कोई भी बात दिल से न अपने लगाइये,
अब तो ख़ुद अपने दिल से भी कुछ दिल लगाइये ।
दिल के मुआमले न कभी दिल पे लीजिये,
दिल टूट भी गया है तो फिर दिल लगाइये ।
दिल जल रहा हो गर तो जलन दूर कीजिये,
दिलबर नया तलाशिये और दिल लगाइये ।
तस्कीन-ए-दिल की चाह में मिलता है दर्द-ए-दिल,
दिलफेंक दिलरुबा से नहीं दिल लगाइये ।
दिल हारने की बात तो दिल को दुखाएगी,
दिल जीतने की सोच के ही दिल लगाइये ।
बे-दिल, न मुर्दा-दिल, न ही संगदिल, न…
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Added by moin shamsi on September 26, 2010 at 5:30pm —
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अब कहाँ किसी में रही सोचने कि फुरसत ,
देखी गई हैं अक्सर इन्सान की ये फितरत ,
जाने कहाँ चली गई इंसानों से इंसानियत ,
यही हैं यही हैं यही हैं असलियत ,
अबलाओ पे अत्याचार चोर बन गए पहरेदार ,
होने लगी है अक्सर अपनों में ही तकरार ,
देखो यारो बदली कैसी इंसानियत कि सूरत ,
अंधी हो गई अपनी इंसाफ कि ये मूरत ,
यही हैं यही हैं यही हैं असलियत ,
आप रहो अब होशियार जानने को तैयार ,
अजब लगेगा आपको लोगो का व्यवहार ,
क्या न करवाए सब कुछ पाने कि…
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Added by Rash Bihari Ravi on September 26, 2010 at 5:00pm —
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दहेज का दानव बहुत बड़ा है
मुँह विकराल किये खड़ा है ,
कितना भी रोको नही रुकता यह,
रक्तबीज जैसा अपना आकार किया,
पिताओं की पगड़ी इसने उछाली है,
बेटियों के अरमानो को तार तार किया,
कई बेटियों को इस दानव ने जला दिया,
ताने सुन सुन कर जीना हुआ मुहाल,
जो बेटी दहेज न लेकर आई ससुराल,
उस बेटी का क्या था कसूर,
मारकर घर से उसे निकाल दिया,
कैसी परंपरा जो है सब मजबूर,
देश के युवा अब करो कुछ तुम्ही उपाय,
दहेज दानव जल्द से जल्द मारा…
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Added by Pooja Singh on September 26, 2010 at 8:30am —
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::: गुलिस्तान ::: © (मेरी नयी क्षणिका )
कहने को तो तुम्हें दे देने थे, यह फूल मगर, ज़माने को यह गवारा न था !!
सूख चुके हैं फूल मगर, अब भी तत्पर हूँ देने को यह गुलिस्तान तुम्हें .. !!
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 25 सितम्बर 2010 )
.
Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 26, 2010 at 1:00am —
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चंद अश'आर:
तितलियाँ
--- संजीव 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
'भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया'?
*
कहा तितली ने 'मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले'..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 25, 2010 at 10:00pm —
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न सोंच दिल कि तुम्हारी खता कहाँ थी
कर ले ख़्याल इतना हमारी वफा कहाँ थी
भड़कती नहीं चिंगारियां संग और आब से
रंजिश में तेरी भी दिलक़श ब्यां कहाँ थी
गै़र की बदसुलूकी से आज तुं क्यूं परेशां
बेअदबी पर खुद की शर्मो हया कहाँ थी
गै़र की करतुतो पर दिलों में शुगबूगाहट
अपनी ख़ता का दिल में चर्चा कहाँ थी
औरों से चाहत तेरी तमन्ना तहजीब की
ईमानदारी तेरी पेशगी में जवां कहाँ थी
इक वजह अदावत की दुनिया में खुदगर्जी
जब बनी थी कायनात…
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Added by Subodh kumar on September 25, 2010 at 4:53pm —
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ज़मीर इसका कभी का मर गया है ,
न जाने कौन है किस पर गया है.
दीवारें घर के भीतर बन गयीं हैं,
सियासतदां सियासत कर गया है.
तरक्की का नया नारा न दो अब ,
खिलौनों से मेरा मन भर गया है.
कोई स्कूल की घंटी बजा दे,
ये बच्चा बंदिशों से डर गया है.
बहुत है क्रूर अपसंस्कृति का रावण ,
हमारे मन की सीता हर गया है.
शहर से आयी है बेटे की चिट्ठी,
कलेजा माँ का फिर से तर गया है.
Added by Abhinav Arun on September 25, 2010 at 3:30pm —
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खुदाई जिनको आजमा रही है,
उन्हें रोटी दिखाई जा रही है.
शजर कैसे तरक्की का हरा हो,
जड़ें दीमक ही खाए जा रही है.
राम उनके भी मुंह फबने लगे हैं,
बगल में जिनके छुरी भा रही है .
कहाँ से आयी है कैसी हवा है ,
हमारी अस्मिता को खा रही है.
तिलक गांधी की चेरी जो कभी थी ,
सियासत माफिया को भा रही है.
हाई-ब्रिड बीज सी पश्चिम की संस्कृति ,
ज़हर भी साथ अपने ला रही है .
शेयर बाज़ार ने हमको दिया क्या ,
गरीबी और बढती…
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Added by Abhinav Arun on September 25, 2010 at 3:00pm —
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नवगीत:
बरसो राम धड़ाके से
संजीव 'सलिल'
*
*
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
लोकतंत्र की
जमीं पर, लोभतंत्र के पैर
अंगद जैसे जम गए अब कैसे हो खैर?
अपनेपन की आड़ ले, भुना
रहे हैं बैर
देश पड़ोसी मगर बन- कहें मछरिया तैर
मारो इन्हें कड़ाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
कर विनाश
मिल, कह रहे, बेहद हुआ विकास
तम की कर आराधना- उल्लू कहें उजास
भाँग कुएँ में घोलकर,…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 25, 2010 at 10:30am —
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पीड़ा का इक पल दर्पण
टूटा पल मे, पल मे बिखर गया |
इक मोती सा विश्वास मगर,
अन्तस मे कहीं ठहर गया |
उमडाया ये खालीपन,
गहराया ये सूनापन,
एकान्त अकेला कहीं गुजर गया |
मन ने वीणा के फ़िर तार कसे
उठो, कोई चुपके से ये कह गया |
विचलित होता अन्त:मन,
उभरा हर क्षण ये चिन्तन,
मन अनजाने ये किधर गया |
ह्र्द्य मे अपना सा एह्सास लिये
भींगी आंखो मे जो उभर गया |
करता पल पल ये क्रन्दन,
धडका बूंद बूंद ये जीवन,
छांव ममता…
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Added by Rajesh srivastava on September 25, 2010 at 9:00am —
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धर्म या राजनीति © (
सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )
►
विवाद और मानव ► विवाद और मानव, दोनों का चोली दामन का साथ है ... प्राचीन काल, जब मनुष्य सभ्य नहीं था तभी से संघर्षों, ईर्ष्या, जलन आदि का चलन चला आ रहा है ...मगर उसका जो स्वरुप आज है उससे खुश होने की नहीं वरन शर्मिंदा होने की आवश्यकता है ... बच्चे ने छींक मारी, चुड़ैल पड़ोसन जिम्मेदार है ... घर, दफ्तर, बाज़ार सभी इसकी चपेट में हैं ... मंदिर के बाहर अधखाये…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 24, 2010 at 10:31pm —
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किससे करूं मै बात ,उन जनाब की
जिनसे की है मुहब्बत बे-हिसाब की
दीखते नही वो दिन में ,रातें भी स्याह हुई
हुई मद्धम रोशनाई मेरी वफ़ा-ए-महताब की
किससे गिला करूं कहाँ तहरीर दूं ?
कोई ढूंढ लाये तस्वीर मेरे ख्वाब की
बिखर जाएगी शर्मो -हया इस जहाँ में
जो बरसों से हिफाजत में है हिजाब की
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on September 24, 2010 at 10:00pm —
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न मिलेगा सुकूने दिल सियाह चाहे रोशनी में
खलबली सी फ़कत रहेगी तेरे बगै़र जिऩ्दगी में
तुम से बिछुड़कर हाल हमारा कुछ ऐसा होगा
तेरे तस्सवुर में उम्र कटेगा हर पल बेबसी में
बहारों का क्या फायदा गर एहसास में खि़जा
माहताब भी गर्क हो जाये सबे ता़रीकी में
नजरें दरिचा बन जाये दिल ख़्यालों का मकां
दफ्न हो जाये वजूद तन्हाई के आरसतगी में
ओ रूखसत होने वाले देता जा तदवीर कोई
दिलबस्तगी का बहाना होगा तेरे नामौजुदगी में
मुश्किल से मिलता…
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Added by Subodh kumar on September 24, 2010 at 8:00pm —
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सोचता है एक गरीब,
मैं कैसे अमीर बन पाउँगा।
इन गरीबों के दिनों को,
मैं कैसे भगाउँगा।।
कट जाता है समय,
दो शाम की रोटी जुटाने में।
फिर भी भरता नहीं पेट,
इस महगाई भरे जमाने में।।
रोते हैं बीबी और बच्चे,
जब मैं शाम को घर जाता हूँ।
कोशते हैं इस गरीबी को,
फिर भी मैं इसे नहीं भगा पाता हूँ।।
सोचता है एक गरीब,
मै कैसे अमीर बन पाउँगा।
इन गरीबों के दिनों को,
मैं कैसे भगाउँगा।।
Added by Deepak Kumar on September 24, 2010 at 11:19am —
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ऐ माँ मत मार मुझे,
मैं दुनियां में आना चाहती हूँ।
ऐ माँ मैं इस संसार में जन्म लेकर,
जीवन चक्र बढ़ाना चाहती हूँ।।
ऐ माँ मैं बड़ी होकर,
डॉक्टर, इन्जीनियर बनना चाहती हूँ।
ऐ माँ मैं किसी से शादी कर-कर,
उसका वंश बढ़ाना चाहती हूँ।।
ऐ माँ मत समझ बोझ मुझे,
मैं तेरा भी बोझ उठाउँगी।
ऐ माँ मैं तेरे बुढ़ापे को,
बेटे से ज्यादा सवारूँगी।।
ऐ माँ तुमने ये कैसे सोच लिया,
तुम भी तो किसी की बेटी हो।
ऐ माँ…
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Added by Deepak Kumar on September 24, 2010 at 11:00am —
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::::: हाँ यहीं तो हो तुम ::::: © (मेरी नयी कविता)
हाँ यहीं तो हो तुम, और जा भी कहाँ सकती हो ...
तलाशते रहेंगे एक दूसरे में खुद को मगर ...
साये के साये में, साये को खोज पाएंगे कैसे ... ?
कोशिशें, तलाश, और यही ज़द्दोज़हद ढूंढ पाने की ...
जैसे खुद में दूसरा बाशिंदा बसा रखा हो हमने ...
गर हाथ थाम लेती जो तुम पास आकर मेरा ...
मौजूद साये को साये से अलहदा भी देख पाता ...
मगर ज़रूरत ही क्या तुम्हें अलहदा…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 23, 2010 at 10:00pm —
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//कोशिश//
तूने शब् -ऐ -विसाल को आने नहीं दिया ,
मैंने भी इस मलाल को आने नहीं दिया .
रखा है खुद को दूर तेरी याद से बहुत
दिल में तेरे ख्याल को आने नहीं दिया !
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//पहचान//
नाम -ओ -निशान मेरा मिटेगा नहीं कभी
गुलशन में खुश्बुओ की झलक छोड़ जाऊंगा
गुलचीं मसल के देख मुझे मै वो फूल हूँ
हाथो में तेरे अपनी महक छोड़ जाऊंगा…
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Added by Hilal Badayuni on September 23, 2010 at 7:00pm —
3 Comments
तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,
फिर भी जलने को दिल करता है ,
तुम्हारी तपिश से दिल में ,
एक हलचल सी उठती है ,
उसी हलचल में खो जाता हूँ ,
तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,
मगर तुम्हे आग कहना ग़लत होगा ,
कारण, तुम्हारा वो रूप भी देखा है ,
जो बर्फ की शीतलता लिए ,
तन मन को रोमांचित कर देता है ,
और मैं तुम्हारा हो जाता हूँ ,
तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,
कभी कभी लगता हैं मुझे ,
सावन की रिमझिम फुहार हो ,
और तुम जब बरसती हो…
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Added by Rash Bihari Ravi on September 23, 2010 at 6:30pm —
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चाँद दरिया में शब भर उतरता रहा .
उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.
एक जवां हुस्न के करवटें लेने से.
चाँदनी का बदन सर्द जलता रहा.
उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.
चाँद छिपने का होता रहा तब भरम.
गेसू रुखसार पे जब बिखरता रहा.
उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.
आ ना जाए क़यामत ये डर भी हुआ.
जब-जब सीने से आँचल सरकता रहा.
उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.
मापतपुरी से तन्हाई में जब मिले.
आईना शर्म का खुद चटकता रहा.
उनकी आगोश में मैं पिघलता…
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Added by satish mapatpuri on September 23, 2010 at 5:30pm —
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विस्मृति
पोस्त के लाल फूल
असंख्य
उन्हें छूकर बहती प्रमत्त हवा
ठंडी गुफा के मुहाने पर
पालथी मारे बैठा सूरज
देख रहा है फेनिल
धारा का झर-झर झरना ...
झागों के पत्ते अभी टूट कर बिछ गए हैं ..
पतझड़ जो लगा है ..
चट्टानों के बिछौनों पर ...
अपने चारों ओर
देवदार , चीड़ के गुम्बदों में कैद
एक फंतासी ...
जिस पर मखमल -सी बर्फ
अपना आसमान ताने खड़ी है
और ढरक रही है…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 23, 2010 at 3:00pm —
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