तेरे वादे कूट-पीस कर
अपने रग में घोल रही हूं
खबर सही है ठीक सुना है
मैं यमुना ही बोल रही हूं
पथ खोया पहचान भुलाई
बार-बार आवाज लगाई
महल गगन से ऊंचे चढ़कर
तुमने हरपल गाज गिराई
मेरे दर्द से तेरे ठहाके
जाने कब से तोल रही हूं
लिखना जनपथ रोज कहानी
मैं जख्मों को खोल रही हूं
ले लो सारे तीर्थ तुम्हारे
और फिरा दो मेरा पानी
या फिर बैठ मजे से लिखना
एक थी यमुना खूब था पानी
बड़े यत्न से तेरी…
Added by राजेश 'मृदु' on December 6, 2012 at 2:00pm — 17 Comments
गीत
संजीव 'सलिल'
*
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रजनी की कालिमा परखकर,
ऊषा की लालिमा निरख कर,
तारों शशि रवि से बातें कर-
कहदो हासिल तुम्हें हुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
राजहंस, वक, सारस, तोते
क्या कह जाते?, कब चुप होते?
नहीं जोड़ते, विहँस छोड़ते-
लड़ने खोजें कभी खुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
मेघ जल-कलश खाली करता,
भरे किस तरह फ़िक्र न करता.…
Added by sanjiv verma 'salil' on December 6, 2012 at 1:00pm — 16 Comments
मुक्तिका:
है यही वाजिब...
संजीव 'सलिल'
*
है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।
रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?
घर में भी बेघर रहोगे, चैन पाओगे नहीं,
आज यह, कल और कोई बाँह में गर चाहिए।।
चाक हो दिल या गरेबां, मौन ही रहना 'सलिल'
मेहरबां से हो गुजारिश- 'और कुछ फरमाइए'।।
आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ…
Added by sanjiv verma 'salil' on December 6, 2012 at 9:22am — 13 Comments
इन जुगनू सी यादों पे जोर नहीं है
गर्म अश्कों के बहने में शोर नहीं है l
किसी काफ़िर का होता नहीं ठिकाना
आज यहाँ है तो कल ठौर कहीं है l
दो बूँदे पीकर कभी प्यास ना बुझती
प्यासे सहरे का दिखता छोर नहीं है l
मालों ने गाँव की है बदल दी दुनिया
अब छोटा सा दिखता स्टोर नहीं है l
हर बात में नुक्स निकालना है सहज
करने को कुछ कहो तो जोर नहीं है l
-शन्नो अग्रवाल
Added by Shanno Aggarwal on December 6, 2012 at 1:57am — 10 Comments
देश चलाने वाले ही जब बिकने को तैयार खड़े हों
पैदा होते ही बचपन का पालन पोषण कर्ज तले हो
आम आदमी के घर में हो दो रोटी की खातिर दंगे
कौन बचाए अस्मित माँ की जिसके लाल दलाल बने हों ।।
धर्म नाम की धोखेबाजी मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे में
रक्तपात के उपदेशों का पाठ चल रहा हर द्वारे में
घोटालों की राजनीति में सब गुदड़ी के लाल पड़े हों
कौन बचाए अस्मित माँ की जिसके लाल दलाल बने हों ।।
हिजड़ों की बस्ती के दर्शन दिल्ली के दरबार मिलेंगे
संचालक मैडम के आसन दस जनपथ…
Added by Manoj Nautiyal on December 5, 2012 at 9:25pm — 9 Comments
न किसी खाप न किसी मौलवी से होगा
हमारे इश्क का फैसला तो हमीं से होगा
ये कह कर ठुकरा गया वो आसमाँ मुझे
हमारा वास्ता ही क्या तेरी जमीं से होगा
यूं दुआ को न तरस, यूं दवा को न ढूंढ
ज़ख्म इश्क ने दिया, ठीक शायरी से होगा
बेफिकर घूमता है, इश्क से अनछुआ
मुखातिब वो भी तो कभी दिल्लगी से होगा
यूं भी जिन्दगी किसी से बेताल्लुक नहीं होती
तेरा मिलना ही जरुर बुजदिली से होगा
मेरी ग़ुरबत पे कर कुछ निगाह कुछ करम
ये अंधेरों का मसला हल रौशनी से…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 5, 2012 at 7:06pm — 5 Comments
कर्ण और राम दो मित्र थे l राम एक व्यापारी बन गया लेकिन कर्ण अभी भी बेरोजगार था जिसकी वजह से उसकी घर की हालत ठीक नहीं थी l समय समय पर राम भी अपने मित्र की मदद कर देता था कुछ समय तक ऐसे ही चलता रहा l और एक दिन कर्ण को एक अच्छी नौकरी मिल गई जिस कारण घर में किसी वस्तु की कमी नही रह गई थी और धीरे धीरे धन की समस्या भी समाप्त होने लगी थी l इस कारण अब वह अपनी जिंदगी सही से और शांति की जिन्दगी जी रहा था l व्यापार मैं व्यस्त होने की वजह से राम और कर्ण एक दुसरे से मिल नहीं पाए…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on December 5, 2012 at 5:01pm — 7 Comments
आज नहीं स्पंदन तन में
क्षुधा-उदर भी रीते है
स्निग्ध शुभ्र वह प्रभा विमल
मुझको खूब सुभीते हैं
देह झरी अवसाद झरे
व्यथा-कथा के स्वाद झरे
किरण-किरण से घुली मिली
Added by राजेश 'मृदु' on December 5, 2012 at 4:43pm — 7 Comments
कार में बैठे शराबी चुस्कियाँ लेने लगे
तब भिखारी भी शहर के आशियाँ लेने लगे
रूठना आता नहीं है पर दिखावा कर लिया
रूठने के बाद हम ही सिसकियाँ लेने लगे
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 5, 2012 at 4:38pm — 13 Comments
रेत में जैसे निशां खो गए
हमसे तुम ऐसे जुदा हो गए
रात आँखें ताकती ही रहीं
मेहमां जाने कहाँ सो गए
सौंप दी थी रहनुमाई जिन्हें
छोड़कर मझधार में खो गए…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on December 5, 2012 at 4:30pm — 11 Comments
जानती हूँ
या कहो
बखूबी समझती हूँ
तुम्हारे चुपचाप रहने का सबब
हमारे बीच समझ का
जो अनकहा पुल है
कभी सच्चा लगता है और
कभी दिवास्वप्न सा
दुविधा की कई बातें हैं
जज्बातों की कई सौगाते भी हैं
जो अकेले बैठ के
अपने मन मंदिर में
कोमल अहसासों से पिरोयें हैं
साझा करने को कभी
पुल के इस पार तो आओ
दो बातें तो कर जाओ
जानती हूँ तुम्हें
या नहीं जानती की
उलझन तो सुलझा जाओ
Added by MAHIMA SHREE on December 5, 2012 at 4:22pm — 22 Comments
Added by अरुन 'अनन्त' on December 5, 2012 at 3:06pm — 16 Comments
मंदार माला सवैया :-
=================
राजा वही जॊ प्रजा कॊ दुखी दीन, संताप हॊनॆ न दॆता कभी !!
बाजी लगा दॆ सदा जान की आन,ईमान खॊनॆ न दॆता कभी !!
आनॆ लगॆं आँधियाँ राज मॆं आँख,आँसू भिगॊनॆ न दॆता कभी…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 5, 2012 at 12:00pm — 12 Comments
मत्तगयंद सवैया :-
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आज हुयॆ मतदान सभी चुनि, बैठ गयॆ चढ़ि आसन चॊटी,
भारत कॆ यह राज-मणी सब, फ़ॆंक रहॆ अब खॊटम खॊटी,
नागिन सी फ़ुँफ़कार भरॆं सब, छीनत हैं जनता कइ रॊटी,…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 5, 2012 at 10:00am — 10 Comments
Added by MARKAND DAVE. on December 5, 2012 at 10:00am — 2 Comments
जो सोने की चिड़िया था सो रहा है
जिसे रोना ना चाहिये वो रो रहा है l
इस दुनिया का है कुछ अजब कायदा
अब लोगों को जाने क्या हो रहा है l
नये जमाने में खो गयी सादगी कहीं
बस बोझ जीने का इंसान ढो रहा है l
मन में खोट और रिश्तों में है चुभन
यहाँ अपना ही अपनों को खो रहा है l
जहाँ उगे कभी मोहब्बत के थे शजर
वहाँ काँटों का जंगल अब हो रहा है l
कितनी गंगा हुई मैली जानते सभी
पर उसमें…
ContinueAdded by Shanno Aggarwal on December 5, 2012 at 3:57am — 3 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 4, 2012 at 7:00pm — 13 Comments
महाभुजंगप्रयात सवैया :-
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नहीं रास आईं वफ़ायॆं किसीकॊ, अनॆकॊं चलॆ हैं उसी राह राही !!
किनारॆ खड़ॆ दॆखतॆ हैं तमाशा,हमारी वफ़ा का सिला यॆ तबाही !!
पुकारा कई बार था नाम लॆकॆ,खुदाकी…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 4, 2012 at 2:00pm — 4 Comments
"आज के अखबार में प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम निकला है" जैसे ही हौस्टल में यह बात देवारती को पता चली, बेतहाशा दौड़ पड़ी लाईब्रेरी की ओर, अखबार उठा सारे रोलनंबर देखे, हर पंक्ति ऊपर से नीचे, दाएं से बाएँ, एक बार, दो बार, बार बार, पर उसका तो रोल नंबर ही नहीं था. उसके पैरों तले तो जैसे ज़मीन ही खिसक गयी. अपनी आखों पर यकीन नहीं हुआ, बुझे मन से भारी क़दमों से बाजार जा कर फिर से अखबार खरीदा, एक एक रोल नंबर पेन से काटा, कहीं उलट पलट जगह न छप गया हो. एक घंटा बीत गया, पर नहीं मिला उसका नंबर,…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on December 4, 2012 at 12:30pm — 15 Comments
थकी हुयी शतरंज का, मैं पिटा हुआ इक दांव हो गया
Added by ajay sharma on December 3, 2012 at 10:30pm — 1 Comment
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