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बूंदों का बहना स्वीकार करो

फुहारों में रिमझिम बरसती,
या पेड़ों के,
मादक पत्तों से,
रिस रिस कर गिरती,
ये पानी की बूँदें हैं,
इनका मौसम से,
अपना सरोकार होता है,
और ज़रा गौर करेंगे तो,
हर बूँद का,
अपना आकार होता है...

बादलों से निकलती हैं,
तो बारिश बन जाती हैं,
अनुपात में गिरें तो जीवन,
वरना बहुत कहर ढाती हैं,
अधिक होने पर,
सैलाब आता है,
और हम आप कितना भी कर लें,
धरती का दर्द,
इन्हें सोख नहीं पाता है,
और यदि ये न बरसें,
तो जीवन कुछ यूँ पलता है,
जैसे ज़मीं की दरारों में
दिन रात कोयला जलता है...

कुछ ऐसी ही बूँदें हैं,
जो लोचनों में रहती हैं,
कभी पुतलियों में छलक आती हैं,
कभी गालों से होकर,
ज़रा चुपचाप बहती हैं,
पर ये मौसमी नहीं हैं,
कभी भी,
इनका आना हो सकता है,
इसलिए क्या आँखों से बेहतर,
इनका कोई ठिकाना हो सकता है..

ये भावनाओं को समझती हैं,
और सदा तैयार रहती हैं,
ये ग़मों को और खुशियों को,
इकट्ठा कर तरसती हैं,
और जब जिगर भर जाता है,
ये पलकों से बरसती हैं,
गालों से होकर जो टपक जाती हैं,
कभी कभी शर्म से,
खुद को आंसू बताती हैं,
कभी कभी हथेलियाँ,
इन्हें प्यार से रोप लेती हैं,
और हम मानते हैं,
की ये बूंदें नहीं मोती हैं...

ये सब के पास होती हैं,
बारिश की ही तरह,
गरीब अमीर नहीं सोचती हैं,
और आँखें बंद रखो या खुली,
ये अपना रास्ता खुद खोजती हैं,
कुछ लोग इन्हें रोक लेते हैं,
दिमागी शक्ति से टोक देते हैं,
तब ये कुछ मजबूर नज़र आती हैं,
आँखों से नहीं रिसती,
पर दिल में आंसुओं का,
तालाब बनाती हैं,
अज नहीं तो कल ये तालाब भरता है,
और तब कितनी भी कोशिश कर लें,
कहाँ कोई बाँध ठहरता है...

बारिश का धरती से,
जो अटूट रिश्ता है,
वही बंधन शरीर का,
आंसुओं से दिखता है,
इसलिए इन्हें मत रोको, बह जाने दो,
ये ख़त्म नहीं होते,
ज़रा सा दर्द तो और आने दो,
इसमें कोई शर्म नहीं, यह सदा से होता है,
इस धरती पर कभी न कभी,
हर शख्श रोता है,
इसलिए इन बूंदों का,
मत तिरस्कार करो,
खुश रहने के लिए हो या,
दिल के हल्केपन के लिए,
कभी कभी इन आँखों से,
बूंदों का बहना,
स्वीकार करो.

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