Added by rajkumar sahu on October 1, 2011 at 11:39pm — No Comments
(1)
मुकद्दर की बात.
हुकूमत के साथ-साथ ही दफ्तर बदल…
Added by AVINASH S BAGDE on October 1, 2011 at 4:00pm — 6 Comments
सबसे पहले मैं आप सबसे माफ़ी चाहती हूँ कुछ मसरूफियत की वजह से मैं ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा आप सबके खूबसूरत कमेंट्स का शुक्रिया अदा नहीं कर पाई , मैं आप जैसे ज़हीन लोगो के के बारे में क्या लिखूं...यहाँ सब के सब इतने काबिल हैं
Added by siyasachdev on October 1, 2011 at 1:53pm — 3 Comments
शान-ए-हिन्दोस्तान श्री जय देव 'विद्रोही'जी को 'कालिदास सम्मान'
Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 1, 2011 at 1:00pm — 2 Comments
हरिगीतिका
(1)
मधु छंद सुनकर छंद गुनकर, ही हमें कुछ बोध है,
सब वर्ण-मात्रा गेयता हित, ही बने यह शोध है,
अब छंद कहना है कठिन क्यों, मित्र क्या अवरोध है,
रसधार छंदों की बहा दें, यह मेरा अनुरोध है ||
(2)
यह आधुनिक परिवेश इसमें, हम सभी पर भार है,
यह भार भी भारी नहीं जब, संस्कृति आधार है,
सुरभित सुमन सब है खिले अब, आपसे मनुहार है,
निज नेह के दीपक जलायें, ज्योंति का…
Added by Er. Ambarish Srivastava on October 1, 2011 at 2:31am — 15 Comments
दिल लगाना हमने सुना है , एक गुनाह है यहाँ
सारी दुनिया को फिर तो गुनाहगार होना चाहिए ..
सुना है , मजा है बहुत , महबूब के इन्तजार में …
ContinueAdded by Rajeev Kumar Pandey on October 1, 2011 at 12:33am — 5 Comments
एक गीत:
शेष है...
संजीव 'सलिल'
*
किरण आशा की
अभी भी शेष है...
*
देखकर छाया न सोचें
उजाला ही खो गया है.
टूटता सपना नयी आशाएँ
मन में बो गया है.
हताशा कहती है इतना
सदाशा भी लेश है...
*
भ्रष्ट है आचार तो क्या?
सोच है-विचार है.
माटी का तन निर्बल
दैव का आगार है.
कालिमा अमावसी में
लालिमा अशेष है...
*
कुछ न कहीं खोया…
Added by sanjiv verma 'salil' on September 30, 2011 at 1:41am — No Comments
Added by rajkumar sahu on September 29, 2011 at 11:54pm — No Comments
Added by Anwesha Anjushree on September 29, 2011 at 4:46pm — 2 Comments
ज़ख्म खाने को सदा तैयार होना चाहिये
Added by Veerendra Jain on September 29, 2011 at 1:45pm — 5 Comments
प्रकृति और स्त्री
स्त्री और प्रकृति
कितना साम्य ?
दोनों में ही जीवन का प्रस्फुटन
दोनों ही जननी
नैसर्गिक वात्सल्यता का स्पंदन,
अन्तःस्तल की गहराइयों तक,
दोनों को रखता एक धरातल पर…
ContinueAdded by mohinichordia on September 29, 2011 at 10:35am — No Comments
Added by nemichandpuniyachandan on September 28, 2011 at 11:08pm — 1 Comment
तुमसे क्या उम्मीद करूँ, तुम दर्द बांटते रहते हो,
देश जले या लोग मरे, तुम माल काटते रहते हो!
तुम नेता हो, नवनिर्मित हो बस अपने सुख की सोचो तुम,…
ContinueAdded by Subhash Trehan on September 28, 2011 at 4:01pm — 3 Comments
ओ बी ओ सदस्य श्री अविनाश बागडे जी की रचना
खुश है जेल तिहाड़ का,मन में है विश्वास.
गृह-मंत्री भी आयेंगे,चलकर उसके पास.
कमल कर रहा कोलाहल,कीचड में है हाथ.
मध्यावधि- चुनाव के रौशन है हालात.
शीर्ष मंत्रियों में मची ऐसी ,काटम -काट.
दस- जनपथ का देखिये .चिंता भरा ललाट.…
Added by Admin on September 27, 2011 at 8:50pm — 7 Comments
शब्दों में खोकर कहते तुम
वाह ! यह कविता अच्छी है
या हँसकर कहते..
ओह ! क्या है यह? क्या तू बच्ची है ?
मेरे शब्दों में अपनी छवि
देख तुम इतराते !
नासमझ बनने की कोशिश में
बार बार हार जाते !
इन…
ContinueAdded by Anwesha Anjushree on September 27, 2011 at 4:37pm — 7 Comments
Added by rajkumar sahu on September 27, 2011 at 3:15pm — No Comments
पेट बडा है, भूख बड़ी है,
लोभ भरा है, सोच सड़ी है।
…
Added by Subhash Trehan on September 27, 2011 at 1:06pm — 5 Comments
एक हुए दोहा यमक:
संजीव 'सलिल'
*
लिए विरासत गंग की, चलो नहायें गंग.
भंग न हो सपना 'सलिल', घोंटें-खायें भंग..
*
सुबह शुबह में फर्क है, सकल शकल में फर्क.
उच्चारण में फर्क से, होता तर्क कु-तर्क..
*
बुला कहा आ धार पर, तजा नहीं आधार.
निरा धार होकर हुआ, निराधार साधार..
*
ग्रहण किया आ भार तो, विहँस कहा आभार.
देय - अ-देय ग्रहण किया, तत्क्षण ही साभार..
*
नाप सके भू-चाल जो बना लिये हैं यंत्र.
नाप सके भूचाल जो, बना न पाये…
Added by sanjiv verma 'salil' on September 27, 2011 at 7:30am — 1 Comment
नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
---------------अंतिम अंक --------------------
"कौन है?" मैंने हड़बड़ाकर पूछा .
Added by satish mapatpuri on September 26, 2011 at 10:00pm — 2 Comments
एक गीत:
गरल पिया है...
संजीव 'सलिल'
*
तुमने तो बस गरल पिया है...
तुम संतोष करे बैठे हो.
असंतोष को हमने पाला.
तुमने ज्यों का त्यों स्वीकारा.
हमने तम में दीपक बाला.
जैसा भी जब भी जो पाया
हमने जी भर उसे जिया है
तुमने तो बस गरल पिया है...
हम जो ठानें वही करेंगे.
जग का क्या है? हँसी उड़ाये.
चाहे हमको पत्थर मारे
या प्रशस्ति के स्वर गुंजाये.
कलियों की रक्षा करने को
हमने पत्थर किया हिया है…
Added by sanjiv verma 'salil' on September 26, 2011 at 9:30pm — 1 Comment
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