है

दर्द गर बढ़ भी गया दिल का,जाम पी लेंगे

 

(२)

हम मुहब्बत के पुजारी हैं इश्क करते हैं

ग़म के सहरा पे चलनें का दम भरते है

दर्द का रिश्ता तो इस दिल पुराना है दोस्त

हम तो तन्हाई में जीने का हुनर रखते हैं

(3)

 

बेगुनाही का सबूत हमसे न मांगो यारो

हमने तो चाहा,खता इतनी सी थी…

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Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 31, 2012 at 11:00am — 5 Comments

"मेरे सपने"

बात कुछ ऐसी थी, सपनो में हम खो से गए..०१

चांदनी रात थी,

उजला आकाश था..

नदियों में लहरे,

और नीला प्रकाश था..

मछलियों की वो गुनगुनाहट,

और हर-हराती लहरे..

क्या खूब नज़ारा,

मन क्यों न अब उसपर ठहरे..



बात कुछ ऐसी थी, सपनो में हम खो से गए..०२

फिर शांत हुई लहरे,

मेरा चेहरा सामने आया..

जैसे
नदियों ने मुझे,

गोद में था बैठाया..

सुकून  इतना मिला,

जैसे पा लिया ईश्वर को.

जैसे मिल…

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Added by Pradeep Kumar Kesarwani on August 31, 2012 at 11:00am — 5 Comments

गुनाहगार बनाया क्यों ?

 

ऐ मालिक ! बता दे तू , कि बहार बनाया क्यों ?

गर बहार बना था , तो उजाड़ बनाया क्यों ?

चमन में खिलती हैं कलियाँ , कली से नेह भौरों को .

पर भंवरे काँप उठे उस वक़्त , आखिर खार बनाया क्यों ?

जुदाई प्यार की मंजिल , तड़पना दिल को पड़ता है .

दिवाना कहती है दुनिया , तो फिर यह  प्यार बनाया क्यों ?

मिलन की चाह होती है , मिलन होता मुकद्दर से .

तो मिलकर क्यों बिछड़ते हैं , आखिर दीदार बनाया क्यों ?

अगर मापतपुरी जालिम  , तो उस पे कर करम मौला .

ख़ता…

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Added by satish mapatpuri on August 31, 2012 at 2:15am — 4 Comments

पांच मुक्तक

प्रेम मोबाइल में अगर,बैलेडिटी विश्वास हो,

नेटवर्क समन्वय हो पुख्ता,हृदय बैट्री चार्ज हो।

प्रतिपक्ष नम्बर रांग हो,एकांत स्पीकर साफ हो,

नहीं समस्या कोई यारोँ,प्रेम पगी तब बात हो॥



घायल नहीं हुआ कभी,जो तीर ओ तलवार से,

वो ही घायल हो गया,तेरे नजर के वार से।

पैदाइश से आज तक,जीत जिसकी हमसफर,

वो ही जीता जा चुका है,आज तेरे प्यार से॥



यार मैं तो रात का,शुक्र गुजार बन गया हूं,

वो बन गये हैं वादक,मैं सितार बन गया हूं।

बेदर्द बड़े प्यार से,बजाते हैं… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 30, 2012 at 10:07pm — 4 Comments

काल का आवेग (गीत)

कठिन काल के आवेगों से,कभी नहीं बच पाओगे,

परिवर्तन ही सत्य जगत का,सच को कहा छुपाओगे।

लौह सदृश इस सुगढ़ देह को,देख नहीं इतराओ तुम,

जब आयेगी काल की आंधी,तिनके सम उड़ जाओगे॥



ध्वस्त हुआ रावण का सपना,जो त्रैलोक्य विजेता था,

अस्त हुआ साम्राज्य ब्रिटिश का,अस्त सूर्य ना होता था।

मिटा सिकंदर विश्व विजेता,नेपोलियन बर्बाद हुआ,

अहंकार यदि नष्ट हुआ ना,मिट्टी में मिल जाओगे॥



ईश अंश श्रीराम कृष्ण भी,छोड़ धरा को चले गये,

कालजयी वो भीष्म पितामह,शर-शैय्या से… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 30, 2012 at 9:26pm — 4 Comments

मैं तो हस्ताक्षर करता था ? (लघुकथा)

सर! एक काम था आप से,अगर इजाजत हो तो कहूं-अर्जुन बाबू ने लेखपाल से कहा।

हां कहिए-वह उन्हें ऊपर से नीचे तक देखते हुये बोला।

सर! नसीबदार से कहिए कि वह इन कागजातों से अपने दस्तखत हटा ले-अर्जुन ने अपना चश्मा ठीक करते हुये कहा।

लेखपाल गरज पड़ा-बड़े बेवकूफ हो तुम?क्या बकवास करते हो?कहीं साइन भी परिवर्तनेबुल है,और वो भी डेड आदमी के?

अरे साहब! काहे को एंग्री होते हो(अपने आदमी की तरफ मुड़कर)तिलक ब्रीफकेस इधर ला न।हां सर! ये 50-50 के 10 बंडल हैं-अर्जुन बाबू ने ब्रीफकेस लेखपाल की ओर बढ़ाते… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 30, 2012 at 8:42pm — 1 Comment

माँ के दामन को ही आसमाँ कह दिया

हमको देखे बिना उसने हाँ कह दिया

मेरे खाना-ए-दिल को मकाँ कह दिया



चाँद तारे मयस्सर मुझे हो गए

माँ के दामन को ही आसमाँ कह दिया



आग तडपी तपिश तिल-मिलाने लगी

सर्द से कोहरे को धुआँ कह दिया



छोड़ के…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 30, 2012 at 1:57pm — 8 Comments

प्रकृति मेरी प्रेयसी

सौन्दर्य तुम्हारा प्रियतमे, सप्तसुर संगीत है!

धरती-गगन संयुक्तता सा, प्रेम अपना गीत है!



संसार ये अतिशय है तप्त, मै बहुत संतप्त हूं!

संतप्तता के इस गहर में, संग तुम तो शीत है!



जग क्षितिज पर पाषाणता के, है तुम्हे भी कष्ट दे!

परन्तु उसी जग हेतु तुममे, शेष अति नवनीत है!



तुम नित करो नवनीत वर्षण, जग बदल सकता नही!

पाषाण मानव के ह्रदय में, कृतघ्न एक रीत है!



सत्प्रेमता का इस मनुज में, भाव कोई है नही!

सो…

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Added by पीयूष द्विवेदी भारत on August 30, 2012 at 11:30am — 8 Comments

उंगलियाँ हम पे यूँ न उठाया करो

उंगलियाँ हम पे यूँ न उठाया करो





हर बार लिया मजा तुमने, हम भी चखे,

इंतज़ार हमें भी कभी तो कराया करो |



दौलते दिल है ये, इन्हें यूँ न बहाओ,


अंखियों से मोती यूँ न छलकाया करो |



हमने जब भी किया शिकवा,सुना तुमने,


शिकायतों का दौर,खुद भी लगाया करो |



फ़िक्र रहती है तुम्हारी,इस दिल को सदा,

नज़रों से दूर यूँ तुम न जाया करो…

Continue

Added by SACHIN on August 30, 2012 at 9:30am — 2 Comments

जीवन एक किताब है (दोहा छंद)

जीवन एक किताब है,तीन प्रमुख अध्याय।

बचपन यौवन वृद्धपन,कहैं सुकवि समुझाय॥



बचपन जीवन भूमिका,यौवन ललित निबंध।

वृद्धापन सारांश है,उत्तम काव्य प्रबंध॥



भाषा रूपी ज्ञान हो,रस चरित्र व्यवहार।

कर्म रीति से युक्त हो,अलंकार गुण भार॥



अनुशासन का व्याकरण,पद लालित्य अनूप।

छंद बद्ध हर पल रहे,कथ्य शास्त्र अनुरूप॥



जीवन पुस्तक में नहीं,यदि बातें उपरोक्त।

श्याम वर्ण पुस्तक लगे,जीवन जैसे शोक॥



अल्ट्रामार्डन हो गये,काव्य और सब… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 29, 2012 at 10:04pm — 5 Comments

तीन सामयिक कह-मुकरियां



निर्दोषों का वह हत्यारा

जन जन ने उसको धिक्कारा

किया कोर्ट ने ठीक हिसाब

क्या सखि अजमल ? नहिं रे कसाब





वो सबका इन्साफ़ करेगा

नहिं हत्याएं माफ़ करेगा

ख़ून का बदला लेगा ख़ून

क्या सखि मुन्सिफ़ ? नहिं कानून 





हुआ आज हर्षित मेरा मन

करूँ ख़ूब उनका अभिनन्दन

काम कर दिया…

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Added by Albela Khatri on August 29, 2012 at 4:30pm — 4 Comments

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