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विस्मृति

पोस्त के लाल फूल
असंख्य
उन्हें छूकर बहती प्रमत्त हवा
ठंडी गुफा के मुहाने पर
पालथी मारे बैठा सूरज
देख रहा है फेनिल
धारा का झर-झर झरना ...
झागों के पत्ते अभी टूट कर बिछ गए हैं ..
पतझड़ जो लगा है ..
चट्टानों के बिछौनों पर ...
अपने चारों ओर
देवदार , चीड़ के गुम्बदों में कैद
एक फंतासी ...
जिस पर मखमल -सी बर्फ
अपना आसमान ताने खड़ी है

और ढरक रही है ख़ामोशी ...
तोड़कर कलकल की ध्वनि को ..
जैसे चुप ओठों पर
धर दी हो सर्द उँगली समय की !
लौट आने का मन नहीं ..
इस मानवेतर भीड़ से -
अकेले
दूर क्षितिज के पार
कुछ रेखाएं
आकृतियाँ
कौंध रहीं हैं ...
मेरे प्रयाण का समय आ चला ...
निशब्द
चुप ..
आँखें मुंदने लगी हैं ...
नींद मत तोड़ना...
अपनी गुफा में सोने दो ..
कोई स्मृति नहीं
शरीर नहीं ...
बस "मैं" हूँ
और है निश्चिन्त निद्रा
समय इस नींद से हार
मौन है ...
ये तिलस्म नहीं
एक विस्मृति है मेरे होने की !
अपर्णा

(अपने उन एकांत क्षणों में जब मन निराशा से ओत-प्रोत था .. इस कविता का लिखना हुआ l बीमारी के दौरान लिखी इस कविता में प्रयाण की इच्छा .. किसी गंतव्य तक जाने की इच्छा केवल उन पलों का बोध है I कविता अंतर्मुखी हो गयी है.)

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Comment

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Comment by aleem azmi on February 8, 2011 at 2:39pm

bahut umda likha hai

tu shaheen hai parwaaz kaam tera

tere aage aasman aur bhi hai

Comment by Aparna Bhatnagar on September 23, 2010 at 9:14pm
धन्यवाद! गणेश जी . आपसे निरंतर जो प्रोत्साहन मिल रहा है , वह निश्चित रूप से हमारा मार्ग प्रशस्त करेगा l

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2010 at 9:08pm
लौट आने का मन नहीं ..
इस मानवेतर भीड़ से -
अकेले
दूर क्षितिज के पार
कुछ रेखाएं
आकृतियाँ
कौंध रहीं हैं ...
मेरे प्रयाण का समय आ चला ...
बहुत खूब, एक एक शब्द जैसे तौल तौल कर रखी गई है, बेहतरीन कविता, सुंदर भाव,

कृपया ध्यान दे...

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