Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 17, 2012 at 11:44am — 3 Comments
वही हँसाता है हमें, वही रुलाता है
गम ओर ख़ुशी देकर आज़माता है
अपनों की अहमियत भी सीखाता है
बिछुडों को फिर वही मिलाता है
यकीं खुदा का तो बड़ा सीधा है
मारता है वही,वही जिलाता है
इसका उसका क्या है जग में
सबका हिस्सा तो वही बनाता है
नेमतें उसकी तो बड़ी निराली है
छीनता है कभी,कभी दिलाता है
मेरे घर में कभी तुम्हारे घर में
खुशियाँ भी तो वही पहुँचाता है
आखिर भूले…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on October 17, 2012 at 11:15am — No Comments
यह हिन्दोस्तान है प्यारे
Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 17, 2012 at 10:52am — No Comments
आप सभी को शारदीय नवरात्र की अनेकानेक शुभकामनाएं
"गायत्री छंद"
विधान -\\१ भगण १रगण १ मगण १ तगण......१ भगण १ यगण १ रगण १ जगण\\
२ १ १ - २ १ २ - २ २ २ - २ २ १ , २ १ १ - १ २ २ - २ १ २ - १ २ १
माँ कमला सती दुर्गा दे दो भक्ति, हो तुम अनंता माँ महान शक्ति ||…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on October 17, 2012 at 10:30am — No Comments
लेख:
हमारे सोलह संस्कार
संजीव 'सलिल'
*
अर्थ:
'संस्कारो हि नाम संस्कार्यस्य गुणकानेन, दोषपनयेन वा' अर्थात गुणों के उत्कर्ष तथा दोषों के अपकर्ष की विधि ही संस्कार है।
शंकराचार्य के ब्रम्ह्सूत्र के अनुसार किसी वस्तु, पदार्थ या आकृति में गुण, सौंदर्य, खूबियों को आरोपित करना / बढ़ाना तथा उसकी त्रुटियों, कमियों, दोषों को हटाने / मिटने का नाम संस्कार है।
संस्कृत भाषा में प्रयुक्त क्रिया (धातु) 'कृ' के पूर्व सम उपसर्ग तथा पश्चात् 'आर' कृदंत के संयोग से बने इस शब्द…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 16, 2012 at 10:09pm — 1 Comment
आँखों मे उम्मीदों के चिराग रख गया कोई
फिर जलने का असबाब रख गया कोई
पकड़कर मेरा चोरी से देखना उसको
राज़-ए-दिल बेनकाब रख गया कोई
करके वादा सफर मे साथ देने का
हौसले बेहिसाब रख गया कोई
झुकाकर शर्म से अपनी पलकें
मेरे सवाल का जवाब रख गया कोई
मेरी नींदों से महरूम आँखों मे
जिंदगी के ख्वाब रख गया कोई
शरद
Added by शरद कुमार on October 16, 2012 at 3:29pm — No Comments
==========ग़ज़ल===========
बहरे - रमल मुसम्मन मह्जूफ़
वज्न- २ १ २ २- २ १ २ २ - २ १ २ २- २ १ २
पीर है खामोश भर के आह चिल्लाती नहीं
वो सिसकती है ग़मों में नज्म तो गाती नहीं
बाद दंगों के उडी हैं इस कदर चिंगारियाँ
आग है सारे दियों में तेल औ बाती नहीं
जिन सफाहों पर गिराया हर्फे-नफ़रत का जहर
हैं सलामत तेरे ख़त वो दीमकें खाती नहीं
चाँद को पाने मचलता जब समंदर…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on October 16, 2012 at 2:00pm — 14 Comments
जिम्मेदारियाँ
हो राज या समाज
धर्म निभाना
जिम्मेदारियाँ
खुद का आंकलन
जाँच परख
जिम्मेदारियाँ
जब भी हो चुनाव
खरा ही लेना
जिम्मेदारियाँ
धरती या आकाश
प्यार ही बाँटे
Added by नादिर ख़ान on October 16, 2012 at 12:44pm — 3 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on October 16, 2012 at 11:00am — 15 Comments
मत्तगयन्द सवैया
नारि सँवार रही घर बार, विभिन्न प्रकार धरा अजमाई ।
कन्यक रूप बुआ भगिनी घरनी ममता बधु सास कहाई ।
सेवत नेह समर्पण से कुल, नित्य नयापन लेकर आई ।
जीवन में अधिकार मिले कम, कर्म सदा भरपूर निभाई…
ContinueAdded by रविकर on October 16, 2012 at 9:45am — 9 Comments
नव रात्री नव रात है,नव जीवन संदेश/
तन मन भवन शुद्ध रखो,आये माँ किस भेष//
भक्तगण नव रात्री में,रखते हैं उपवास/
कन्या पूजन भी करें,माँ का यही निवास//
देखो कैसे सज रहा,माता का दरबार/
माँ के दर्शन को लगी,लम्बी बहुत कतार//
जयकारों से मात के,गूंज रहा दरबार/
माता का आशीष ले,पायें शक्ति अपार//
गरबा रमती मात है,चहुँ दिसि उत्सव होय/
भक्त यहाँ सुख पात हैं,सबके मंगल…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on October 16, 2012 at 7:59am — 11 Comments
देख-देख दुनिया हँसी, मन ही मन में कोसती |
नन्हा सा पौधा चला, पेड़ से करने दोस्ती ||
कैसा गड़बड़झाल ये, जाने कैसा खेल है,
लोटे औ जलधाम का, होता कोई मेल है |
आ जाएगा घूम के, सबकी खोपड़ सोचती,
नन्हा सा पौधा चला, पेड़ से करने दोस्ती ||
पौधा है नवजात ये, कोमल इसकी डाल है,
हट्टा-कट्टा पेड़ तो, मानो गगन विशाल है |
बुढ़िया काकी…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on October 16, 2012 at 7:27am — 12 Comments
दोहा सलिला:
सूत्र सफलता का सरल
संजीव 'सलिल'
*
सूत्र सफलता का सरल, रखें हमेशा ध्यान।
तत्ल-मेल सबसे रखें, छू लें नील वितान।।
*
सही समन्वय से बने, समरस जीवन राह।
सुख-दुःख मिलकर बाँट लें, खुशियाँ मिलें अथाह।।
*
रहे समायोजन तभी, महके जीवन-बाग़।
आपस में सहयोग से,…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 15, 2012 at 8:00pm — 6 Comments
“मीत मन से मन मिला तू और स्वर से स्वर मिला,”
कर लिया यह कर्म जिस ने उस को ही ईश्वर मिला.
कांच की कारीगरी में जो निपुण थे साथियों,
आजकल उन के ही हाथों में हमें पत्थर मिला.
पेट भर रोटी मिली जब भूखे बच्चों को हुज़ूर,
सब कठिन प्रश्नों…
Added by लतीफ़ ख़ान on October 15, 2012 at 1:30pm — 15 Comments
Added by Er. Ambarish Srivastava on October 15, 2012 at 11:43am — 16 Comments
मैं निर्मल ,निःस्वार्थ
प्रस्फुटित हुआ
एक अभिप्राय के निमित्त
हर लूँगा सबका अभिताप ,व्यथा
अपनी अनुकम्पा से
अलौकिक अभिजात मलय
के आँचल की छाँव में
श्वास लेकर बढ़ता रहा
कब मेरी जड़ों में
वर्ण, धर्म भेद मिश्रित
नीर मिलने लगा
कब वैमनस्य ,स्वार्थ परता
की खाद डलने लगी
पता ही नहीं चला
विषाक्त भोजन
विषाक्त वायु ,नीर
से मेरे अन्दर कसैला
जहर भरता गया
फिर जो…
ContinueAdded by rajesh kumari on October 15, 2012 at 10:35am — 9 Comments
मुझको बता रहें हैं मेरी हद वो आजकल।
लगता है भूल बैठे हैं मक़्सद वो आजकल॥
उनका मुझे परखने का अंदाज़ देखिये,
लीटर से नापते हैं मेरा क़द वो आजकल॥
हल्के हवा के झोंके भी जो सह नहीं सके,
कहते फिरे हैं अपने को अंगद वो आजकल॥
रिश्तों की बात करते नहीं हैं किसी से अब
घायल हुए हैं अपनों से शायद वो आजकल॥
कल तक पकड़ के चलते थे जो उँगलियाँ मेरी
कहने लगे हैं अपने को अमजद वो आजकल॥
ख़ुद अपनी मंज़िलों की जिन्हें कुछ ख़बर नहीं,
पहुंचा रहे हैं औरों को…
Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on October 15, 2012 at 12:30am — 10 Comments
मानव मणि:
नर से नारायण - स्वामी विवेकानंद
संजीव 'सलिल'
*
'उत्तिष्ठ, जागृत, प्राप्य वरान्निबोधत।'
'उठो, जागो और अपना लक्ष्य प्राप्त करो।'
'निर्बलता के व्यामोह को दूर करो, वास्तव में कोई दुर्बल नहीं है। आत्मा अनंत, सर्वशक्ति संपन्न और सर्वज्ञ है। उठो! अपने वास्तविक रूप को जानो…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 14, 2012 at 4:51pm — 4 Comments
सूरज ताप बढ़ाकर जो मरुभूमि धरा पर दृश्य दिखाता,
मानव अक्सर जीवन में यह रीत मिसाल बना भरमाता,
भाग रहा वह तेज भयंकर झूठ कहे फिर भी अपनाता,
हाथ न आय तहाँ वह रोकर व्याकुल नीर बहा पछताता/
Added by Ashok Kumar Raktale on October 14, 2012 at 1:00pm — 11 Comments
मेरे पास नहीं
बूढ़े बरगद सी बाहें
फैलाकर
जिन्हें अनवरत
बांट सकूं
छांह
धरती को चीरती
विकराल जड़ें -
गहराइयों की
लेती जो थाह
पास नहीं मेरे
पीपल का जादुई
संगीत
वो हरी- भरी
काया ,
वह पत्तों का
मर्मर गीत
कोई न
पूजे मुझको
पीपल, बरगद
के मानिंद
कंटकों से
पट गयी है
देह ऐसे-
निकट आते
हैं नहीं
खग वृन्द
मरुथली संसार में
रेत के विस्तार में…
Added by Vinita Shukla on October 14, 2012 at 12:30pm — 14 Comments
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