बहर - 22 12122 22 12122
जब-जब किसी परिंदे ने पंख फड़फड़ाए
वो बदहवास होकर ख़ंजर निकाल लाए
दुनियाँ की चाल चलनी जिस रोज़ से शुरू की
अपनी निगाह से हम गिर के फिर उठ न पाये
वो जानते हैं उनका भगवान जानता है
कानून से भले ही सब जुर्म बख्शवाये
रोज़े खतम न हों तो, क्या चाँद का निकलना
हम ईद मान लेंगे जब चाँद मुस्कुराये
मंजि़ल थी क़ामयाबी, ऊँचा महल अटारी
ईमान बेच आये, ईंटें ख़रीद लाये
हर फूल के बदन को घावों से भर दिया है
नाख़ून को थे नाहक़ ही दस्तख़त सिखाये
अच्छे दिनों की खातिर करतब किये हज़ारों
जब भी बुरे दिन आये, आये बिना बुलाये
मौलिक और अप्रकाशित
-------- सुलभ अग्निहोत्री
Comment
मंजि़ल थी क़ामयाबी, ऊँचा महल अटारी
ईमान बेच आये, ईंटें ख़रीद लाये
मुझे ज्यादा अच्छी लगी वैसे हर शेर अपनी जगह पर अपनी आवाज खुद बुलंद कर रहा है. सादर सुलभ अग्निहोत्री जी!
बहुत-बहुत आभार laxman dhami जी !
बहुत-बहुत आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी जी !
बहुत-बहुत आभार Dr Ashutosh Mishra जी !
अच्छे दिनों की खातिर करतब किये हज़ारों
जब भी बुरे दिन आये, आये बिना बुलाये
आ0 सुलभ भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई .
आदरणीय सुलभ भाई , वाह ! क्या गज़ल कही है , लाजवाब , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।
मंजि़ल थी क़ामयाबी, ऊँचा महल अटारी
ईमान बेच आये, ईंटें ख़रीद लाये आदरणीय सुलभ जी इस बेहतेरीन ग़ज़ल के तहे दिल दाद स्वीकार करें ..उद्धृत शेर बेहद पसंद आया सादर
बहुत-बहुत आभार Ravi Shukla जी !
आरणीय सुलभ जी
क्या बात है
रोज़े खतम न हों तो, क्या चाँद का निकलना
हम ईद मान लेंगे जब चाँद मुस्कुराये ... शान दार शेर दाद कुबूल करें
हर फूल के बदन को घावों से भर दिया है
नाख़ून को थे नाहक़ ही दस्तख़त सिखाये ...इस शेर के कथ्य के लिये दिली दाद कुबूल करें
अच्छी ग़ज़ल । आभार
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