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July 2011 Blog Posts (106)

बूंदों का बहना स्वीकार करो

फुहारों में रिमझिम बरसती,

या पेड़ों के,

मादक पत्तों से,

रिस रिस कर गिरती,

ये पानी की बूँदें हैं,

इनका मौसम से,

अपना सरोकार होता है,

और ज़रा गौर करेंगे तो,

हर बूँद का,

अपना आकार होता है...



बादलों से निकलती हैं,

तो बारिश बन जाती हैं,

अनुपात में गिरें तो जीवन,

वरना बहुत कहर ढाती हैं,

अधिक होने पर,

सैलाब आता है,

और हम आप कितना भी कर लें,

धरती का दर्द,

इन्हें सोख नहीं पाता है,

और यदि ये न बरसें,…

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Added by neeraj tripathi on July 17, 2011 at 10:24am — No Comments

जरा इधर भी करें नजरें इनायत

1. समारू - चावल उत्पादन के लिए छग सरकार को पुरस्कार मिला है।

पहारू - छत्तीसगढ़ का कटोरा, अब छग का परात बन गया है।





2. समारू - कल यानी 17 जुलाई को छग में प्री-पीएमटी की तीसरी बार परीक्षा होगी।

पहारू - यहां चौथी बार की नौबत आ जाए तो बड़ी बात नहीं होगी।





3. समारू - राहुल के मुंबई हादसे पर दिए बयान पर भाजपा ने पहाड़ सिर पर उठा लिया।

पहारू - क्या, एनडीए की सरकार के समय भारत अपराध मुक्त देश बन गया था ?





4. समारू - उत्तरप्रदेश की मुख्य सचिव… Continue

Added by rajkumar sahu on July 16, 2011 at 10:17pm — No Comments

कब यह पीर मिटेगी मन की....

[ विशेष - ओ.बी.ओ. के साहित्य मर्मज्ञ सुधि पाठकों के समक्ष अपनी यह रचना रख रहा हूँ. इसमें मैंने जीवन और आयु के विशेष सन्दर्भ इस मंतव्य के साथ प्रयोग किये हैं कि जीवन सदैव कम होता जाता है जबकि आयु सदैव बढ़ती ही जाती है...इसी भावना को ध्यान में रखकर रचना का अवलोकन करें...मुझे उम्मीद है कि ये विशिष्ट सन्दर्भ प्रयोग आप सभी को पसंद आएगा...]

 

 

कब यह पीर मिटेगी मन की.…

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Added by डॉ. नमन दत्त on July 15, 2011 at 10:00pm — 1 Comment

कुछ रुबाइयाँ....(जगदीश तपिश)

(१)

बाँटना तो चाहते हैं हम तेरे रंजो अलम पर,

वक़्त ने पाँव में जंजीर जो पहनाई है |

सो जाते हैं जब--सब--तब हम उठ के देखते हैं,

बरसों से सिरहाने में तस्वीर जो छुपाई है ||

 

(२)

उसने पूछा भी नहीं और हमने बताया भी नहीं,

बस इसी जद्दोजेहद में कट गई है ज़िन्दगी |

मेरे मालिक ये कैसा इम्तिहान ले रहे हो तुम,

वो लौट के आये हैं अब---जब बट गई है ज़िन्दगी ||

 

(३)

जिसकी थी जरुरत हमें वो तो नहीं मिली,

किसको बताते क्या मिला…

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Added by jagdishtapish on July 15, 2011 at 9:00pm — No Comments

"अतीत के अंश "

अतीत की स्मृति लहरी क्यों कर तरंगित होती है

निशीथ की इस बेला में क्यों व्यथा व्यथित बोती है?



पंथ है जब पथ पर गतिज फिर क्यों यह बाधित होता है,

व्यतीत कल के कलरव से, क्यों यह अंतस व्यथित होता है?



वेदना की व्यथा से होकर  व्यथित ,लक्ष्य पथ से क्यों हो रहा विचलित,…

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Added by Dhirendra Asthana on July 15, 2011 at 12:40pm — No Comments

''हैवानियत की इन्तहां''

है मरने वालों की लंबी बड़ी दास्तां

कुछ मरे हैं यहाँ कुछ मरे हैं वहाँ

एक इंसा की गर्दन है अब तक बची

उसके बदले में ये सब तबाही मची

कितनी बार ऐसे हो चुके हैं हादसे  

मुजरिम है सलामत बेगुनाह जा फँसे  

आतंकी अपनी हठ पर हैं कबसे अड़े

बहाया है खून लोगों के कर लोथड़े  

कितनों का बचपन पिता बिन लुटा

सुहागिनों का सिन्दूर माँगों से छुटा

माँ-बाप के कलेजों के चिथड़े हुये

हालात देश के और भी हैं बिगड़े हुये

हमने दिये हैं सबर…

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Added by Shanno Aggarwal on July 14, 2011 at 4:00pm — 6 Comments

अपने जज्बात तजुर्बात संभाले रखना

बेरुखी का कोई चिराग जलाये रखना

कम से कम एक सितारे को सताये रखना

शमा जल जायेगी बुझ जायेगी रुसवा होगी

दिल में जज्बात की इक लौ को जलाये रखना

तू वहीं है जहां से मेरी सदा लौटी है

अगर सुना न हो तो कान लगाये रखना

न जाने कौन सी महफिल है जहां मैं भी नहीं

मेरी जज्बात की रंगत को बनाये रखना

साथ वो आये न आये है ये उसकी मर्जी

अपने जज्बात तजुर्बात संभाले रखना

जिन्दगी दूर से कु्छ ऐसी सदा देती है

कोई मुश्किल नहीं अपनों को अपनाये रखना

ख्वाब आंखों में न… Continue

Added by Aakarshan Kumar Giri on July 14, 2011 at 2:42pm — No Comments

ख्वाहिश....

(१)

बे वजह उसने क्यों दूरी कर दी ,

बिछड़ के मोहब्बत अधूरी कर दी !

मेरी किस्मत में गम आये तो क्या,

खुदा उसकी ख्वाहिश तो पूरी कर दी !!



(२)

आइना कुछ नहीं नज़र का धोखा है,

नज़र वही आता जो दिल में होता है !

आईने और दिल का एक ही…

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Added by Niraj kumar on July 14, 2011 at 2:00pm — No Comments

शोर-ए दिल

वो लोगों के, दिलों में, झांकता है | 

वो कुछ, ज्यादा ही लम्बी, हांकता है ||



चला रहता है, वो कुछ खोजने को |
वो नाहक, धूल-मिटटी, फांकता है ||


न जाने, किस…
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Added by Shashi Mehra on July 14, 2011 at 10:00am — No Comments

परत-दर-परत फर्जीवाड़ा ?

छत्तीसगढ़ में पर्चा लीक होने के कारण पिछले महीने दूसरी बार आयोजित की गई प्री-पीएमटी परीक्षा के फर्जीवाड़े की जांच में खुलासे पर खुलासे होते जा रहे हैं। राज्य सरकार ने मामले की गंभीरता को देखते हुए फर्जीवाड़े की जांच के लिए सीआईडी को जिम्मेदारी दी है और करीब एक माह से जारी जांच में अब तक कई अहम राज सामने आए हैं। जांच में जो खुलासा जांच में हुआ है, उससे किसी की भी नींद उड़ना स्वाभाविक लगता है। दरअसल, पीएमटी फर्जीवाड़े के मामले की जांच कर रही सीआईडी को व्यावसायिक परीक्षा मंडल ( व्यापमं ) द्वारा पिछले… Continue

Added by rajkumar sahu on July 14, 2011 at 1:29am — No Comments

जरा इधर भी करें नजरें इनायत

1. समारू -छग पुलिस के मुखिया बदले गए।

पहारू - गृहमंत्री से मनमुटाव का परिणाम लगता है।





2. समारू - मुंबई फिल दहल उठी है।

पहारू - कसाब जैसों को और पालो।





3. समारू - डा. चरणदास महंत केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री बन गए हैं।

पहारू - पता है, छग के भाजपा मंत्री की मंद-मद मुस्कान देखा।





4. समारू - पीएमटी के अलावा छग व्यापमं की सभी परीक्षा में गड़बड़झाले की खबर आ रही है।

पहारू - मोटी परत है, धीरे-धीरे खुलेगी ही।





5. समारू -… Continue

Added by rajkumar sahu on July 14, 2011 at 12:01am — No Comments

भटके मुसाफिर

दोस्तों आज देश के उपर कुछ पंक्तियाँ लिखने जा रहा हूँ......................



जब आज़ाद हुआ था भारतवर्ष,

एक सपना सबने देखा था,

जैसे चाँद चमकता है तारों मे,

वैसा होगा देश कुछ सालों मे,

देश हमारा करेगा विकास,

गाँधी जी की यही थी आस,

खुदा भी देगा अपना साथ,

ऐसा उनका था विश्वास.



आज 64 साल हुए,

हम सब को आज़ाद हुए,

लेकिन क्या एक पल को सोचा,

क्या से क्या हालात हुए,

कल अँग्रेज़ों ने राज किया था,

हमें बहुत बर्बाद किया था,… Continue

Added by Rohit Dubey "योद्धा " on July 13, 2011 at 11:00pm — 3 Comments

नयन तुम्हारे

कुछ कहते कहते रुक जाते हैं,

चंचल, मदभरे, नयन तुम्हारे...

पल - पल देखो डूब रहे हम,

झील से गहरे नयन तुम्हारे....

 

मूक आमंत्रण तुमने दिया था,

अधरों से कुछ भी कहा नहीं,

मुझको अपने रंग में रंग गए,

हाथों से पर छुआ नहीं,

नैनो से सब बातें हो गयीं,

रह गए लब खामोश तुम्हारे....

 

स्पर्श तुम्हारा याद है मुझको,

सदियों में भी भूली नहीं,

कोई ऐसा दिन नहीं जब,

यादों में तेरी झूली नहीं,

बिन परिचय…

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Added by Anita Maurya on July 13, 2011 at 10:49pm — 2 Comments

कुदरत है अनमोल !

कुदरत है अनमोल !



कुदरत है बड़ी अनमोल

देख ले तू ये आँखें खोल ;

चल कोयल के जैसा बोल

कानों में तू रस दे घोल .

कुदरत है ........................





तितली -सा तू बन चंचल ;

सरिता सा तू कर कल-कल ;

बरखा जल सा बन निर्मल ;

घुमड़-घुमड़ कर बन बादल;

भौरा बन तू इत-उत डोल.

कुदरत है .............................

 



सूरज बन तू खूब चमक ;

चंदा सा तू बन मोहक ;

फूलों सा तू महक-महक ;

चिड़ियों जैसा चहक-चहक…

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Added by shikha kaushik on July 13, 2011 at 9:00pm — No Comments

शोर-ए-दिल

नई अदा से, मुहब्बत, जता रहा है कोई |

उन्हीं से उनके लिए, ख़त लिखा रहा है कोई ||


कहा गया न, जुबां से, जो रूबरू उनके |
बिठा के पास उन्हें, सब सुना रहा है कोई ||


वो पूछते भी हैं, उल्झा के, बातों-बातों…
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Added by Shashi Mehra on July 13, 2011 at 12:30pm — 1 Comment

शोर-ए-दिल

तिनका हूँ, शहतीर नहीं हूँ | 

ज़िन्दां हूँ, तस्वीर नहीं हूँ ||



टूट रहा हूँ, धीरे-धीरे |
मैं पुख्ता, तामीर नहीं हूँ ||


हैरत से, मत देखो मुझको |…
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Added by Shashi Mehra on July 13, 2011 at 9:30am — No Comments

शोर-ए-दिल

बन्दा हूँ, भगवान नहीं हूँ |

पत्थर का इंसान नहीं हूँ ||


वक़्त के साथ, बदल सकता हूँ |
कोई वेद-पुरान नहीं हूँ ||


मैं भी गलती कर सकता हूँ |
धर्म नहीं हूँ,…
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Added by Shashi Mehra on July 12, 2011 at 6:00pm — 2 Comments

व्यंग्य - ले लीजिए स्वर्णकाल का आनंद

व्यंग्य - ले लीजिए स्वर्णकाल का आनंद यह बात सही है कि हर किसी की जिंदगी में कभी न कभी स्वर्णकाल आता ही है। उपर वाला निश्चित ही एक बार जरूर छप्पर फाड़कर देता है, ये अलग बात है कि कुछ लोग उस छप्पर में समा जाते हैं तो कुछ लोग पूरे छप्पर को समा लेते हैं। कर्म तो प्रधान होना चाहिए, मगर भाग्य से भरोसा भी नहीं उठना चाहिए, क्योंकि यह तो सभी जानते हैं, जब स्वर्णकाल का दौर चलता है तो फिर फर्श से अर्श की दूरी मिनटों में तय होती है, मगर जब संक्रमणकाल चलता है तो फिर अर्श से फर्श तक आने में पल भर नहीं…

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Added by rajkumar sahu on July 12, 2011 at 1:20am — 1 Comment

शोर-ए-दिल

इब्तदा थी मैं, इन्तहां समझा |
एक गुलचीं को, बागवान समझा ||
भूल कह लो, इसे या नादानी |
बेरहम को,था मेहरबाँ समझा ||
ज़हन में, इतने चेहरे, बसते हैं |
मैंने खुद को ही, कारवाँ समझा ||
खुद फरेबी में, ज़िन्दगी गुजरी |  

झूठ को, सच सदा, यहाँ समझा ||
कोई मकसद नहीं है, जीने का |
बाद सब कुछ, 'शशि' गँवा समझा ||

Added by Shashi Mehra on July 11, 2011 at 8:03pm — 1 Comment

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