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सौन्दर्य तुम्हारा प्रियतमे, सप्तसुर संगीत है!
धरती-गगन संयुक्तता सा, प्रेम अपना गीत है!

संसार ये अतिशय है तप्त, मै बहुत संतप्त हूं!
संतप्तता के इस गहर में, संग तुम तो शीत है!

जग क्षितिज पर पाषाणता के, है तुम्हे भी कष्ट दे!
परन्तु उसी जग हेतु तुममे, शेष अति नवनीत है!

तुम नित करो नवनीत वर्षण, जग बदल सकता नही!
पाषाण मानव के ह्रदय में, कृतघ्न एक रीत है!

सत्प्रेमता का इस मनुज में, भाव कोई है नही!
सो त्याग मनुज मेरे मन को, एक तुमसे प्रीत है!


-पियुष द्विवेदी ‘भारत’

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Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on September 3, 2012 at 8:37am

rajesh kumari

धन्यवाद....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 3, 2012 at 8:34am

पियूष द्विवेदी भारत जी बहुत अच्छी रचना है ओ बी ओ के मंच पर बहुत कुछ सीखने को मिलेगा आपकी लेखनी में सामर्थ्यता  द्रष्टिगोचर हो रही है | शुभकामनाएं 

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on September 3, 2012 at 7:29am

DEEPAK SHARMA KULUVI

शुक्रिया...शुक्रिया...शुक्रिया.!

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on September 3, 2012 at 7:29am

Saurabh Pandey

बधाई हेतु धन्यवाद... बेशक ये रचना हरिगीतिका में हो सकती थी! अभी भी सिवाय चरणों के, कोई विशेष फर्क नही है! पर इन बातों का आभास हमें ये रचना प्रकाशित करने के बाद हुवा, इसलिए हमने छोड़ दिया!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 1, 2012 at 10:19pm

पियुष द्विवेदी 'भारत' आपके प्रयास पर बधाई कह रहा हूँ.

लेकिन आप जानिये कि यदि संयत प्रयास हुआ होता तो यह रचना हरिगीतिका छंद में हो सकती थी. 

Comment by Deepak Sharma Kuluvi on September 1, 2012 at 12:45pm
अतिसुन्दर रचना  भाई मज़ा आ गया  ;;;लिखते रहो......धन्यवाद  & GOOD LUCK
दीपक शर्मा 'कुल्लुवी'
Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on August 31, 2012 at 11:25am

SANDEEP KUMAR PATEL

धन्यवाद......

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on August 31, 2012 at 9:22am

सौन्दर्य तुम्हारा प्रियतमे, सप्तसुर संगीत है!
धरती-गगन संयुक्तता सा, प्रेम अपना गीत है!

 

waah waah kya baat hai

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