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दोहा पंचक . . . वक्त

दोहा पंचक. . . . वक्त

हर करवट में वक्त की,छिपी हुई है सीख ।

आ जाए जो वक्त तो, राजा मांगे भीख ।।

डर के रहना वक्त से, ये शूलों का ताज ।

इसकी लाठी तो सदा, होती बे-आवाज ।।

पल भर की देता नहीं, वक्त किसी को भीख ।

अन्तिम पल की वक्त में , गुम हो जाती चीख ।।

बिना वक्त मिलता नहीं, किस्मत का भी साथ ।

कभी पहुँच कर लक्ष्य पर , लौटें खाली हाथ ।।

सुख - दुख सब संसार में, रहें वक्त  आधीन  ।

काल पाश में  आदमी, लगता कितना दीन…

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Added by Sushil Sarna on July 29, 2024 at 1:30pm — 6 Comments

दोहा अष्टम. . . . प्रश्न

दोहा अष्टम ......प्रश्न

उत्तर   सारे   मौन   हैं,  प्रश्न   सभी   वाचाल ।

किसने जानी आज तक,भला काल की चाल ।।

यह   जीवन   तो   शून्य  का, आभासी है रूप ।

पग - पग पर संघर्ष की, फैली तीखी धूप ।।

तोड़ सको तो तोड़ दो, प्रश्नों का हर जाल ।

यह जीवन तो पूछता, हरदम नया सवाल ।।

हर मोड़ पर जिंदगी, पूछे एक सवाल ।

क्या पाने की होड़ में, जीवन दिया निकाल ।।

फिसला जाता रेत सा, जीवन जरा संभाल ।

क्या जानें किस मोड़ पर, मिले अचानक काल ।।

बहुतेरे…

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Added by Sushil Sarna on July 25, 2024 at 3:31pm — No Comments

बात कुछ और निकली है

बात कुछ और सोची थी, बात कुछ और निकली है

मेरे दिलबर के दिल की कहानी कुछ और निकली है

बड़ी फुर्सत से उस रब ने करी थी कारीगरी लेकिन

जो बन के है आई वो जवानी कुछ और निकली है

सुनाई थी जो तुमने ही कहानी, फिर से दोहरा दो

मेरे वीरान गुलिस्तां में डाली फूलों की लहरा दो

तेरे आने से जो खुशबू हवा में घुल सी जाती थी

तू है अब भी वही, लेकिन वो खुशबू कुछ और निकली है

खनक थी चूड़ियों में जो, झनक थी पायलों में जो

बिना…

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Added by AMAN SINHA on July 23, 2024 at 8:03pm — No Comments

दोहा पंचक. . . . मेघ

दोहा पंचक. . . . . मेघ

हाथ जोड़ विनती करे, हलधर बारम्बार।

धरती की जलधर सुनो, अब तो करुण पुकार।।

अवनी से क्यों रुष्ट हो, जलधर बोलो आज ।

हलधर बैठा सोच में, कैसे उगे  अनाज ।।

अम्बर के हर मेघ में, हलधर की है आस ।

बिन जलधर कैसे मिटे, तृषित धरा की प्यास ।।

सावन में अठखेलियाँ, नभ में करे पयोद ।

धरा तरसती वृष्टि को, मेघा करते मोद ।।

श्वेत हंस की टोलियाँ, नभ में उड़े स्वछंद ।

धूप - छाँव का हो रहा, ज्योँ आपस में द्वन्द्व…

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Added by Sushil Sarna on July 22, 2024 at 12:50pm — 2 Comments

सुख-दुख / (दोहे)

पड़ते दुख के घाट पर, कभी न जिनके पाँव

समझ न आता  है  उन्हें, जग  में रोता गाँव।१।

*

चल आती है जो खुशी, दुख बैठा जिस राह

पुरखों से सुनते  वही, टिकती  बहुत अथाह।२।

*

सुख से सुख की कब हुई, तुलना जग में बोल

सुख का करते मान  हैं, बजकर दुख के ढोल।३।

*

दुख आकर देता सदा, सुख को रंग हाजार

उस बिन फीका ही रहे, सुख का घर संसार।४।

*

दुख तो ऐसा बौर है, जिस भीतर सुख बीच

जोर-जबर से कब  इसे, कोई  सका उलीच।५।

*…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 22, 2024 at 6:00am — 2 Comments

दोहा पंचक. . . . . गिरगिट

दोहा पंचक. . . . . गिरगिट

बात- बात पर आदमी ,बदले रंग हजार ।

गिरगिट सोचे क्या करूँ, अब  इसका  उपचार ।।

गिरगिट माँगे ईश से, रंगों का अधिकार ।

लूट लिए इंसान ने, उसके रंग अपार ।।

गिरगिट तो संसार में, व्यर्थ हुई बदनाम ।

रंग बदलना आजकल, इंसानों का काम ।।

गिरगिट बदले रंग जब , भय का हो आभास।

मानव बदले रंग जब, छलना हो विश्वास ।।

शायद अब यह हो गया, गिरगिट को आभास ।

नहीं सुरक्षित आजकल, इंसानों में वास ।।

सुशील सरना /…

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Added by Sushil Sarna on July 16, 2024 at 8:30pm — 3 Comments

गीत - पर घटाओं से ही मैं उलझता रहा

 

रात के हुस्न  पर थी  टँकी चाँदनी

पर घटाओं से ही मैं उलझता रहा 

चाँद पाने की कोशिश नहीं थी मगर

चाँद छूने को ही मैं मचलता रहा

 

सिक्त आँचल हिलाती रही रात भर

फिर भी गुमसुम हवा ही बही रात भर

कुछ सितारे ही बस झिलमिलाते रहे

धैर्य  की  ही  परीक्षा चली रात भर

 

प्रीति के दर्द को भी दबाये हुए

घूँट आँसू के ही मैं निगलता रहा

 

चाँद आया नहीं देर तक सामने

स्याह बादल लगे चादरें…

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Added by Ashok Kumar Raktale on July 16, 2024 at 5:43pm — 6 Comments

ग़ज़ल : मिज़ाज़-ए-दश्त पता है न नक़्श-ए-पा मालूम

१२१२ ११२२ १२१२ २२

मिज़ाज़-ए-दश्त पता है न नक़्श-ए-पा मालूम

हमारे दर्द-ए-जिगर का भी किसको क्या मालूम

करेगा दर्द से आज़ाद या जिगर छलनी

तुम्हारे तीर-ए-नज़र की किसे रज़ा मालूम

न जाने कैसे थमेगा ये सिलसिला ग़म का

कोई बताये किसी को हो गर ज़रा मालूम

झुकाएं कौन से दर पर ज़बीं ये दीवाने

वफ़ा का कौन सा घर है किसी को क्या मालूम

क़फ़स में क़ैद परिंदे की बेबसी देखो

न हश्र-ए-क़ैद पता है न है ख़ता…

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Added by Aazi Tamaam on July 14, 2024 at 11:30am — 10 Comments

गजल

बह्र-2122 2122 2122 212

काफ़िया- गुमरही "ई" स्वर

रदीफ़-"क्या चीज़ है"



ग़ज़ल-



समझा राहे-दिल से हट कर गुमरही क्या चीज़ है।

बे सरो-पाई है क्या और बे घरी क्या चीज़ है।।



प्यार रब की बन्दगी है प्यार रब की है रज़ा।

प्यार से बढ़ कर जहाँ में दूसरी क्या चीज़ है।।



ख़ुश्क होठों पर ये रखते हैं तराने प्यार के।

आशिक़ों से पूछ लो दीवानगी क्या चीज़ है।।



उनको छेड़ा इक ज़रा तो हो गया चेहरा गुलाल।

खुल गया मुझ पर उभरती रौशनी क्या चीज़… Continue

Added by Mamta gupta on July 13, 2024 at 11:28am — 5 Comments

अपना इक मेयार बना (ग़ज़ल)

लफ़्ज़ों को हथियार बना
फिर उसमें तू धार बना

छोड़ तवज़्ज़ो का रोना
अपना इक मेयार बना

लंबा वृक्ष बना ख़ुद को
लेकिन छायादार बना

बेवकूफ़ियाँ बढ़ती गयीं
जितना बशर हुश्यार बना

शिकवा गुलों से है न तुझे?
तो कांटों को यार बना

जिसने दिखाई राह नई
वो दुनिया का शिकार बना

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on July 9, 2024 at 7:53pm — 4 Comments

दोहा सप्तक .. इच्छा , कामना, चाह आदि

दोहा सप्तक : इच्छा ,कामना, चाह  आदि

मानव मन संसार में, इच्छाओं का दास ।

और -और की चाह में, निस-दिन बढ़ती प्यास ।1।

इच्छा हो जो बलवती, सध जाता हर काम ।

चर्चा  उसके नाम की, गूँजे आठों याम ।2।

व्यवधानों की लक्ष्य में, जो करते परवाह ।

क्षीण लगे उद्देश्य में, उनके मन की चाह ।3।

अन्तर्मन की कामना, छूने की आकाश ।

सम्भव है यह भी अगर, होवें नहीं हताश ।4।

परिलक्षित संसार में, होता वो परिणाम ।

इच्छा के अनुरूप…

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Added by Sushil Sarna on July 5, 2024 at 8:30pm — 8 Comments

बात का मजा जाए-ग़ज़ल

बात सुनकर ही कुछ कहा जाए,
हो न ये, बात का मजा जाए।

बोल चल देते वे ठिकाने तज,
मूल जिनका हवा-हवा जाए।

सत्य कहने का भी सलीका है,
जिसको छोड़ो, न सच सहा जाए।

जिंदगी है, खुशी-ओ-रंज भी हैं,
साथ इनके मियां जिया जाए।

काम ईमान से करे अपना,
तो वो इंसाँ भला कहा जाए।

'बाल' सच को नकारा ही जाता,
ऐसा भी क्यों समझ लिया जाए?

मौलिक अप्रकाशित

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on July 4, 2024 at 10:18pm — 2 Comments

दोहा एकादश. . . . जरा काल

दोहा एकादश. . . . जरा काल

दृग जल हाथों पर गिरा, टूटा हर अहसास ।

काया  ढलते ही लगा, सब कुछ था आभास ।।1

जीवन पीछे रह गया, छूट गए मधुमास ।

जर्जर काया क्या हुई, टूट गई हर  आस ।।2

लार गिरी परिधान पर, शोर हुआ घनघोर ।

काया पर चलता नहीं, जरा काल में जोर ।।3

लघु शंका बस में नहीं, थर- थर काँपे हाथ ।

जरा काल में खून ही , छोड़ चला फिर साथ ।।4

अपने स्वर्णिम काल को ,मुड़-मुड़ देखें नैन ।

जीवन फिसला रेत सा, काटे कटे न रैन ।।5

सूखा रहता…

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Added by Sushil Sarna on July 3, 2024 at 2:00pm — No Comments

दोहे आज के. . . .

दोहे आज के .....

बिगड़े हुए समाज का, बोलो दोषी कौन ।

संस्कारों के ह्रास पर, आखिर हम क्यों मौन ।।

संस्कारों को आजकल, भला पूछता कौन ।

नंगेपन  के प्रश्न पर,  आखिर हम क्यों मौन ।।

नर -नारी के मध्य अब, नहीं शरम की रेख ।

खुलेआम अभिसार का, देख तमाशा देख ।।

सरेआम अब हो रहा, काम दृष्टि का खेल ।

युवा वर्ग में आम अब, हुआ अधर का मेल ।।

सभी तमाशा देखते, कौन करे प्रतिरोध ।

कल के बिगड़े रंग का, नहीं किसी को बोध ।।

कर में कर को थाम कर, चले…

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Added by Sushil Sarna on June 27, 2024 at 9:27pm — No Comments

ग़ज़ल

2122    1212   112/22

*

ज़ीस्त  का   जो  सफ़र   ठहर   जाए

आरज़ू      आरज़ू      बिख़र     जाए

 

बेक़रारी    रहे     न    कुछ    बाक़ी

फ़िक्र   का   दौर    ही    गुज़र जाए…

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Added by Ashok Kumar Raktale on June 25, 2024 at 3:30pm — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बालगीत : मिथिलेश वामनकर

बुआ का रिबन

बुआ बांधे रिबन गुलाबी

लगता वही अकल की चाबी

रिबन बुआ ने बांधी काली

करती बालों की रखवाली

रिबन बुआ की जब नारंगी

हाथ में रहती मोटी कंघी

रिबन बुआ जब बांधे नीली

आसमान सी हो चमकीली

हरी लाल हो रिबन बुआ की

ट्रैफिक सिग्नल जैसी झांकी 

बुआ रिबन जो बांधे पीली

याद आती है दाल पतीली

रिबन सफेद बुआ ने डाले

उड़े कबूतर दो…

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Added by मिथिलेश वामनकर on June 24, 2024 at 10:43pm — 2 Comments

जो कहता है मज़ा है मुफ़्लिसी में (ग़ज़ल)

1222 1222 122

-------------------------------

जो कहता है मज़ा है मुफ़्लिसी में

वो फ़्यूचर खोजता है लॉटरी में

दिखाई ही न दें मुफ़्लिस जहां से

न हो इतनी बुलंदी बंदगी में

दुआ करना ग़रीबों का भला हो …

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 22, 2024 at 3:30pm — 5 Comments

दोहा सप्तक. . . सच-झूठ

दोहे सप्तक . . . . . सच-झूठ



अभिव्यक्ति सच की लगे, जैसे नंगा तार ।

सफल वही जो झूठ का, करता है व्यापार ।।

झूठों के बाजार में, सत्य खड़ा लाचार ।

असली की साँसें घुटें, आडम्बर भरमार ।।

आकर्षक है झूठ का, चकाचौंध संसार ।

निश्चित लेकिन झूठ की, किस्मत में है हार ।।

सच के आँगन में उगी, अविश्वास की घास ।

उठा दिया है झूठ ने, सच पर से विश्वास ।।

झूठ जगाता आस को, सच लगता आभास ।

मरीचिका में झूठ की, सिर्फ प्यास ही प्यास ।।

सत्य पुष्प पर झूठ…

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Added by Sushil Sarna on June 18, 2024 at 9:13pm — No Comments

दोहा पंचक. . . . .सागर

दोहा पंचक. . . सागर

उठते हैं जब गर्भ से, सागर के तूफान ।

मिट जाते हैं रेत में, लहरों के अरमान ।।

लहर- लहर में  रेत पर, मचलें सौ अरमान ।

मौन तटों पर प्रेम की, रह जाती पहचान ।।

छलकी आँखें देख कर, सूना सागर तीर ।

किसके  अश्कों ने  किया, खारा सागर नीर ।।

कौन बनाता है भला, सागर तीर मकान ।

अरमानों को लीलता,  इसका हर तूफान ।।

देखा पीछे पर कहाँ, जाने गए निशान ।

हर वादे को दे गया, घाव एक तूफान ।।

सुशील सरना /…

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Added by Sushil Sarna on June 10, 2024 at 1:00pm — 6 Comments

सीमा के हर कपाट को - (गजल)-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२

कानों से  देख  दुनिया  को  चुप्पी से बोलना

आँखों को किसने सीखा है दिल से टटोलना ।१।

*

कौशल तुम्हें तो आते हैं ढब माप तौल के

जब चाहो खूब नींद को सपनों से तोलना।२।

*

कब जाग जाये कौन  सा  बदज़ात जानवर

सीमा के हर कपाट को खुलकर न खोलना ।३।

*

करना हमेशा अन्न का जीवन में मान तुम

चाहे पड़े  भकोसना  या फिर कि चोलना।४।

*

चक्का समय का घूम के लौटा है फिर वहीं

जिस में…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 8, 2024 at 5:44am — No Comments

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