For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

August 2015 Blog Posts (185)

क़ायदे मे

मालामाल धन् सॆ नही
चरित्र सॆ हॊता है
सन्त हमॆशा अपने
क़ायदे मॆ रहता है
जिस कि अज़ान पर
हक़ हर जाती का हो
मस्जिद मॆ समझो वहीं
सच्चा मुसलमान रहता है
क्या इत्तना भी हमे
तजुरबा नही रहा
कि बिलो मे
सदा साँप रहता है
मन्दिर् बहुत हैं गुरुद्वारे
से आगे थोड़ा जाकर
याद रखना खुदा हमारे
दिलों मॆ रॆहता है
खुद कॊ खुदा बताकर
जो हिम्मत नही हारे
सच कब तक झूठ के
फंदों मे रहता है।
मौलिक व अप्रकाशित"

Added by S.S Dipu on August 11, 2015 at 5:58pm — 3 Comments

उलझन - लघुकथा

"उलझन"

"क्या करने गया था उधर मंदिर की सीढ़ियो पर!"

"अभी साल भर पहले जो हुआ शहर में, याद नही!

"हाजी का बेटा होकर काफिर वाला काम!"

"चंद रोज पहले गुजरे अपने अब्बा के नाम का भी नही सोचा।"

"इस बार तो बीचबचाव हो गया, कोई फसाद हो जाता तो!".........

सभी हमदर्द अपनी अपनी कह चल दिये और वसीम आ खड़ा हुआ अपनी उलझन लिये अब्बु की तस्वीर के सामने।

"कैसे कहूँ अब्बा मैं इन लोगो से कि कल तक मस्जिद की अजान से मोहब्बत करने वाला आज मंदिर से आती आरती की आवाज से भी प्यार करने लगा है।… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 11, 2015 at 5:34pm — 6 Comments

लघुकथा - टूटे फ़ूटे लोग –

लघुकथा -  टूटे फ़ूटे  लोग –

"महाराज, यह मेरा त्यागपत्र है, कृपया  स्वीकार कर लीजिये"!

" चित्रगुप्त जी, यह कैसी अनहोनी कर रहे हो!आपके बिना यह कार्य कौन देखेगा!हमारे पास  दूसरा कोई अनुभवी व्यक्ति भी नहीं है"!

"महाराज, अब यह काम करना मेरी सामर्थ्य  का नहीं है"!

"चित्रगुप्त जी,विस्तार से समझाइये ,आखिर मामला क्या है"!

"महाराज,पृथ्वी लोक से, विशेषकर भारतीय उप महाद्वीप से जो मृत लोग आ रहे हैं, उनके शरीर  विकृत अवस्था में आ रहे हैं!कुछ शरीर बिना चेहरे के भी आते हैं…

Continue

Added by TEJ VEER SINGH on August 11, 2015 at 5:00pm — 4 Comments

ग़ज़ल- लहरें पतवार के संग किलकती रहीं - सुलभ

बहर - 212 212 212 212

लहरें पतवार के संग किलकती रहीं

मन के पाँवों में पायल सी बजती रहीं

पालकी बैठ सपने गए साथ में

रास्ते भर उमंगें लरजती रहीं

शोखियों की सहेली बनीं चूडि़याँ

लाजवन्ती निगाहें बरजती रहीं

सपनों में रातरानी ने घर कर लिया

कल्पनायें दुल्हन बन के सजती रहीं

देह भर में खिलीं क्यारियाँ-क्यारियाँ

चाहतें ओढ़ घूंघट मचलती रहीं

तितलियों सी निगाहें उड़ीं दूर तक…

Continue

Added by Sulabh Agnihotri on August 11, 2015 at 3:00pm — 10 Comments

भेड़िया, गिद्ध और कुत्ता

भेड़िए जैसे झपटते बच्चे

गिद्ध जैसे ताकते हुए

कुत्तों  की मानिंद

खाना छीनते हुए बच्चे

एक कूड़े के ढेर पर

मैंने देखे थे वो

भेड़िये ,गिद्ध और

कुत्ते जैसे बच्चे

इंसान का शेर या हाथी

जैसा होना सुहाता है

किन्तु भूख जब उसे भेड़िया,

गिद्ध या कुत्ता बना देती है

  और जब शिकार बचपन हो

तो आँखें शर्म से झुक जाती हैं

तब इस असमान बंटवारे पर

लज्जा आती है ,घृणा होती है

किसी ने तो खाना

बस फैंक…

Continue

Added by Tanuja Upreti on August 11, 2015 at 12:07pm — 11 Comments

गजल(मनन)

बंदगी एक स्वतंत्र देश की

2212 2212

अपना गगन अपना चमन!

अपनी धरा अपना वतन!

रातें गयीं तम भी गया,

ऐसा लगा बदला चलन।

खुली हवा साँसें गहन,

होगा नया सब कुछ वहन।

आसां नहीं आशा रही,

खींचे गये खाँचे गगन।

धूमों पटा तेरा गगन,

तू तो रहा अपने मगन।

रेखा लगा धरती गगन,

उसने तलाशा निज गगन।

तेरा गगन तू दूर अब,

तेरी धरा कितना क्षरण!

जीवन लिया तेरी दया,

बाँटे उसीने तो मरण।

खोजा कभी दंभी कहाँ?

कर दो उसे झंडा… Continue

Added by Manan Kumar singh on August 11, 2015 at 9:30am — 4 Comments

ग़ज़ल :- मैं शर्मिंदा नहीं अपने किये पर

मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन फ़ऊलुन



भले लिख दो,मिरा ग़म हाशिये पर

मैं शर्मिंदा नहीं अपने किये पर



अँधेरा इस क़दर फैला हुवा था

नज़र सबकी थी छोटे से दिये पर



मिरा कुछ बोझ हल्का हो गया है

मिरे बच्चों ने भी अब ले लिये पर



तुम्हारे हुस्न पर मिसरा लिखा था

कई शर्तें लगी थीं क़ाफ़िये पर



मिरी ग़ज़लो प सर धुंते हैं अपना

ये देंगे दाद मेरे मर्सिये पर



सभी शाइर समझ बैठे हैं उसको

किसी को शक नहीं बहरूपिये पर



"समर",ये लफ़्ज़ बे… Continue

Added by Samar kabeer on August 10, 2015 at 11:15pm — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- ‘चलो अपनी सुनाते हैं’ (मिथिलेश वामनकर)

1222—1222—1222—1222

 

घरौंदें, आस में अक्सर यही जुमलें सुनाते हैं 

‘परिन्दें, शाम होती है तो घर को लौट आते हैं’

 

वों तपते जेठ सा तन्हां हमेशा छोड़ जाते…

Continue

Added by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 9:00pm — 28 Comments

फँसाने आँखो के

फँसाने आँखो के
सूखे पड़े हए है
वक़्त के आगे
बेबस खड़े हुए है
यारों तुम भी हँस लो वरना
उन जैसे हो जाओगे
गाते हुए चेहरे जो
ख़ामोश पड़े हुए है
देर रात की सड़कों पर
धूमें तो मालूम हुआ
कुछ लोग पत्थरों पर
बिन चादर सोये हुए है
मालूम है हमें भी
हक़ीक़त उन चेहरों की
मुस्कुराकर हाथ मिलाने का
जो बोझ लिए हुए है
मौलिक व अप्रकाशित"

Added by S.S Dipu on August 10, 2015 at 8:47pm — 6 Comments

मील के पत्थर ....

मील के पत्थर....

पत्थर पर तो हर मौसम

बेअसर हुआ करता है

दर्द होता है उसको

जिसका सफ़र हुआ करता है

सिर्फ दूरियां ही बताता है

निर्मोही मील का पत्थर

इस बेमुरव्वत पे कहाँ

अश्कों का असर हुआ करता है

हर मोड़ पे मुहब्बत को

मंजिल करीब लगती है

हर मील के पत्थर पे

इक फरेब हुआ करता है

कहकहे लगता है

दिल-ऐ-नादाँ की नादानी पर

हर अधूरे अरमान की

ये तकदीर हुआ करता है

कितनी सिसकियों से

ये रूबरू होता है मगर

पत्थर तो पत्थर है…

Continue

Added by Sushil Sarna on August 10, 2015 at 8:26pm — 12 Comments

ग़ज़ल : घर चलो अब वक्‍त है आराम का

रंग गहरा हो गया है शाम का ।

घर चलो अब वक्‍त है आराम का ।।

आज उनको याद मेरी आ गई ।

कल तलक मैं था नहीं कुछ काम का ।।

घर चलो दहलीज़ होगी मुन्तजि़र ।

फि़क्र में गुज़रे न वक्फा़ शाम का ।।

खो न जाना इन नज़ारों में कहीं ।              

ये फुसूं है चर्खे  नीली फ़ाम का ।।

जब पड़ा था काम उनको याद था ।

अब पडा़ हूं जब नहीं  कुछ काम का ।।

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by Ravi Shukla on August 10, 2015 at 6:00pm — 9 Comments

ख्वाब

ख्वाब!

क्या है ये?

एक पल में राजा बना देता है

और दूसरे ही पल ..............

ज्योतिषियों के लिए तो दूर दृष्टी है

और अनाडि़यों के लिए...

फ्री का सनिमा

मेहनतकश के लिए उसकी मंजिल

हमारे और आपके लिए ..........

कभी खुद भी सोच लिया करो!

ख्वाब के रंग कई रुपो में बिखरे हैं

बच्चे, बूढे, जवान

सभी अलग-अलग रुपो में

इसका दीदार करते हैं

कोई परियों के साथ खेलता है तो

किसी को अपना भविष्य नजर आता है

और किसी को उसके परिश्रम का परिणाम

ख्वाब की…

Continue

Added by Pawan Kumar on August 10, 2015 at 5:13pm — 6 Comments

ग़ज़ल: जब-जब किसी परिंदे ने पंख फड़फड़ाए - सुलभ

बहर - 22 12122 22 12122 

जब-जब किसी परिंदे ने पंख फड़फड़ाए

वो बदहवास होकर ख़ंजर निकाल लाए

दुनियाँ की चाल चलनी जिस रोज़ से शुरू की

अपनी निगाह से हम गिर के फिर उठ न पाये

वो जानते हैं उनका भगवान जानता है

कानून से भले ही सब जुर्म बख्शवाये

रोज़े खतम न हों तो, क्या चाँद का निकलना

हम ईद मान लेंगे जब चाँद मुस्कुराये

मंजि़ल थी क़ामयाबी, ऊँचा महल अटारी

ईमान बेच आये, ईंटें ख़रीद लाये

हर फूल के…

Continue

Added by Sulabh Agnihotri on August 10, 2015 at 3:18pm — 12 Comments

उसके आगे::गज़ल

क्या काफिया,रदीफ़ क्या,अशआर उसके आगे,

क्या शेर,क्या मक्ता,गज़ल बेकार उसके आगे l

क्या आसमान,जुगनू,क्या चांद,क्या सितारे,

मुमकिन भला है किसका दीदार उसके आगे l



क्या गुल,कि क्या गुलिस्तां,कि क्या भला शबनम,

पतझड़ लगी है मुझको बहार उसके आगे l



ये तो अच्छा है कि वो पर्दे में रहती है,

वरना चांद भी हो जाये शर्मशार उसके आगे l



जब भीनिगाहें शोख ले गुजरी वो गलियों से,

सारा मुहल्ला पड़ गया बीमार उसके आगे l



हम भी इसी हालात के…

Continue

Added by Er Anand Sagar Pandey on August 10, 2015 at 11:00am — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पुण्य-लाभ (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर

दोनों लगभग एक ही साथ चित्रगुप्त के समक्ष पहुंचे क्योकिं आश्रम में हृदयघात से जब बाबा दुनिया से सिधारे तो  अगाध श्रद्धा रखने वाले भूपेश भाई ने भी सदमे में तत्काल प्राण त्याग दिए.

चित्रगुप्त ने बाबा को स्वर्ग में भेज दिया और भूपेश भाई को नर्क जाने का आदेश दिया.

सुनकर भूपेश भाई सन्न रह गए, लेकिन बाबा के आश्वासन की याद आते ही खुद को सँभालते हुए बोले-

“मुझे नरक क्यों भगवन?”

“क्योकि तुमने कोई पुण्य कार्य नहीं किया वत्स!”

“नहीं भगवन!....जीवन भर आश्रम में दान किया,…

Continue

Added by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 9:00am — 10 Comments

तेरी बातें (कविता)____मनोज कुमार अहसास

पढ़ा है दर्द की आँखों में तराना तेरा

तुझको मालूम हो शायद मेरा बेरंग सफ़र

मैंने हर लम्हा तेरी याद को पेशानी दी

तुझपे कुर्बान रही मेरी अकीदत की नज़र





मैं सुलगता हूँ तेरा साथ निभाने के लिए

हलाकि कुछ भी नही बाकि है जलने को इधर

ख़त्म हो चुकी इक रस्म की सांसो के लिए

ज़बी हर लम्हा ढूंढती है तेरी रहगुजर





तुझको पा लेना किसी हाल में मुमकिन ही न था

तुझको खोने की तमन्नाये उठी पर कैसे

जब थे मजबूर किसी बात की परवाह न थी

आज इन जमते हुए… Continue

Added by मनोज अहसास on August 9, 2015 at 10:39pm — 12 Comments

ग़ज़ल :यूँ ख़फ़ा भी कहाँ थे /श्री सुनील

2122 1212 22

यूँ ख़फ़ा भी कहाँ थे तब हम पर
तुम बहुत जाँ फ़िशाँ थे तब हम पर

उन दिनों खेलते थे तारों से
तुम हुए आस्मां थे तब हम पर

मन मुताबिक़ जहाँ में जी लेंगे
त़ारी कितने गुमां थे तब हम पर.

याद आई गली वो रूस्वाई
चीखते सब दहां थे तब हम पर.

हम तरद्दुद न इश्क़ के मानें
वो जुनूं हाँ जी हाँ थे तब हम पर.

मौलिक व अप्रकाशित

Added by shree suneel on August 9, 2015 at 5:46pm — 10 Comments

ट्रॉफी [लघु कथा]

"बधाई कर्नल कपूर i बेटे ने नाम रौशन कर दिया " कमांडेंट साहब ने गर्म जोशी से कर्नल से हाथ मिलाते  हुए कहा

 

"थैंक्यू सर "

 

आकाश देख रहा था अपने पिता को जो गर्व से फूले फिर रहे थे अपने ऑफिसर्स दोस्तों के बीच और सबकी बधाइयाँ ले रहे थे

 

उसके  काव्य संकलन को राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार मिला था ,हफ्ते भर से टीवी ,अखबारों में उसी के चर्चे थे

 

वो सोचने लगा .. ,' उसके जैसा  नाकारा बेटा जो आर्मी में नहीं गया ,  जिसने हिंदी साहित्य विषय चुना  और…

Continue

Added by pratibha pande on August 9, 2015 at 1:30pm — 10 Comments

गजल(मनन)

गजल
2122 2122 2122
तू कहीं जा ओ यहाँअब खैर ही कब?
तोड़कर दिल वो कहेंगे गैर ही कब?
है बसी बस्ती यहाँ उन बागवां की,
लूटते जो दिल कहें की सैर ही कब?
बैठ तेरे पहलू' मन की बात करते,
नोच बखिया खूब बोले गैर ही कब?
आ कहेंगे हम रहे कबसे रे बुलाते,
रे निभायी है वफ़ा बस बैर ही कब?
है नदी साग़र नहीं जल तो बहुत है,
तिर किनारे तू लगे अब खैर ही कब?
"मौलिक व अप्रकाशित"@मनन
साग़र=प्याला
'=मात्रा-पतन
बागवाँ=बागवाले

Added by Manan Kumar singh on August 9, 2015 at 12:03pm — 7 Comments

एक गजल - सुलभ अग्निहोत्री

बहर - 212 212 212 212

काफिया - अनी, रदीफ - डाल दी

धुंध यादों पे भरसक घनी डाल दी

बन्द कमरे में वो अलगनी डाल दी 

चिथड़ा-चिथड़ा चटाई बिछी देख कर

उसने खा के तरस चांदनी डाल दी

नाम अनचाहे पर्याय भय का बना

हादसों ने अजब रोशनी डाल दी

उम्र के मशवरे चल पड़े स्वप्न भी

ला के आंखों में हीरक कनी डाल दी

वक्त का जायका था कसैला बड़ा

जिक्र भर ने तेरे चाशनी डाल दी

श्याम का नाम तूने लिया क्या…

Continue

Added by Sulabh Agnihotri on August 9, 2015 at 11:30am — 8 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
4 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार ।विलम्ब के लिए क्षमा सर ।"
5 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया .... गौरैया
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी । सहमत एवं संशोधित ।…"
5 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .प्रेम
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार आदरणीय"
Monday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .मजदूर

दोहा पंचक. . . . मजदूरवक्त  बिता कर देखिए, मजदूरों के साथ । गीला रहता स्वेद से , हरदम उनका माथ…See More
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सुशील सरना जी मेरे प्रयास के अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद आपका। सादर।"
Monday
Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बेहतरीन 👌 प्रस्तुति सर हार्दिक बधाई "
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी समीक्षात्मक मधुर प्रतिक्रिया का दिल से आभार । सहमत एवं…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक ..रिश्ते
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार आदरणीय"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service