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चंद अश'आर: तितलियाँ --- संजीव 'सलिल'

चंद अश'आर:

तितलियाँ

--- संजीव 'सलिल'

*

तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
'भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया'?
*
कहा तितली ने 'मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले'..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियाँ ही बाग की रौनक बनी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
*

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Comment by sanjiv verma 'salil' on September 26, 2010 at 2:11pm
dhanyavad bagee jee, asheesh jee.
Comment by आशीष यादव on September 26, 2010 at 11:46am
आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
वाह सलिल जी, प्रतिको का उत्तम प्रयोग कर के आप ने कमाल की रचना की है| और उपरोक्त पंक्तियों में तो यमक अलंकार का अच्छा उदहारण भी प्रस्तुत किया है|
भूरि भूरि प्रसंशा के काबिल है yah रचना|

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 26, 2010 at 10:56am
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..

प्रेरणादायक पक्तियां, खुबसूरत अश'आर , बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है आचार्य जी ,

कृपया ध्यान दे...

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