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ग़ज़ल (रोटी)

2122 1212 22/112

जितनी क़िस्मत में थी लिखी रोटी

सबको उतनी ही मिल सकी रोटी

मुफ़्लिसी, भूख, दर्द, दुख, आंसू

हां, बहुत कुछ है बोलती रोटी

याद परदेस में भी आती है

मां के हाथों की वो बनी रोटी

ज़ाइक़ा कुछ अलग ही है इनका

वो नमक-मिर्च, वो दही-रोटी

रो रहा है सड़क पे इक बच्चा-

'दो दिनों से नहीं मिली रोटी'

कीं बहुत 'ज़ैफ़' कोशिशें हमने

बन न पाई वो गोल-सी…

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Added by Zaif on November 8, 2022 at 5:30am — 8 Comments

किसका बच्चा(लघुकथा)

किसका बच्चा

सँवरी के नाक-नक्श तीखे हैं। मुँह का पानी थोड़ा फीका पड़ा है,तो क्या? उसे दूल्हे के लिए कभी तरसना नहीं पड़ता। चढ़ती जवानी में उसे दिल्ली के दिल वाले दूल्हे का संग मिला। खूब रंगरेलियाँ हुईं।फिर उसे लगा कि उसका दूल्हा किसी और पर फिदा है।स्मृति-पटल पर वे लमहे उभरते, जब उसके हर नाज-नखरे कुबूल होते थे। अब उसे अपने भाव में कमतरी का अहसास हुआ। बिदक गई। दिल्लीवाले को चिढ़ाने के लिए उसने एक ठेंठ भोजपुरिया दूल्हा ढूँढा। उसके संग हो गई।प्यार…

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Added by Manan Kumar singh on November 7, 2022 at 3:14pm — 2 Comments

माँ-बाप

माँ-बाप को समझना कहाँ आसान होता है?

उनका साया हीं हम पर छत के समान होता है



प्रेम का बीज़ जिस दिन से माँ के पेट में पलता है

बाप के मस्तिष्क मे तब से हीं वो धीरे-धीरे बढ़ता है



पहले दिन से हीं बच्चा माँ के दूध पर पलता है

पर पिता के मेहनत से माँ के सिने में दूध पनपता है



सूने घर में कोई बालक जब किलकारी भरता है

उसके मधुर स्वर से हीं तो दोनों को बल मिलता है



पकड़ कर उंगली जीन हाथों ने चलना तुझको सिखाया

अपने हिस्से का बचा निवाला जिसने… Continue

Added by AMAN SINHA on November 7, 2022 at 2:29pm — 1 Comment

दुर्घटना. . . ( लघुकथा )

दुर्घटना ....(लघुकथा)

"निकल लो उस्ताद ।  बहुत भयंकर दुर्घटना हुई है । लगता है वो शायद मर गया है ।" कल्लू हेल्पर ने ड्राइवर रघु से कहा ।

रघु ने व्यू  मिरर से पीछे देखा तो दुर्घटना स्थल पर भीड़ दिखी । रघु ने ट्रक भगाने में भलाई समझी । रघु वहाँ से चला तो घर जा कर रुका।

"कल्लू ये घर पर भीड़ कैसी है ।" रघु ट्रक रोकते हुए बोला ।

भीड़ को चीरते हुए रघु जैसे ही अन्दर पहुंचा, तो देख कर सन्न रह गया । उसका 10 साल का इकलौता   बेटा रक्तरंजित  बीच आँगन में तड़प रहा…

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Added by Sushil Sarna on November 6, 2022 at 12:52pm — 2 Comments

ग़ज़ल : आशिक़ों का भला करे कोई

अरकान : 2122 1212 22/112

आशिक़ों का भला करे कोई

मौत आए, दुआ करे कोई

पाँव में फूल चुभ गया उनके

जाए जाए दवा करे कोई

हाल पे मेरे रोता है शब भर

सुब्ह मुझ पर हँसा करे कोई

फ़र्क़ ज़ालिम पे कुछ नहीं पड़ता

चाहे कुछ भी कहा करे कोई

ये नहीं होता, ये नहीं होगा

हम कहें और सुना करे कोई

इन रईसों के शौक़ की ख़ातिर

मरता हो तो मरा करे कोई

बेवफ़ा मुझको कह रहा है…

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Added by Mahendra Kumar on November 4, 2022 at 1:37pm — 12 Comments

अहसास की ग़ज़ल:मनोज अहसास

221   2121    1221    212

बेहद ज़रूरी है तू सभी को बिसार कर,

कुछ रोज अपने आप से जी भर के प्यार कर।

उलझन हो तेरी खत्म, मेरा दर्द भी मिटे,

इक बार मेरे दिल पे ज़रा दिल से वार कर।

कुछ फासले अधूरे हैं अब भी हमारे बीच,

इतना सफर इक दूसरे के बिन गुजार कर।

लगता है मैं भी मतलबी सा हो गया हूँ अब

सारी उमर की ख्वाहिशें दिल में ही मार कर।

अहसान भी हो जाएगा और दाम भी अलग

इस दौर में तू सोच समझ कर उधार…

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Added by मनोज अहसास on November 2, 2022 at 11:06pm — 4 Comments

झाड़-फूँक(लघुकथा)

बुनिया उम्र में बड़ी थी,तो क्या?गोरी चिट्टी,छरहरी थी। कमलू से ब्याह दी गई।अब कमलू अपना पाँच बार फेल हुआ मैट्रिक का इम्तहान संभाले, या बुनिया को निहारे? वह नाराज रहने लगी।

एक शाम बुनिया की तबीयत बिगड़ गई। हाथ-पैर पटकती। सिर दीवार से टकराती। घरेलू डॉक्टर की दवाएँ काम न आईं। चतुरी चाची बोलीं, ‘हवा लगी है।’

फिर क्या करें?’ घरवालों ने पूछा।

ओझा बुलाओ। और…

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Added by Manan Kumar singh on November 2, 2022 at 3:00pm — 2 Comments

ग़ज़ल

221 2121 1221 212



आँखों को रतजगे मिले हैं जल भराव भी

उल्फ़त में दुख मिले तो मिले गहरे भाव भी



कानों को आहटें सुने बर्षों गुज़र गये

बुझने लगे हैं आँखों के जलते अलाव भी



कुछ इसलिये खमोशियाँ ये रास आ गईं

दुनिया न जान ले कहीं अंतस के घाव भी



गर डूबना नसीब है तो फ़िक़्र क्यों करूँ

दरिया में अब उतार दी है टूटी नाव भी



वो साथ दे सका न बहुत देर तक मेरा

इक तो हवा ख़िलाफ़ थी उसपे बहाव भी



वो चाँद है,वो चाँद भला किसका हो…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 1, 2022 at 6:30pm — 16 Comments

काला ताजमहल

यह मन हो मानो घर तुम्हारा अपना

पार क्षितिज से जैसे कोई रहस्य-बिंबित

स्वरातीत गीत-सी याद तुम्हारी चली आई

थीं चाहे कितनी भी हम में अपूर्णताएँ अपार

विश्वास की आढ़ में था ठहरा सनातन प्यार

हर…

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Added by vijay nikore on November 1, 2022 at 11:55am — 5 Comments

दोहा त्रयी- सागर

दोहा त्रयी : सागर

सागर से बादल चला, लेकर खारा नीर ।
धरती को लौटा रहा, मृदु बूँदों का क्षीर ।।

जाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर ।
पीते -पीते हो गया , खारा उसका नीर ।।

लहरों से गीले सदा, रहते सागर तीर ।
बन कर कितने ही मिटे, यहाँ स्वप्न प्राचीर ।।

सुशील सरना / 31-10-22

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on October 31, 2022 at 12:51pm — 10 Comments

अपनी बोली

शिष्टाचार ही मिलती है पागलपन नहीं मिलता

गैरों की बोली में अपनापन नहीं मिलता

 

अपनी भाषा माँ का आँचल याद हमेशा आती है

द्वेष,क्रोध,विलाप हो जितना, हर भाव समझाकर जाती है

 

पर भाषा के बल पर चाहे समृद्ध जितने भी हो जाओ

पर वहाँ पर डटें रहने की दृढ़ता अपनी भाषा से हीं पाओ

 

किराए के मकान में कभी आँगन नहीं मिलता

गैरों की बोली में अपनापन नहीं मिलता

 

चाहे जितना लेख लिखो तुम, चाहे जितने…

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Added by AMAN SINHA on October 31, 2022 at 9:38am — No Comments

ग़ज़ल - यूँ मुहब्बत हो गई है

2122 2122

यूँ मुहब्बत हो गई है

गोया आफ़त हो गई है

बिन बताये जा रही हो

इतनी नफ़रत हो गयी है?

तुम भी चुप हो, मैं भी चुप हूँ

एक मुद्दत हो गयी है

नींद क्योंकर आए हमको?

अब तो उल्फ़त हो गयी है

पास मेरे आ गयी तुम

थोड़ी राहत हो गयी है

यूँ ख़ुदी से लड़ रहा हूँ

ज्यूँ बग़ावत हो गयी है

'ज़ैफ़' उसके जाते ही ये

क्या क़यामत हो गयी है!

(मौलिक…

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Added by Zaif on October 29, 2022 at 4:36am — 10 Comments

दीवाली

कुंडलियां*

हर घर की मुंडेर पर,
दीप जले चहुँ ओर।
दीवाली की रात है,
बाल मचाएं शोर।
बाल मचाएं शोर,
शोर ये बड़ा सुहाना।
भूलचूक सब भूल,
रहा लग गले जमाना।
खाओ रे *'कल्याण',*
मिठाई डिब्बे भर - भर।
खुशियाँ मिली अपार,
हुआ है रोशन हर घर।

*दोहा*

बढ़ें उजाले की तरफ,
हम सबके ही पांव।
इस दीवाली ना रहे,
अंधेरे में गांव।।

मौलिक एवम् अप्रकाशित
सुरेश कुमार 'कल्याण'

Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 27, 2022 at 8:34pm — No Comments

संतरी(लघुकथा)

संतरी

कई पहरेदार बदले,पर हालत नहीं बदली। मंदिर के सामान गायब होते रहे। हारकर पंचायत ने काली कुतिया के जने कजरे को संतरी बहाल किया।कारण था कि कजरा रात भर में गाँव के सभी दरवाजों पर भौंक आता था। यह भी तय हुआ कि अब कुत्तों कोसंतरीकहा जाएगा। आदमी पर से भरोसा उठ चुका था।

कजरा काम पर लग गया। रातभर मंदिर के आसपास घूमता। भौंकता। गाँव भर के ‘संतरीभी भौंकते।लेकिन अब नित नई-नई शिकायतें आने लगीं।

मंदिर के…

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Added by Manan Kumar singh on October 27, 2022 at 11:06am — 2 Comments

गीत -४ (लक्ष्मण धामी "मुसाफिर")

खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।

हैं अधर पर प्यास के अंगार आ जाओ।।

*

नित्य बदली छोड़ कर अम्बर।

बैठ  जाती आन  पलकों  पर।।

धुल न जाये फिर कहीं शृंगार आ जाओ।

खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।

*

शूल सी चंचल हवाएँ सब।

हो गयीं नीरस दिशाएँ सब।।

है बहुत सूना हृदय संसार आ जाओ।

खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।

*   

हो गयी बोझिल पलक जगते।

आस खंडित आस नित रखते।।

कौल को अब कर समन्दर पार आ जाओ।

खोल रक्खा है निमोही द्वार आ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 26, 2022 at 6:16am — 14 Comments

अबके बरस जो आओगे

अबके बरस जो आओगे, तो सावन सूखा पाओगे

सूख चुके इन नैनों को तुम, और भींगा ना पाओगे

और अगर तुम ना आए, प्यास ना दिल की बुझ पाए

पत्थराई नैनों सा फिर, दिल पत्थर ना हो जाए

अबके बरस जो आओगे, बसंत शुष्क सा पाओगे

मन के उजड़े बागीचे में, एक फूल खिला ना पाओगे         

और अगर तुम ना आए, अटकी डाली ना गिर जाए

सूखे मुरझाए मन को मेरे, पतझर हीं ना भा…

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Added by AMAN SINHA on October 25, 2022 at 1:12pm — 1 Comment

कफनचोर(लघुकथा)

कफनचोर

छोड़ा ही क्या है इसने?’

घर के पिछवाड़े तक की जमीन बेच दी।

भुवन के घर की यारी ऐसे ही फलती है।

भगेलू की भौजाई से रिश्ता था इसका।

मरने लगा तो बहन के घर इलाज कराने गया था।

शीला मरा पड़ा था और गाँव के मर्द-औरत यही सब बतिया रहे थे। अर्थी तैयार हुई।लाश उसपर रख दी गई।अब अर्थी उठने ही वाली थी कि सब लोग चौंक गए। ‘ठहरो। अर्थी नहीं उठेगी।भार्गव ज़ोर से चिल्लाया। साथ…

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Added by Manan Kumar singh on October 23, 2022 at 3:55pm — 6 Comments

ग़ज़ल : ज़िन्दगी की है ये मेरी दास्ताँ

अरकान : 2122 2122 212

ज़िन्दगी की है ये मेरी दास्ताँ

तुहमतें, रुसवाइयाँ, नाकामियाँ

आए थे जब हम यहाँ तो आग थे

राख हैं अब, उठ रहा है बस धुआँ

दिल लगाने की ख़ता जिनसे हुई

उम्र भर देते रहे वो इम्तिहाँ

सोचता हूँ क्या उसे मैं नाम दूँ

जो कभी था तेरे मेरे दरमियाँ

मैं अकेला इश्क़ में रहता नहीं

साथ रहती हैं मेरे तन्हाइयाँ

कहने को तो कब से मैं आज़ाद हूँ

पाँव में अब भी हैं लेकिन…

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Added by Mahendra Kumar on October 23, 2022 at 6:30am — 13 Comments

आज मैखाने का दस्तूर अज़ब है साक़ी |

 

आज मैखाने का दस्तूर अज़ब  है साक़ी |

जाम दिखता नहीं पर बाकी तो सब है साक़ी ।

 

मयकशी के लिए अब  मैं भी चला आया हूँ    

तेरी आँखों से ही पीने की तलब है साक़ी|

 

भूल जाता हूं मैं दुनिया के सभी रंजो अलम

जाम नज़रों का तेरे हाय गज़ब है साक़ी|

 

अपनी आँखों से ही इक जाम पिला दे मुझको

तेरे मयख़ाने में ये आख़िरी शब है साक़ी|

 

तेरी चौखट की तो ये बात निराली लगती

जाति मजहब न कोई नस्ल–नसब है…

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Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on October 22, 2022 at 9:30pm — 5 Comments

अपनी अपनी खुशी(लघुकथा)

अपनी अपनी खुशी  

ऊँचका घर यानि बाबा घर में लंबी प्रतीक्षा के बाद पोता हुआ है।पोतियाँ पहले से हैं। परिवार के कुछ लोग शहर से आए हैं। मिठाइयाँ बंट रही हैं। मुहल्ले के लोग मिठाई खाते,खुशी का इजहार करते। कोई कहता, ‘बस यही कमी…

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Added by Manan Kumar singh on October 20, 2022 at 6:00pm — 4 Comments

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"आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
3 hours ago

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मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-111 (घर-आँगन)
"मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक आभार "
yesterday

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"मेरे कहे को मान देने के लिए आपका आभार।"
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"आशा है अवश्य ही शीर्षक पर विचार करेंगे आदरणीय उस्मानी जी।"
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"गुत्थी आदरणीय मनन जी ही खोल पाएंगे।"
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"धन्यवाद आदरणीय उस्मानी जी, अवश्य प्रयास करूंगा।"
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