कटेगी सिर्फ़ दिलासों से ज़िंदगी कब तक।
रहेगी लब पे ग़रीबों के खामुशी कब तक॥
वरक़ पे आने को बेताब हो रहा है अब,…
ContinueAdded by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on December 10, 2012 at 12:30pm — 7 Comments
हवा में खुश्की बढ़ रही
पर ठण्ड आने में देर है
धूप के बिछौने पर बैठ कर
फुर्सत के दिन आने वाले है
छोटे छोटे दिन पंख लगा कर उड़ा करेंगे
Added by rajluxmi sharma on December 10, 2012 at 12:15pm — 3 Comments
हम उनके कर्ज़दार नहीं,वोह मेरे कर्ज़दार हैं
हम तो आज भी सर आँखों पे बिठाने को तैय्यार हैं
वोह चाहे तो आजमा ले, हम जीत जाएँगे
हमें अपनी दिल्लगी पे ऐतवार है
***(न सुना पाऊंगा) ***
जलता 'दीपक'हूँ हवाओं से तो बुझ जाऊँगा
न करोगे तो कभी याद नहीं आऊँगा
जलता 'दीपक'हूँ हवाओं से तो बु----
(1)धुँधली सी हो…
Added by Deepak Sharma Kuluvi on December 10, 2012 at 12:00pm — 1 Comment
माँ जब तेरी याद आती है,
बारिश में भीगा मैं जब जब
वो हिदायतें याद आती हैं
तुमने दी थीं प्यार से मुझको…
Added by SUMAN MISHRA on December 10, 2012 at 11:30am — 1 Comment
बाला साहिब ठाकरे के निधन पर इन पहलुओं का अहसास हुआ
1.
सुना है आज एक शेर मरा है
जिंदगी की जंग जीतकर
जन सैलाब उमड़ा
अश्रु सैलाब बहा
सबको अकेला छोड़
गया एक अनजान सफ़र पर..
लिए चंदन की खुश्बू,
फूलों का बिस्तर,
रंगीन चश्मा पहन,
जिसमें आगे का लक्ष्य
शायद सॉफ दिखाई दे
अपनी एक पहचान छोड़कर
एक मुकाम पर पहुँचकर
2.
एक मर गया बिन बुलावे के
सुनसान सड़क के
सुनसान किनारे पर
पत्थर तोड़ता वो शख्स
ना किसी…
Added by Sarita Bhatia on December 10, 2012 at 11:30am — 2 Comments
आस्तिक के आ को ना में बदलने में उसे काफी वक़्त लगा था, ऐसा होने के लिए सिर्फ विज्ञान का विद्यार्थी होना ही सबकुछ नहीं होता। कई बार उसने खुद बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को अपने अनुसंधान पत्रों को जर्नल्स में प्रकाशित होने के लिए भेजते समय, कभी गणेश, कभी जीसस तो कभी वैष्णोदेवी की तस्वीरों के आगे आँखें मूँदते देखा था। कुछ उसका मनन था, कुछ चिंतन, कुछ किताबें, कुछ संगत और कुछ दुनिया से उस अलौकिक शक्ति की ढीली पड़ती पकड़, जिन्होंने मिलजुलकर उसे दुनिया में तेज़ी से बढ़ रही इंसानी उपप्रजाति 'नास्तिक' बना…
ContinueAdded by Dipak Mashal on December 9, 2012 at 7:39pm — 8 Comments
लाल गेंद बन उछल गया है ,
बाल सुलभ ज्यों किलक रहा है
कुछ पल ही में रूप बदलकर
अब यौवन में सिमट गया है
स्वर्ण सी आभा फ़ैल रही है
मिटटी स्वर्ण में परिणित होगी
रेनू जाल के सिरे पकड़ कर
दुर्बल काया भी चल देगी
संध्या की चादर हलकी है
मछुवारे के जाल के जैसी
खींच रही पल पल वो उसको
छिपना होगा निशा से पहले…
Added by SUMAN MISHRA on December 9, 2012 at 2:03pm — 2 Comments
प्रतिबिम्बों में जी लूं पहले ....
By Suman Mishra on Tuesday, 27 November 2012 at 13:25 ·
एक सत्य जो सबको दिखता,
एक सत्य प्रतिबिंबित सा है
वेगवान है जीवन पल पल
रुक थोड़ा तू दिग्भ्रमित क्यों है
जी लूं कुछ पल खुद को खुद में
कह लूं सुन लूं खुद से खुद मैं
एक बार मैं हंस लूं खुद पे
फिर पट…
ContinueAdded by SUMAN MISHRA on December 8, 2012 at 1:30pm — 5 Comments
एक सतह इस धरती पर, धूल , फूल और वृक्ष हैं फैले
एक सतह मन के धरती पर, अंतस तक यादों के झूले
दूर दूर तक आँखों का ताकना, राह वही पर पथिक न मेले
गति और मति दोनों ही संग में , कहाँ किसे अपने संग ले लें ,
कितनी दूर चलोगे संग में वो अदृश्य जो हाथ बढाता
मैं उसकी वो मेरा प्रति पल, गहरा है…
Added by SUMAN MISHRA on December 8, 2012 at 1:30pm — 6 Comments
हम पेट भर नहीं सके अख़बार बेचकर।।
वो हो गये अमीर समाचार बेचकर।।।।
अरमान किसके मर रहे हैं,उनको क्या ख़बर,
वो आज कितने खुश हो गये प्यार बेचकर।।
कल उनके हाथों में दे दिये हमने अपने हाथ,
अब मारे-मारे फिरते हैं बाज़ार बेचकर।।।
अब ज़ालिमों को भी सज़ा मिलती नहीं कंही,
भगवान जैसे सो गये संसार बेचकर।।
हालात ने बदल दिया कितना हमें "सुजान"
हम बावकार हो गये किरदार बेचकर।।
सुजान........
Added by सूबे सिंह सुजान on December 8, 2012 at 12:30am — 11 Comments
तुमको जब मैं संग न पाऊँ
व्याकुल मन कैसे समझाऊँ
बेकल हो यह सोच रहा कैसे
तुझसे तुझको मैं चुराऊँ
मृदु भावों से कलम भरी है
प्रीत भरी मन की नगरी है
धन वैभव प्रिय पास न मेरे
शब्द बना मोती बरसाऊँ
मिलो जो तुम तो खो जाऊं मैं
जुदा स्वयं से हो जाऊँ मैं
स्वप्न अगर ये स्वप्न ही सही
स्वप्न सत्य सा लखता जाऊँ
आठों पहर साथ हो तेरा
जीवन का हर सांझ सवेरा
नाम तेरे कर दूँ, सौरभ बन
श्वांस में तेरी मैं घुल जाऊँ…
Added by praveen on December 7, 2012 at 11:00pm — 4 Comments
बात कुछ भी तो कही होती
यकीनन वो सही होती।
रुख से पर्दा हटाना किसलिये
बात घर में ही रही होती।
रात में चांदनी को छेड़ा क्यों
संग लहरों के खेलती होती।
ख्वाब जब मखमली होने से लगें
नींद कच्ची कोई नहीं होती।
(लिखने की शुरुवात है, बस मन में आया लिख दिया)
Added by mrs manjari pandey on December 7, 2012 at 7:30pm — 5 Comments
नेता जी का फ़ोन
नेता जी को फ़ोन लगाया घंटी बजी.
बात होने की उम्मीद जगी,
तभी कम्पुटर बोला
इस रूट की सारी लाइने ब्यस्त है
नेता जी मस्त है.
बात होने की आस न करे.
कृपया…
ContinueAdded by Dr.Ajay Khare on December 7, 2012 at 5:00pm — 3 Comments
धरती माँ ही पालती, रख नारी का मान,
यही रहेगी संपदा, कर नारी के नाम ।
बहती नदी सी नारी, दूजे घर को जाय,
अपनावे ता उम्र ही, घर उसका हो जाय ।
ममता भाव की भूखी, केवल चाहे मान,
रुखी सूखी पाय भी, घर की रखती शान ।
झेल रही है बेटियाँ, अपना सब अपमान,
बाँध टूटता सब्र का, तुझे न इसका भान ।
नारी का सम्मान करे, तब घर का तू नाथ,
दूजे घर को छोड़ कर, पकड़ा तेरा हाथ ।
लड़के की ही चाह में, सहन किया है पाप,
भ्रूण हत्या पाप करे, झेले फिर संताप…
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 7, 2012 at 11:00am — 12 Comments
आदरेया प्राची जी के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करते हुए मैंने फिर कुछ हाइकु लिखने का प्रयास किया है, आशा करता हूँ की आप सभी मार्गदर्शन करेंगे.
…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on December 7, 2012 at 11:00am — 8 Comments
वादा किया था कि जल्द ही कुछ पुरानी ग़ज़लें साझा करूँगा,,,
एक ग़ज़ल पेश -ए- खिदमत है गौर फरमाएं ...
फकत शैतान की बातें करे है ?
सियासतदान की बातें करे है !
अँधेरे से न पूछो उसकी ख्वाहिश,
वो रौशनदान की बातें करे है |…
Added by वीनस केसरी on December 7, 2012 at 6:07am — 10 Comments
सुनो!
सूरज में आग है या रोशनी?
चांद में दाग है या शीतलता?
पानी तरल है या सरल?
सागर गहरा है या विशाल?
फूल में कांटे है या खुशबू?
कीचड़ में गंदगी है या कमल?…
Added by priti surana on December 6, 2012 at 11:30pm — 9 Comments
अब तुम पर यकीं कर पायें किस तरह
हम और अब तुम्हे आजमायें किस तरह
ये ख़याल उनको सताता ही रहा
वो मुझको सताएं तो सताएं किस तरह
ये कत्ल हुआ जाने या जाने वो कातिल
क़त्ल करने लगीं ये निगाहें किस तरह
वक़्त के हरेक टुकड़े में खोया तुम्हें
वो गुजरा हुआ वक़्त लायें किस तरह
वो जो हंसकर मिलें बात कुछ तो बढे
अब बुतों से भला बतलाएं किस तरह
वो पूछते हैं फिर रहे तरीके प्यार के
मैं पूछता फिरा तुम्हे भुलाएं किस तरह
बस तेरी है तमन्ना एक…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 6, 2012 at 9:22pm — 2 Comments
,,,,,,,,,ख़ुदा जानॆं ,,,,,,,,
=================
क्या था कल क्या आज है, ख़ुदा जाने !!
छुपा दिल मॆं क्या राज़ है, ख़ुदा जाने…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 6, 2012 at 6:00pm — 3 Comments
अपनी कल की ग़ज़ल में कुछ सुधार किये हैं ग़ज़ल की तकनीकी गलतियाँ दूर करने की कोशिश की है आशा है आप सभी को प्रयास सुखद लगेगा
हैं हम गैरत के मारे पर ये सौदागर कहाँ समझे
लगाई कीमते गैरत औ गैरत को गुमाँ समझे
छिड़क कर इत्र कमरे में वो मौसम को रवाँ समझे
है बूढा पर छुपाकर झुर्रियां खुद को जवाँ समझे
गुलिस्ताँ से उठा लाया गुलों की चार किस्में जो
सजा गुलदान में उनको खुदी को बागवाँ समझे
बने जाबित जो ऑफिस में खुदी को कैद करता है
घिरा दीवार से…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 6, 2012 at 4:00pm — 14 Comments
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